इजराइली राष्ट्रपति आइजाक हर्जोग ने पिछले हफ्ते स्वीट्जरलैंड के दावोस में यह कहकर बर्र के छत्ते को छेड़ दिया कि हाल ही में उन्हें अपने देश में पाकिस्तानी-अमेरिकियों के प्रतिनिधिमंडल से मिलने का ‘गजब का अनुभव’ हुआ.
पाकिस्तान में तूफान खड़ा होने में एकाध दिन लगे, मगर बवंडर उठा तो विपक्ष ने शहबाज शरीफ की अगुआई वाले सत्तारूढ़ गठजोड़ पर तंज कसने में जरा भी वक्त जाया नहीं किया कि वह यहूदी देश के साथ खुलने की कोशिश कर रहा है और फिलस्तीनियों के जायज मुद्दे की तौहीन कर रहा है, जबकि इज्राएल के खिलाफ राष्ट्रपिता कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में फरमान जारी किया था.
पाकिस्तान में मां के दूध के साथ दो बातें घुट्टी में पिला दी जाती हैं: एक, यह मान्यता कि कश्मीर को देश का हिस्सा होना चाहिए, क्योंकि वह मुस्लिम बहुल राज्य है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि शेख अब्दुल्ला ने अपना भाग्य भारत के साथ जोड़ लिया था. लेकिन पाकिस्तानियों ने ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ की फंतासी अपने दिमाग में इतने लंबे वक्त से बनाए रखी है कि इस पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं, भले हकीकत कुछ और हो. पाकिस्तान को 1948 से विरासत में मिली दूसरी मान्यता फिलस्तीन के बारे में है कि जब तक फिलस्तीनियों को अपना देश नहीं मिल जाता, जिसका मस्जिद अल-अक्सा अनिवार्य हिस्सा हो, तब तक पाकिस्तान इज्राएल को मान्यता नहीं देगा.
दरअसल, पाकिस्तानी फौज और सियासी प्रतिष्ठान दशकों से तेल अवीव से रिश्ते खोलने के लिए कई अनौपचारिक कोशिशें करता रहा है, मगर इस्लामाबाद की कोई सरकार यह कहने की बहादुरी नहीं दिखा पाई कि दुनिया बदल गई है और कि इज्राएल से बातचीत फिलस्तीनी मुद्दे के हल में मददगार हो सकती है.
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पाकिस्तान जानता है कि दुनिया बदल गई है
यकीनन, फिलस्तीनियों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन की दरकार है, खासकर इजराइली फौज के खिलाफ, जो अमूमन आत्मरक्षा के बहाने तांडव करती है और बेकसूरों की हत्या करती है. फिलस्तीन के इलाके पर कब्जे के इतिहास में एक सबसे शर्मनाक अध्याय अल जजीरा की पत्रकार शिरीन अबु-अकलेह का है, जिन्हें एकदम करीब से बख्तरबंद भेदी गोलियों से मारा गया और उनके जनाजे पर भी इजराइली फौजियों ने हमला बोल दिया.
लेकिन जरा देखिए कि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया किस कदर बदल गई है. सबसे गौरतलब, 2020 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कराया अब्राहम करार है. इससे इज्राएल और यूएई तथा बहरीन जैसे खाड़ी देशों के बीच औपचारिक कूटनयिक रिश्ते खुल गए. यह अनोखी कामयाब कहानी रही है, पर्यटकों की आवाजाही से इन दिनों ऐसा लगता है कि यूएई में सबसे लोकप्रिय विदेशी भाषा अंग्रेजी के बाद हिब्रू है. इससे अरब और यहूदी लोगों में नया भरोसा पैदा हुआ है.
इस तरह कुछ भरोसा छनकर पाकिस्तान में भी पहुंचा है. एक यहूदी पाकिस्तानी नागरिक फिशेल बेंखल्द पवित्र यहूदी पूजा-स्थलों की यात्रा करने की इमरान खान सरकार से इजाजत पाने वाले पहले पाकिस्तानी बने. हाल में इज्राएल में राष्ट्रपति आइजाक हर्जोग पाकिस्तानी-अमेरिकियों के प्रतिनिधिमंडल से मिले तो उसमें बेंखल्द के अलावा पाकिस्तानी पत्रकार अहमद कुरैशी शामिल थे. कुरैशी सरकारी पीटीवी से जुड़े रहे हैं.
लेकिन दावोस में हर्जोग के बयान के बाद पाकिस्तान में बखेड़ा खड़ा हो गया. इमरान खान और उनके विपक्षी नेताओं ने सही ही अनुमान लगाया कि पाकिस्तानी-अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल में कुरैशी की मौजूदगी माहौल भांपने का शगल था.
पाकिस्तान में फौजी और राजनैतिक सत्ता प्रतिष्ठान दोनों को शर्तिया को यह एहसास है कि दो ध्रुवों की विचारधारा वाले दोनों देशों के बीच सामान्य स्थिति जरूरी है. खासकर ऐसे वक्त में, जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बुरे हाल में है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की तलवार सिर पर लटक रही है. कब तक आप ‘कट्टी’ किए रखेंगे या कहते रहेंगे कि जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता?
लेकिन शहबाज शरीफ की सरकार घबरा गई. वैसे भी, वे अपनी तुर्की की यात्रा में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं. पिछले दो महीने में यह उनकी तीसरी विदेश यात्रा है. सोमवार की रात पत्रकार अहमद कुरैशी को पीटीवी से बर्खास्त कर दिया गया. विदेश मंत्रालय ने वही जाना-पहचाना जुमला दोहरा दिया कि मजलूम फिलस्तीनियों को जब तक अपना देश नहीं मिल जाता, इज्राएल को मान्यता देने का सवाल ही नहीं है.
गुपचुप करीबी रिश्तों का दौर
फिर भी, बाकी मुस्लिम दुनिया आगे बढ़ती लगती है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन जून के आखिर में अपने पश्चिम एशिया (मध्य-पूर्व) दौरे में रियाद और जेरूसलम जाने की योजना बना रहे हैं और लाल सागर में दो द्वीप सऊदी अरब को हस्तांतरित करके संभावित इज्राएल-सऊदी रिश्तों में कुछ मिठास घोलने वाले हैं. ये द्वीप कुछ समय से इज्राएल और मिस्र के कब्जे में हैं.
खाड़ी में दूसरी तरफ कतर तो लंबे समय से इज्राएलियों से पेंगें बढ़ा चुका है. इस बीच, पाकिस्तानी- अमेरिकियों के प्रतिनिधिमंडल के अलावा मोरक्को के लोगों के दल से भी मिले.
हर्जोग ने कहा, ‘और मैं जरूर कहूंगा कि वह गजब का अनुभव था. हम इज्राएल में पाकिस्तानी नेताओं के दल से ऐसे कभी नहीं मिले थे. और यह सब अब्राहम करार से निकला है, मतलब यह कि यहूदी और मुसलमान इस क्षेत्र में एक साथ रह सकते हैं….’
जाहिर है, हर्जोग की भावनाएं पाकिस्तान के प्रतिष्ठान में गूंज रही है. पत्रकार कुरैशी ने इमरान खान की पार्टी के पाखंड की ओर इशारा किया. उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने ही तो बेंखल्द को इज्राएल यात्रा की इजाजत दी थी. गौरतलब यह भी है कि पीटीआइ की नेता शिरीन मजारी इसके पहले इस्लामाबाद में सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटिजिक स्टडीज में बतौर डायरेक्टर अपनी जिम्मेदारी के दौरान 2005 में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया था, जब उनके तब के बॉस विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी तुर्की में इजराइली विदेश मंत्री से मिले थे.
कसूरी की इजराइली विदेश मंत्री सिल्वन शालोम से तुर्की में मुलाकात से 2005 तूफान खड़ा हुआ था. लेकिन उस मुलाकात के बाद उसी साल न्यूयॉर्क में बेहद ताकतवर पाकिस्तानी राष्ट्रपति तथा फौज प्रमुख परवेज मुशर्रफ और उतने ही ताकतवर इजराइली राष्ट्रपति तथा पूर्व फौजी एरिएल शैरोन के बीच भेंट हुई.
जनरल परवेज मुशर्रफ ने याद किया, ‘मैं खड़ा था और वे एक समूह में आए, मुझसे हाथ मिलाया….मुझसे पूछा, मैं कैसा हूं, मैंने उनसे पूछा कि कैसे हैं. वह बहुत अच्छा था.’
लेकिन शैरोन जल्दी ही कॉमा में चले गए और 2007 तक मुशर्रफ की तकदीर जवाब दे गई. पाकिस्तान के वकीलों ने उनकी तानाशाही के खिलाफ झंडा फहराया और उन्हें पाकिस्तान छोडक़र भागना पड़ा.
नरमी आने की अटकलें नहीं थमीं. इमरान खान प्रधानमंत्री थे तो जिओ न्यूज ने खबर दी कि उनके एक सहयोगी, ब्रितानी नागरिक जुल्फी बुखारी औपचारिक इजाजत के साथ नवंबर 2020 में तेल अवीव में मोसाद प्रमुख योसी कोहेन के साथ इजराइली अधिकारियों के साथ मिले थे. सरकार नकारती रही, लेकिन मीडिया उड़ान संबंधी ब्यौरों के साथ खबरें चीख रही थीं.
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पाकिस्तान हाशिए पर
अब आइए मौजूदा दौर में. 2020 में कॉकसस में अर्मेनिया और अजरबैजान के बीच जंग में इजराइली और पाकिस्तान की फौज अजरबैजान की तरफ थी. यह पाकिस्तान के लिए मुफीद था क्योंकि अजरबैजान बिरदराना मुस्लिम देश है, लेकिन इज्राएल ईरान को घेरने के लिए ज्यादा बड़ा रणनीतिक खेल खेल रहा था, जो मानता है कि इज्राएल के भीतर बड़ आतंकी हमलों के लिए हिज्बुल्ला जैसे गुटों को शह देता है.
शायद पाकिस्तान मानता है कि ईरान को नाराज करना सही नहीं है, क्योंकि दोनों की सीमा लगती है और इज्राएल के प्रति खुलने के पीछे लंबा इतिहास है. लेकिन पाकिस्तान सऊदी शेखों से गहरी बिरादराना दोस्ती को शह देकर ईरान से संतुलन बनाए रखता है. अमूमन सऊदी अरब की अगुआई वाले इस्लामी सैन्य गठजोड़ का मुखिया कोई पाकिस्तानी रिटायर जनरल होता है और रियाद ने कई साल तक पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की मदद के लिए बड़ा कर्ज मुहैया कराया है.
यहां तक कि शहबाज शरीफ के हालिया रियाद दौरे में सऊदी मौजूदा 4.2 अरब डॉलर के लोन (2 अरब डॉलर जमा खाते में और 1.2 अरब डॉलर साल भर के तेल मुहैया कराने के खातिर), जो इमरान खान को पेशकश की गई थी, को आगे बढ़ाकर 8 अरब डॉलर देने पर राजी हो गए.
मोहम्मद बिन सलमान अब शायद इज्राएल से रिश्ते खोलने की बाइडन की बात पर राजी हो जाएं. ऐसे में पाकिस्तान ही इससे इनकार करने वाले कुछेक देशों में रह जाता है. तो, क्या रणनीतिक सच्चाई के आगे नैतिक सिद्धांत की कुर्बानी दे दी जाएगी या इस्लामावाद अपने रुख पर अड़ा रहेगा?
जो भी हो, आने वाले दिनों और महीनों में पाकिस्तान-इज्राएल रिश्ते या उसके न होने की कहानी दिलचस्प बनी रहेगी.
(ज्योति मल्होत्रा दिप्रिंट की सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं. वह @jomalhotra ट्वीट करती हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)
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