भाजपाई जमात की उग्र प्रतिक्रिया ने मुझे कायल कर दिया कि अब समय बदल गया है. मैं पहले भी लिख चुका हूं कि हिंदू दक्षिणपंथ ने सांप्रदायिक तनाव की आंच को सुलगाए रखने की रणनीति अपना रखी है. हिंदू बनाम मुसलमान के मसले लगातार उठाए जाते रहे हैं, चाहे वह ‘वास्तव में एक हिंदू महल’ ताजमहल के ‘गुप्त’ तहख़ानों का मामला हो, या दिल्ली में अकबर रोड और हुमायूं रोड आदि के नाम बदलने का, या स्कूली लड़कियों के हिजाब ओढ़ने पर विवाद आदि का. इसकी वजह यह है कि हिंदू भावनाएं जब उबाल पर होती हैं तो भाजपा को चुनाव में बेहतर नतीजे मिलते हैं. इसके अलावा, धार्मिक मुद्दे महंगाई, पेट्रोल-डीजल-गैस की बढ़ी कीमतों, सीमा पर चीन की दबिश जैसी देश की वर्तमान हकीकतों से लोगों का ध्यान भटकाने में मददगार भी होते हैं.
बहरहाल, वाराणसी की मस्जिद में कथित शिवलिंग की खोज पर जब विवाद भड़का तब पहले तो मुझे यही लगा कि यह भी ऐसा ही एक मामला होगा. भाजपा इसे खूब उछालेगी और जब इसमें कोई दम नहीं रह जाएगा तब वह कोई नया मुद्दा उठा लेगी.
लेकिन इस बार ऐसा लगता है कि ज्ञानवापी मस्जिद का मामला लंबे समय तक चलेगा. वहां जो शिवलिंग पाया गया वह काफी हद तक झरने की टोंटी प्रतीत होता है, सो इसको लेकर सोशल मीडिया पर खूब चुटकुले चल पड़े कि और क्या-क्या चीजें हो सकती हैं जो शिवलिंग होने का भ्रम पैदा कर सकती हैं. कुछ चुटकुले तो काफी हानि रहित हैं लेकिन कुछ संदिग्ध मिजाज वाले भी हैं. वे चाहे जैसे रहे हों, भाजपा के ‘आइटी सेल’ और उसके सहयोगियों ने उनका भयंकर प्रतिवाद किया. जिसने भी ऐसे चुटकुले लिखे उसे जम कर कोसा गया, मुकदमे की धमकी दी गई और भगवान शिव के कोप का भागी बनने की चेतावनी दी गई.
सरकार के मूड का सबसे अच्छा जायजा देने वाली दिल्ली पुलिस सक्रिय हुई और उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर व दलित एक्टिविस्ट को गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने शिवलिंग विवाद को लेकर ट्वीट किया था. अगले दिन जब उन्हें अदालत में पेश किया गया तो उनकी खुशकिस्मती थी कि उनका सामना एक निष्पक्ष सोच वाले जज से हुआ जिन्होंने उन्हें जमानत दे दी, हालांकि दिल्ली पुलिस के वकील ने उन्हें 14 दिन न्यायिक हिरासत में बंद करने की मांग की थी.
भड़काया गया गुस्सा, गिरफ्तारी, सोशल मीडिया पर जोरदार मुहिम— इन सबसे यही संकेत मिला कि यह तनाव की आंच को सुलगाए रखने वाला एक और मुद्दा भर नहीं है. भाजपा इस मसले को गंभीरता से ले रही है और शायद इसे 2024 के लोकसभा चुनाव तक खींच कर ले जाएगी.
आग कैसे लगी
अगर आप इस पर विचार करेंगे, जैसा कि मैंने तब किया जब यह साफ हो गया कि भाजपा मंदिर-मस्जिद मसले को लेकर कितनी गंभीर है, तो पता चलेगा कि यह कोई इतनी बड़ी पहेली नहीं है. साफ है कि संघ और उसके सहयोगी-समर्थक इस मसले को उछालते रहना चाहते हैं. आखिर, 1980 के दशक में भाजपा यही सब करके तो राष्ट्रीय स्तर पर उभरी थी. आप यह सब जानते ही होंगे, लेकिन मैं युवा पाठकों को पूरा इतिहास संक्षेप में बता दूं तब तक कृपया मुझे थोड़ा बर्दाश्त कीजिए.
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भाजपा 1984 के लोकसभा चुनाव में मात्र दो सीटें जीत पाई थी. अपनी वापसी के लिए हताशा में वह एक मुद्दे की तलाश में थी. 1986/87 में उसे वह मुद्दा बाबरी मस्जिद विवाद के रूप में मिल गया. यह अयोध्या की एक मस्जिद को लेकर लंबे समय से चला आ राहा मसला था. कुछ हिंदुओं का मानना था कि मुसलमानों ने पहले से खड़े एक मंदिर को गिराकर वहां वह मस्जिद बनाई थी. विवाद में हिंदू पक्ष का कहना था कि वह कोई आम पुराना मंदिर नहीं था बल्कि वह ठीक उसी स्थान पर था जहां भगवान राम का जन्म हुआ था.
यह विवाद दशकों से चला आ रहा था और इसकी वजह से उस मस्जिद में तमाम धार्मिक गतिविधियां बंद हो चुकी थीं. वर्षों से वहां नमाज नहीं पढ़ी गई थी और व्यावहारिक रूप से वह एक टूटा-फूटा, विवादित ढांचा भर था जिसका कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा था. लालकृष्ण आडवाणी ने मुसलमानों से यह अपील करके इसे मसले की ओर पूरे देश का ध्यान खींचा कि वे मस्जिद को वहां से हटा लें ताकि उस स्थान पर राम मंदिर का निर्माण किया जा सके. उन्होंने कहा कि उस मस्जिद का मुसलमानों के लिए कोई खास महत्व नहीं है. वैसे, पहले भी मस्जिदें ईंट-दर-ईंट हटाई जा चुकी हैं, मसलन पाकिस्तान में तो हाइवे बनाने तक के लिए ऐसा किया जा चुका है. आडवाणी ने मस्जिद हटाने के काम में उनकी मदद करने की भी पेशकश की, क्योंकि बेशक मुसलमान भी मानते हैं कि वह स्थान हिंदुओं के लिए बेहद पवित्र है.
इसमें से बहुत कुछ ऐसा था जो जितना उचित लगता था उससे कम जायज था. जब तक आडवाणी ने इस विवाद को तूल नहीं दिया था तब तक उत्तर प्रदेश से बाहर के कम हिंदुओं ने ही राम के इस जन्मस्थल के बारे में सुना था. जो भी हो, इतिहास के राम के बारे में हम इतना कम जानते हैं कि यह कहना असंभव है कि उनका जन्म कहां पर हुआ था. आडवाणी ने तमाम आपत्तियों को परे कर दिया (उन्होंने कहा कि ‘यह आस्था का मामला है’) क्योंकि वे जानते थे कि आगे क्या होने वाला है.
एक तो वे यह जानते थे कि मस्जिद के प्रबन्धक और मुस्लिम संगठन उनकी पेशकश को नहीं मानेंगे; दूसरे, सेकुलरवादी लोग इस बात का खंडन करेंगे कि वहां पर पहले कोई मंदिर था, जबकि पुरातात्विक खुदाई के बिना कोई यह दावा नहीं कर सकता; और तीसरे, कॉंग्रेस सरकार मस्जिद के अड़ियल प्रबन्धकों का समर्थन करेगी.
ये तीनों बातें हुईं, जैसी कि आडवाणी ने उम्मीद की थी. इसके बाद उन्होंने अभियान का दूसरा चरण शुरू किया. उन्होंने मस्जिद के प्रबन्धकों के अड़ियल रुख और बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के उग्र रुख का इस्तेमाल करते हुए अपनी असली बात रखी कि यह किस तरह की धर्मनिरपेक्षता है कि हिंदू मंदिर को गिराकर बनाई गई लेकिन बिना इस्तेमाल के पड़ी मस्जिद के लिए पर मुसलमान समुदाय अड़ा हुआ है जबकि हिंदुओं को अपने एक सबसे पवित्र स्थल से जबरन वंचित किया जा रहा है? उन्होंने कहा कि यह धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि छद्म धर्मनिरपेक्षता है.
इसके बाद सेकुलर जमात ने और जिद्दी रुख अपना लिया और इस बात पर ज़ोर दिया कि वहां कोई मंदिर नहीं था (मैं हैरान था, उन्हें यह कैसे पता चला), और वे आडवाणी की निंदा में जुट गए.
मुझे लगा कि वे आडवाणी के जाल में फंस गए. उस समय मेरा मानना था (जो मेरे ख्याल से आगामी दशकों में सही साबित हुआ) कि छद्म धर्मनिरपेक्षता वाला आरोप काम कर गया और आडवाणी हिंदुओं के साथ नाइंसाफी के मुद्दे को उभारने में सफल रहे. मुसलमानों के लिए कहीं बेहतर यह होता कि वे उदारता दिखाते हुए आगे आकर खुद ही उस ढांचे को वहां से हटाने की पेशकश करते. आखिर उस मस्जिद का कोई इस्तेमाल हो नहीं रहा था. इस पेशकश ने आडवाणी के रथ की हवा निकाल दी होती और मुस्लिम तुष्टीकरण के मुद्दे को उठाना उनके लिए असंभव हो जाता.
मेरी इस बात को जिसने भी सुना उसने यही कहा कि मैं एक खतरनाक और सांप्रदायिक कदम की वकालत कर रहा हूं. मुसलमानों ने इस बार बात मान ली, तो क्या भाजपा हरेक मस्जिद को हटाने की मांग नहीं करने लगेगी?
मेरा जवाब यह था कि अगर मुस्लिम पक्ष ने (शुद्ध रूप से एक चाल के तहत) किसी तरह की रियायत नहीं दिखाई, तो हिंदुओं के साथ नाइंसाफी का मुद्दा और मजबूत होगा, भाजपा और अतिवादी रुख अपनाएगी और विवादित ‘मंदिरों’ को वापस करने की मांग और ज़ोर पकड़ेगी.
मैं अब आपको और ज्यादा बोर नहीं करूंगा क्योंकि बाकी कहानी आप जानते ही हैं.
मंदिर-मस्जिद के दावे होते रहेंगे
पूरे प्रकरण ने हमें बहुत कुछ सिखाया है. एक तो यह कि अगर समुदायों के बीच दरार है (यह न भूलें कि भारत का जन्म हिंदू-मुस्लिम खूनखराबे के बीच हुआ), तो कोई सरकार एक समुदाय के अड़ियल रुख का आक्रामक रूप से समर्थन करने से बुरा शायद ही कोई काम कर सकती है. दूसरा यह कि राजनीतिक सेकुलरवादियों ने हिंदुओं की शिकायत के इतिहास बोध को समझने की कोशिश नहीं की.
और अंतिम सबक यह कि आप इतिहास को आज की राजनीति के हिसाब से बदल नहीं सकते. आप यह नहीं कह सकते कि किसी मुसलमान ने मंदिर या मूर्ति नहीं तोड़ी, क्योंकि ऐसा वास्तव में हुआ है. आप सबूतों के बिना पूरे दावे से यह नहीं कह सकते कि किसी मंदिर की जगह पर कोई मस्जिद नहीं बनाई गई या नहीं. फिर भी, सेकुलरवादियों ने यह कहना जारी रखा कि कोई भी मस्जिद मंदिर तोड़कर नहीं बनाई गई.
मैं नहीं जानता कि कितने सेकुलरवादियों ने वे सबक सीखे, वह भी बाबरी मस्जिद कांड के बाद जिसे कॉंग्रेस शासन के दौर में ढहाया गया. जिस स्थान पर वह खड़ी थी वह मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को सौंप दी गई है.
उस विवाद को 1988 में निबटाना कितना आसान होता? और कुछ नहीं, तो हिंदू दक्षिणपंथी उस परित्यक्त मस्जिद को तथाकथित मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रतीक बताने से तो वंचित हो जाते. और इस विवाद के कारण इतना सांप्रदायिक विद्वेष तो न फैल पाता.
लेकिन दूसरी ओर भाजपा ने बाबरी प्रकरण से सबक अच्छी तरह सीखे. वह जानती है कि जैसे ही वह किसी मंदिर की जगह पर बनाई गई मस्जिद का मसला उठाएगी, सेकुलर जमात उस दावे की ऐतिहासिकता पर फौरन सवाल खड़े करेगा. और जब यह साबित हो जाएगा कि उनमें से कुछ मस्जिदें वाकई मंदिरों की जगह पर बनाई गईं तब संघ का यह दावा मजबूत होगा कि सेकुलर जमात मुसलमानों की पक्षधर है.
इसीलिए भाजपा काशी और मथुरा में मस्जिदों और मंदिरों के मसले फिर से उठा रही है. वह सेकुलर जमात को फिर से अपने ही जाल में उलझाना चाहती है. और कुछ हो या न हो, हिंदू धार्मिक स्थलों पर मुस्लिम आक्रमण के प्रतीकों के चरित्र में कोई बदलाव हो या न हो, यह अभियान उसके हिंदू जनाधार को तो खुश करेगा ही.
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क्या सचमुच कुछ नहीं होगा? सेकुलरवादियों का मानना है कि ये मुद्दे फुस्स साबित होंगे क्योंकि 1991 के उपासना स्थल अधिनियम ने सभी उपासना स्थलों की 15 अगस्त 1947 वाली स्थिति को अंतिम घोषित किया है. अयोध्या मामले के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम की प्रशंसा की थी. लेकिन समस्या यह है कि यह अधिनियम चाहे जो भी कहे, अदालतें मंदिरों और मस्जिदों से संबंधित मुकदमे मंजूर करती रहेंगी. सुप्रीम कोर्ट जानती है कि 1991 का अधिनियम ऐसे ‘किसी विवाद को पहले ही खत्म करने’ के लिए लागू किया गया, जो ‘पूजास्थल में बदलाव को लेकर समय-समय पर उभरते रहेंगे.’
इसके बावजूद उसने ज्ञानवापी विवाद को जारी रखने दिया है और स्थानीय अदालत को सर्वे करवाने के लिए कहा है ताकि यह पता चल सके कि वह ढांचा कभी मंदिर था या नहीं.
मेरा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट 1991 के अधिनियम का सम्मान करती है. ऐसे में अगर सर्वे यह बताए कि मस्जिद सचमुच में मंदिर की जगह पर बनाई गई, तब क्या होगा? क्या कोर्ट यह कहेगी कि यह हिंदुओं का दुर्भाग्य है क्योंकि 1991 का अधिनियम किसी भी पूजास्थल के स्वरूप में बदलाव पर रोक लगाता है? और क्या भाजपा को वाकई इसी की जरूरत नहीं है? क्या वह वाकई यही चाहती भी नहीं है?
इसलिए, सेकुलर जमात अगर यह सोचती है कि 1991 के अधिनियम ने सब कुछ बदल दिया है या यह कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे विवादों को फैलने नहीं देगा, तो क्या वह मुगालते में नहीं है? दोनों बातें रोज गलत साबित हो रही हैं. सेकुलर जमात के लिए कहीं बेहतर यह होगा कि वह यह मान ले कि मध्ययुग में मंदिरों को मस्जिदों में बदला गया, जैसा कि हम सब मन-ही-मन मानते भी हैं. लेकिन सदियों बाद आज हम उनका बहुत कुछ कर नहीं सकते. न ही इसका कोई मतलब है कि सैकड़ों साल पहले जो कुछ किया गया उसके लिए हम आज के मुसलमानों को दोषी ठहराएं.
भारतीय इतिहास कई दुर्भाग्यपूर्ण अध्यायों से भरा हुआ है जिनमें दलितों के साथ हमारे बरताव का प्रकरण भी शामिल है. हमारे समाज ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके साथ जो अत्याचार किए उनका खूनी बदला लेने की मांग दलित नहीं कर रहे. हम सब एक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ने की कोशिश में जुटे हैं.
इतिहास में जो अन्याय किए गए उन्हें फिर से खुरचेंगे तो फिर खून ही बहेगा. आज जबकि भारत को खूनखराबे की नहीं बल्कि मलहम की जरूरत है, तब यह पड़ोसी को पड़ोसी का दुश्मन ही बनाएगा. दुनिया में अपनी उचित जगह हासिल करने की जगह हम पिछड़ने लगेंगे और इतिहास के काले अध्यायों को ही दोहराने लगेंगे.
लेकिन हम मुगालते में न रहें. यह सब चुनाव में निश्चित रूप से फायदा दिलाएगा. पहले भी दिला चुका है, आगे भी दिलाएगा.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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