भारत के पीएम (प्रधानमंत्री), सीएम (मुख्यमंत्री) और डीएम (जिलाधिकारी) तीन सबसे महत्त्वपूर्ण, शक्तिशाली और प्रभावशाली पद हैं. तीनों पदों का सीधा जुड़ाव आम जनता से है. इन तीनों पदों के साथ पावर और सामाजिक प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा जुड़ी है. गाँव का एक गरीब, कमजोर, अशक्य इनसान डीएम बनते ही फर्श से अर्श पर पहुँच जाता है.
जीवन में अचानक इतना बड़ा बदलाव अधिकांश लोगों को उनके मूल जीवन के जड़ से अलग कर देता है. अहं भर देता है. डीएम के पद से लोगों का जीवन बेहतर बनाया जा सकता है. यही इस पुस्तक के किरदार डीएम डॉ. हीरा लाल द्वारा किया गया है. सभी को साथ लेकर, सभी की ऊर्जा से, सभी का जीवन बेहतर और खुशहाल बनाया गया.
प्रगति हर जीवित प्राणी की एक स्वाभाविक प्रकृति है. यह कभी पीड़ा से, कभी सपनों से और कभी-कभी दोनों से उत्पन्न होती है. जीवन को सँवारने में सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य बहुत सारी परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं, जब कोई बच्चा इस संसार में आता है तो वह स्वतः अपने आसपास के वातावरण को ग्रहण करने लगता है. इसमें कुछ में उसे आनंद आता है और कुछ को वह मजबूरी वश सहन करते हुए इनसे निपटने के सपने देखने लगता है. अंदर की गहरी सोच और संवेदना कभी-कभी इतनी गहराई तक पहुँच जाती है कि बच्चा बड़ा होते-होते अपने आदर्श चुनने लगता है. यह ऐसे आदर्श होते हैं, जिनमें एक ऐसे समाज की कल्पना होती है, जो हर तरह की कुरीतियों और बुराइयों से परे होता है.
परिवर्तन समय-समय पर होते रहते हैं. दृढ़ संकल्प वाले लोग बिना किसी प्रकार की उलझन या परेशानी में पड़े हुए अपने रास्ते खुद बना लेते हैं. मेरे जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के साऊघाट ब्लाॅक के गाँव बागडीह में कुर्मी (पटेल) किसान परिवार में हुआ. मेरे परिवार का पैतृक पेशा कृषि है. मेरे पिता कृषि के साथ पशु चिकित्सालय में कंपाउंडर के पद पर नौकरी में भी थे.
भारत गाँवों में बसता है. गाँव में मेरे जन्म के समय (1966) लड़के को समाज और परिवार में ज्यादा तरजीह मिलती थी. इस सोच और भावना की वजह से, मैं पूरे परिवार का सपना बना. परिवार के लोग मुझमें, अपने विकास और उन्नति का राह देखने लगे.
मेरा परिवार गाँव में सबसे ज्यादा संपन्न और प्रतिष्ठित था. हमारा एक पक्का कुआँ था. आधे से ज्यादा गाँव इसी से पानी पीता था. गरमी में सभी लोग मिलकर सामूहिक सफाई करते थे. शादी में दूल्हा कुएँ का चक्कर लगाकर आटे का दीपक जलाकर कुएँ में गिराता था. इसे शुभ माना जाता है. यह ब्याहता कुआँ है. कभी-कभी पैसे का भी अभाव हो जाता था. गरीबी का अहसास भी मैंने किया है. कभी कुछ खाने को मन करता था तो पैसे की कमी के कारण या तो मिलता नहीं था या कम मिलता था. गरीबी तो नहीं, लेकिन पैसे की कमी के अभाव को देखा और जिया है.
मेरा घर का नाम ‘पप्पू’ है. मेरे घर के पुरोहित द्वारा मेरा नाम ‘हाकिम’ रखा गया था. 1966 से 1980 तक गाँव बागडीह में रहा. 1980-1984 तक राजकीय इंटर कॉलेज बस्ती में रहा. एक साल इलाहाबाद में रहा. वर्ष 1985 से 1990 तक पंत नगर विश्वविद्यालय उधम सिंह नगर (उत्तराखंड) में रहा. एक साल दिल्ली में रहकर तैयारी की. वर्ष 1991 में IT BHU में M.Tech में प्रवेश लिया. वर्ष 1991-1993 तक वाराणसी में रहा. मार्च 1993 से जुलाई 1994 तक NTPC में इंजीनियर की नौकरी की. जुलाई 1994 से जून 2016 तक PCS में कार्य किया. जून 2016 से IAS के रूप में सेवा दे रहा हूँ.
बचपन में मेरा अन्य बच्चों की भाँति पढ़ने में कम, खेल-कूद में ज्यादा मन लगता था. पिताजी से डर भी लगता था. कई बार गलती पर पिटाई भी हुई. गरमी में घर के पीछे पेड़ों के नीचे चारपाई पर बिना गद्दा डाले समय व्यतीत होता था. पेड़ की छाया और हवा कूलर का काम करते थे. गाँव में ही एक बड़ा पोखर (तालाब) है. सभी बच्चे गरमी में दोपहर के समय 2-3 घंटे पानी में रहते थे, खूब मजा आता था. मेरे पिताजी ने बाबा द्वारा बनवाया बड़ा खपरैल का घर गिराकर पक्का मकान बनवाया. इसमें ईंटें दूर से ढोकर लाते थे. मैं भी ढोता था. कभी-कभी खेतों में भी काम करते थे. खेती की मोटी-मोटी पूरी जानकारी है. किसान की परेशानी से पूरी तरह अवगत हूँ. लेखपाल, पुलिस अन्य कर्मी कैसे गाँव के साथ व्यवहार करते हैं. क्या-क्या परेशानी गाँववालों को होती हैं, इससे पूर्णतया भिज्ञ हूँ.
गाँव में नौकरी की अच्छी चाहत है. बच्चे को अच्छे पद पर देखने की चाहत बच्चे से ज्यादा माता-पिता की होती है. बच्चा जब तक समझदार होता है, तब तक माता-पिता बच्चे के शानदार भविष्य के सपने देखने लगते हैं. यही मेरे साथ भी हुआ. मेरे पिताजी ने सपना देखा कि मैं प्रशासनिक अधिकारी बनूँ. मैं बन भी गया.
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शुरुआती पढ़ाई कक्षा 5 तक की प्राइमरी स्कूल से हुई. बहुत संघर्ष था. गाँव से लगभग 3 किमी. दूर प्राइमरी पाठशाला सिहारी में पैदल जाकर पढ़ाई की. बैठने के लिए घर से बोरा ले जाते थे.
बरसात में विद्यालय पानी से चारों तरफ से घिर जाता था. कभी-कभी पैंट उतारकर घुटने भर पानी से होकर गुजरना पड़ता था. स्कूल की छत जगह-जगह से टपकती थी. पानी टपकने के कारण इधर-उधर खिसकना पड़ता था. सबसे पहले सभी बच्चे स्कूल परिसर की सफाई करते थे. दोपहर में खाने का अवकाश मिलता था. बच्चे स्कूल से सटे बाग की टहनियों पर बैठकर खाते थे. आपस में खाना भी बाँटते थे. कभी-कभी दोपहर का खाना स्कूल में मिलता था. पूरा स्कूल एक परिवार लगता था. खुले आसमान में खुला वातावरण रहता था, जो अब नहीं मिलता.
मैं पढ़ने में कक्षा में सबसे अच्छा था. मेरी काॅपी अध्यापक जाँच देते थे. मैं कक्षा के बच्चों की काॅपियाँ जाँचा करता था. यह मेरे स्वाभिमान और सम्मान को बढ़ाता था.
कक्षा 6 से 8 तक की पढ़ाई किसान उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, रसूलपुर में की. यह एक सहायता प्राप्त प्राइवेट विद्यालय था. इसके अलावा अन्य कोई निकट में विद्यालय नहीं था. यह विद्यालय मेरे गाँव से 5 किमी. दूर था. प्रतिदिन 10 किमी. का पैदल मार्च करना पड़ता था. श्री राम मिलन मिश्रा मेरे क्लास टीचर थे. हिंदी पढ़ाते थे. हिंदी रटनी पड़ती थी. मैं हिंदी में कमजोर था. कभी-कभी बेहया से पिटाई भी होती थी. बेहया पौधे की डंडी हमीं लोगों से मँगाई जाती थी. मार खाने पर कभी-कभी दोनों हाथों में लाल-लाल निशान बन जाते थे, लेकिन इसी पिटाई ने IAS बना दिया.
कक्षा 8 में एकीकृत छात्रवृत्ति की एक परीक्षा दी. इस योजना में प्रत्येक ब्लाॅक से एक ग्रामीण छात्र का चयन किया जाता था. चयनित छात्र को 100 रुपए प्रतिमाह छात्रवृत्ति और छात्रावास मिलता था.
मकसद 1800 रुपए मासिक वजीफा पाना और छात्रावास की सुविधा लेकर तैयारी करना था, ताकि तैयारी हेतु एक उपयुक्त स्थान और माहौल मिल सके. यहाँ कुछ अन्य लोग भी तैयारी कर रहे थे. एक हलका सा माहौल तैयारी करने का था.
सोचा था कि M.Tech पूरा कर लेंगे, लेकिन मन में आया कि M.Tech का कोई फायदा नहीं है. क्यों सिर खपाना, लेकिन 20 साल बाद महसूस हुआ कि यह निर्णय गलत था. M.Tech पूरा कर लेना चाहिए था. इसको लेकर आज भी मन में शिकन है.
मेरे मन में अमेरिका जाने की चाहत पैदा करनेवाले अब इस संसार में नहीं हैं. मैं उपजिलाधिकारी संभल था. इकरोटिया गाँव, असमौली ब्लाॅक में है. यहीं के प्रो. इबनुल हसन बाकरी अमेरिका में रहते थे. इनका गाँव में एक अच्छा विद्यालय था. इन्हें अपने बचपन का संघर्ष, कठिनाई याद थी. इसीलिए प्रो. बाकरी ने अपने गाँव में स्कूल खोला. मेरे पास आए और कहने लगे कि आप उपजिलाधिकारी के रूप में अच्छा कार्य कर रहे हैं. अमेरिका चलकर देखिए. मेरी धीरे-धीरे इनसे दोस्ती हो गई. तत्काल पासपोर्ट बनवाने में पहल की. पासपोर्ट के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र (NOC) मिलने में पापड़ बेलने पड़े. तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय श्री मुलायम सिंह यादव से मिला, फिर भी अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं मिला. मैं किसी का अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं रोकता. अनुभव ने यह सिखाया, अब अनापत्ति प्रमाण-पत्र मिलना काफी आसान हो गया है.
इन्हीं के आमंत्रण पर वीजा बनवाने का कई बार प्रयास किया, लेकिन भारत स्थित अमेरिकी दूतावास ने वीजा नहीं दिया. इसकी शिकायत प्रो. बाकरी साहब ने अपने अमेरिका के सांसद से की. घिसा-पिटा जवाब दिया, जैसे यहाँ भी लोग देते हैं. अंदर का कारण था कि 9/11 के मद्देनजर मुसलिम आमंत्रण पर वीजा न देना, यह एक शंका है. अन्यथा मेरे जैसे अधिकारी को क्यों नहीं दिया? वीजा दो बार रिजेक्ट होने के झटके ने अमेरिका जाने को एक बड़े सपने में तब्दील कर दिया. अमेरिका जाना एक चुनौती बन गया.
इस चुनौती को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग, भारत सरकार की स्कीम से पूरा कराया. पढ़ाई का सारा खर्चा भारत सरकार का और पूरा वेतन भी मिला. पढ़ाई के दौरान एक सप्ताह फ्लोरिडा में प्रो. बाकरी के घर जाकर रहा. प्रो. बाकरी एक अच्छे, नेकदिल इनसान थे. इनका पूरा परिवार अमेरिका में है. आज भी प्रो. बाकरी मेरे दिलो-दिमाग में हैं. उनकी अमिट याद मेरी याददाश्त में है. मेरे ऊपर बहुत भरोसा करते थे. इनके बच्चे सुहेल बाकरी और डाॅ. अली बाकरी अभी भी मुझे अभिभावक के रूप में परिवार की तरह मानते हैं, सभी से घरेलू संबंध हैं.
अमेरिका से पढ़ाई करने को लेकर मेरे मन में एक अनोखा सपना, उमंग और उत्साह था. उत्सुकता भरा माहौल था, क्योंकि पहली बार विदेश जा रहा था. मेरे वरिष्ठ श्री योगेश्वर राम मिश्रा व अन्य लोग बाहर पढ़ने गए. यहीं से पता लगा कि DOPT भारत सरकार में बाहर पढ़ने की स्कीम है. दीर्घकालीन में एक साल तक का Executive MPA प्रशिक्षण के नाम पर होता है. पहले केवल IAS के लिए था, लेकिन अब PCS को भी अनुमति दे दी. श्री मिश्रा ने सारा रास्ता बताया एवं उत्साहित किया. मैंने आवेदन कर दिया. मेरा चयन MPA, Syracuse University, New York, USA में हो गया.
अगस्त 2009 से मई 2010 के मध्य सेराकूज विश्वविद्यालय, अमेरिका से एम.पी.ए. (Master of Public Administration) किया.
श्री दीपक चंद्र जैन (डीन केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, अमेरिका) से मेरा परिचय था और वहाँ जाकर उनसे मुलाकात करने का मौका मिला. श्री दीपक जैन केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट अमेरिका में भारतीय मूल के पहले डीन थे. मैंने उन्हें इस उपलब्धि पर शुभकामनाएँ दीं और उनसे प्रेरणा ली. मेरे साथ अमेरिका में रह रहे मेरे बी.टेक. के सहपाठी राजीव अग्रवाल और विजय रत्नम भी थे.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय का नाम बहुत सुना था. मन में इसे जाकर देखने की बड़ी तीव्र इच्छा थी. शिकागो स्थित हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जे.एफ. कैनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के स्लोअन मैनेजमेंट स्कूल को भी देखा और बहुत-कुछ सीखा.
अंग्रेजी की समस्या का सामना करना पड़ा. अंग्रेजी सहायता प्रकोष्ठ में जाकर ठीक कर ली. भाषा की समस्या काफी लोगों को होती है. इसलिए विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी सहायता का प्रकोष्ठ बना रखा है. यहाँ जाने से सोच बदली. दुनिया देखने को मिली. बहुत-कुछ गलतफहमी भी दूर हुई. पहली बार, एक साल तक सब कुछ स्वयं किया, लेकिन हँस-हँसकर, मजा लेकर. वहाँ नौकरवाला माहौल नहीं था. पहली बार जिंदगी में खाना बनाया. तीन लोग एक साथ रहते थे. आपस में काम बाँट लिया था.
श्री प्रवीन प्रकाश (IAS 94 AP) सभी को लेकर अपनी गाड़ी से जाते थे. खरीदारी कराते थे. बहुत अच्छे इनसान हैं. एक कोर्स दोनों ने साथ में किया. मुझे A+ मिला. श्री प्रवीन प्रकाश को A मिला. इसको लेकर वो काफी विचलित हुए. उन्हें लगा, गुरु गुड़ और चेला शक्कर हो गया. श्री प्रवीन काफी पढ़ाकू हैं. श्री जयदीप मुखर्जी बंगाल के पी.सी.एस. थे, लेकिन हम तीनों ने एक परिवार के रूप में रहकर पढ़ाई की. अभी भी मजबूत संबंध हममें बरकरार हैं. प्रो. कैथरीन वर्टीनी ने संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय न्यूयाॅर्क का भ्रमण कराया. प्रो. कैथरीन UN से सेवानिवृत्त के बाद यहाँ पढ़ा रही थीं. इनके साथ पढ़ाई के दो कोर्स किए. देखकर पढ़ने-सीखने का अलग मजा होता है. बोरियत नहीं होती. न्यूयाॅर्क जाकर UN को दो बार देखा-समझा. वह स्मरणीय पल था.
MPA के बाद आकर कार्य शुरू किया. लिखने-पढ़ने की आदत बन गई. Blog लिखने लगा. पुनः 2015 में पी-एच.डी. में डाॅ. ए.पी.जे. उ.प्र. तकनीकी विश्वविद्यालय में सुशासन (Role of ICT in achieving Good Governance) पर शोध विषय में प्रवेश लिया. अप्रैल 2020 में पूरा किया. पी-एच.डी. में कई बार लगा कि छोड़ दें, नहीं हो पाएगा, लेकिन मेरे संपर्क और साथियों ने साथ दिया और पूरा किया. अब डी.लिट्. में प्रवेश डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या में ले लिया. संवाद से सुशासन की प्राप्ति (Role of Communication in achieving Good Governance) मेरा शोध विषय है. प्रो. देवाशीष गुप्ता, आई.आई.एम., लखनऊ और प्रो. हिमांशु शेखर सिंह, डाॅ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या मेरे गाइड हैं.
मेरे मन में समाचार-पत्रों में आर्टिकल लिखने की इच्छा है, लेकिन संभव नहीं हो पाता. इसकी कसक मन में रहती है. अभी तक पूरी नहीं हो पाई. पढ़ाई-लिखाई अब आदत में आ गई है. मजा आता है.
(‘डॉयनिमिक डीएम’ किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है. इसे यूपी के आईएएस अधिकारी डॉ. हीरा लाल और कुमुद वर्मा ने लिखी है)
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