अनुभव सिन्हा की फिल्म मुल्क सन्नी देओल कृत फिल्मों, जिनमें मुस्लिमों को अक्सर आतंकवादियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, पर कड़ा प्रहार करती है। यह आपको एक साधारण मुस्लिम परिवार के डर, कशमकश और क्रोध को महसूस कराती है।
हर सात में से एक भारतीय मुस्लिम है। 2021 की जनगणना में उनकी संख्या 20 करोड़ से अधिक होगी। निश्चित रूप से, हमारे सर्वश्रेष्ठ कलाकारों, संगीत निर्देशकों, गीतकारों, निर्देशकों और तकनीकी कलाकारों में हर 7 व्यक्तियों में 1 व्यक्ति हमेशा ही एक मुस्लिम रहा है। फिर भी, हिंदी सिनेमा में मुसलमानों को यदा-कदा ही चित्रित किया जाता है। और यदि कभी-कभार उन्हें दिखाया भी जाता है तो या तो बहुत अच्छी छवि के किरदार में या फिर वास्तव में बहुत बुरे किरदार में। यह कुछ ऐसा है मानो बॉलीवुड ने तय कर लिया है कि एक “सामान्य” मुसलमान, जो किसी कारण या समीर या राज या राहुल के बराबर हो, का या तो अस्तित्व नहीं है या फिर बॉक्स ऑफिस के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि अनुभाव सिन्हा की नवीनतम फिल्म ‘मुल्क’ महत्वपूर्ण है।
सिनेमा में मुसलमानों के चित्रण को व्यापक रूप से तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। स्वतंत्रता से लेकर 1960 के दशक के अंत तक बॉलीवुड अधिकांशतः इतिहास की महान प्रेमी और शक्तिशाली हस्तियों पर केन्द्रित था जैसे: ताज महल, मुग़ल-ए-आज़म, रज़िया सुल्तान। उस समय “मुस्लिम समाज” की शैली का एक समानांतर स्थान था जिसमें थोड़ा-बहुत रोमांस, शायरी और औसत दर्जे की सामंती भाव्यताएं शामिल होती थीं जैसे – मेरे महबूब से लेकर पाकीज़ा तक। 1970 के दशक में “एंग्री यंग मैन” में मुसलमान बड़े दिल वाले और सम्माननीय व्यक्ति थे जो आम तौर पर अपने हिन्दू दोस्तों के लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर देते थे। 1973 में बनी प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर में अमिताभ बच्चन को प्रसन्न करने के लिए शेर खान के किरदार में प्राण के गायन “यारी है ईमान मेरा, यार मेरी ज़िन्दगी….” को याद कीजिये। 1980 के अंत तक एक मुस्लिम को, यदि किरदार मिलता था, हमेशा ही एक भलेमानस का किरदार दिया जाता था|
इसके बाद आया वह समय जिसे हम सन्नी देओल का समय कह सकते हैं, जब सम्प्रदायवाद का चलन चल पड़ा था और मुसलमान ज्यादातर आतंकवादी थे। इन फिल्मों में से एक जाल – द ट्रैप में एक अच्छे आदमी के रूप में देओल जब बुरे लोगों (सभी मुसलमानों) को शिष्टाचार सिखा रहे होते हैं तो बैकग्राउंड म्यूजिक में “ॐ नमः शिवाय” मन्त्र का उच्चारण हो रहा होता है। बुरे लोगों के आगमन में “अल्लाह” की ध्वनि के साथ मिश्रित अरेबियन बैकग्राउंड म्यूजिक है। तब्बू देशभक्त नायक की मुस्लिम पत्नी का किरदार निभाती हैं और, उसे धोखा देती हैं जिसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
सबसे बुरी थी गदर – एक प्रेम कथा। मैंने इसे कई साल पहले देखा था जब संपादक एम. जे. अकबर ने एक चर्चा में मुझसे कहा था कि यह अब तक बनायी गयी फिल्मों में सांप्रदायिक रूप से सबसे धर्मांध फिल्म थी। और वह अपनी जगह बहुत सही थे। कई अन्य फ़िल्में थीं जैसे : रोजा, मिशन कश्मीर, फ़ना, फ़िज़ा, कुर्बान और विश्वरूपम (हालाँकि इन फिल्मों में नायक एक अच्छा मुसलमान है जो बुरे मुस्लिम आतंकवादियों से लड़ाई लड़ता है)।
अल-कायदा और इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ कश्मीर में आतंकवाद के उदय ने इस्लामोफोबिया के लिए बाजार बनाया था। मुहम्मद अशरफ खान और साइदा ज़ूरिया बुखारी द्वारा मुस्लिम किरदारों वाली 50 फिल्मों पर 2011 में किये गए एक अध्ययन से पता चला कि 65.2 प्रतिशत मुसलमानों को बुरे रूप में पेश किया गया था, लगभग 30% को सामान्य किरदार में और सिर्फ 4.4% मुसलमानों को ही अच्छी छवि वाले किरदार मिले थे।
इसे केवल हालिया समय में ही चुनौती मिलनी शुरू हुई है। जॉन अब्राहम की न्यूयॉर्क, शाहरुख खान की माई नेम इज़ खान और मलयालम फिल्म अनवर में मुस्लिम नायकों को दिखाया गया है। शाहरुख़ खान ने भी फिल्मों में एक के बाद एक फिल्म में एक मुस्लिम नाम लेने का प्रयास किया है जिसकी शुरुआत हुई थी चक दे इंडिया से।
अनुभव सिन्हा की मुल्क इस बात में उल्लेखनीय है कि यह एक साधारण मुस्लिम परिवार को चित्रित करती है, हालाँकि एक अर्ध-विरक्त हिन्दू बहू (तापसी पन्नू) के साथ। इसके मुस्लिम अच्छे और देशभक्त और साथ ही बुरे और आतंकवादी भी हैं। यह एक अच्छे मुसलमान की जटिलताओं को आपके सामने लाती है। इसमें अपने ही समुदाय के लिए एक बुरे पुलिस वाले के रूप में रजत कपूर द्वारा शानदार ढंग से वाराणसी की आतंकवाद विरोधी टीम के एक अति-उत्साही और प्रचंड प्रमुख का किरदार निभाया गया है, जो अपने शब्दों की अपेक्षा अपनी चाल, आँखों और कलाप्रवीण शारीरिक भाषा से ज्यादा बात करता है। इसमें एक आतंकवादी का बेटा भी है जिसे एक एनकाउंटर में मार दिया जाता है क्योंकि वह एक बस को बम से उड़ा देता है जिसमें तीन मुसलमानों (हमें याद दिलाया जाता है) समेत 16 लोगों की मौत हो जाती है।
फिल्म में लगभग आधे घंटे के बाद आप आज एक भारतीय मुसलमान के दिलो-दिमाग पर हमला कर रहे डर, असुरक्षा, कई परस्पर-विरोधी दुविधाओं, आकाँक्षाओं और निराशाओं के मिश्रित एहसास को महसूस कर सकते हैं। अगर मैं प्रतीक बब्बर की तरह एक युवा मुसलमान होता, जो कि मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) का आतंकवादी भतीजा था तो मुझे भी आलोचनाओं और विवादित मुद्दों का सामना करना पड़ता, जैसे – बेरोजगारी, प्रोपेगंडा कि मुसलमानों पर निशाना साधा जाता है और तुम इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते और आपका आपके परिवार और देश के प्रति प्रेम और वफ़ादारी आदि। आधी फिल्म तक आप डर में सिमट जाते हैं। आपको अचम्भा भी हो सकता है कि क्या मेरे देशवासियों में से करीब 20 करोड़ लोगों में हर सातवें व्यक्ति के दिमाग में ऐसा कुछ चल रहा है? और अगर ऐसा है तो अभी तक हम इसकी आग में झुलसे क्यों नहीं हैं?
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ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि कुछ परम-देशभक्त मुसलमान हैं, जैसे आतंकवादी का परिवार, जो दफ़नाने एक लिए उसके शरीर को स्वीकार करने से इनकार कर देता है। दरअसल, यह फिल्म अच्छे-मुस्लिम के अपवादवाद के सबसे पहले सिद्धांत पर सवाल उठाती है। बेशक, हम हवालदार अब्दुल हमीद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और वाराणसी के अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खान को प्यार करते हैं और कहते हैं कि काश उनके जैसे और भी मुसलमान हों। अनुभव ने यह कहने में आलोचनाओं का जोखिम उठाया है कि ये कोई अपवाद नहीं हैं। अधिकांश मुसलमान उन्हीं की ही तरह हैं। अपवाद तो आतंकवादी हैं।
अब तक 20 से अधिक वर्षों में, एक हिंदी फिल्म ने इस कॉलम को केवल तीन बार प्रेरित किया है। हर बार, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि फिल्म ने एक प्रवृत्ति या एक परिवर्तन देखा जिसे पंडितों और राजनेताओं ने नहीं देखा, या उस क्षेत्र में छानबीन की जहाँ हमें इतना असहज लगता है कि हम इससे बचते। ऐसी पहली फिल्म थी फरहान अख्तर की ‘दिल चाहता है’ जो कि 2001 में आई थी और इसमें अमीरी और रईसी को बहुत ही सहज रूप में प्रस्तुत किया गया था। याद कीजिये जब अनिल अम्बानी को शीर्ष युवा आइकॉन के रूप सचिन से ऊपर चुना गया था। दूसरी थी, 2015 में आई नीरज घवान की फिल्म मसान, जिसने उस निरंतर विकास द्वारा लाये गए परिवर्तन के सामाजिक और व्यक्तिगत प्रभावों को खोजा। यह भी जाति के साथ उलझी, जिससे हम सामान्यतः छुपते हैं। मुल्क की तरह ही, और शायद संयोग से नहीं, इसे भी वाराणसी में फिल्माया गया था।
सिन्हा की मुल्क में उल्लेखनीय प्रदर्शन है क्योंकि यह हमें आधुनिक भारत में एक सामान्य मुस्लिम परिवार की चुनौतियों से अवगत कराती है। वह कितना प्रभावी थे यह उनके लिए होने वाली उग्र ट्रोलिंग से पता चलता है। क्यों कोई देशभक्ति भारतीय इस फिल्म से शर्मिंदा होगा। आपको विशेषतः गर्व महसूस करना चाहिए कि भारत पाकिस्तानी सेना के एक परिवार को अच्छे और सभ्य जनों के रूप में दिखाने वाली मेघना गुलज़ार की फिल्म राजी और अब मुल्क जैसी फ़िल्में बनाने और इनका जश्न मनाने का साहस रखता है। क्या ऐसा इसलिए है कि सनी देओल युक्त वर्तमान परिवेश में हमारा सुविधाजनक और पहले से ही जड़ नजरिया यह है कि मुसलमान गद्दार है, जब तक कि अन्यथा सिद्ध न हो? इसीलिए आपको यह फिल्म देखनी चाहिए। चेतावनी: यह आपके मन पर प्रहार कर सकती है।
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2005 में मैंने इसी वाराणसी में इसकी सबसे प्रसिद्द मुस्लिम प्रतिभाओं में से एक से एक अद्भुत सबक सीखा। मैंने अपने ‘वाक द टॉक’ साक्षात्कार में उस्ताद बिस्मिल्ला खान से पूछा था कि 1947 में जब जिन्ना ने उनसे व्यक्तिगत रूप से पाकिस्तान जाने के लिए कहा था, तो वह पाकिस्तान क्यों नहीं गए। उन्होंने जवाब दिया था, “कैसे जाते हम? वहां हमारा बनारस है क्या? और फिर उन्होंने यह भी कहा कि वह कैसे भगवान शिव के आशीर्वाद के बिना अपना पसंदीदा राग भैरवी नहीं बजा सकते हैं और चूंकि उन्हें मंदिर के अन्दर अनुमति नहीं है इसलिए वह इसके पीछे चलते हैं और बाहर से ही उस दीवार को स्पर्श करते हैं जिस दीवार पर अन्दर से भगवान का स्पर्श है।
संसद में हमारे पहले स्वतंत्रता दिवस की उन क्लिप्स को चलाइये। वह व्यक्ति को जश्न में शहनाई बजा रहा है वह बिस्मिल्ला खान हैं, जिन्होंने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। अब जैसे ही हम अपने 72 वें स्वतंत्रता दिवस के सप्ताह में प्रवेश करते हैं तो हम कुछ वैसी ही जागरण प्रेरणा के लिए यह फिल्म देखने जाएँ। देखिये, जो ऋषि कपूर और मुराद अली मोहम्मद अदालत को बताते हैं: यदि आप मेरी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क नहीं कर सकते तो यह आपकी समस्या है। आप मुझे मेरे दाढ़ी रखने के अधिकार से और धार्मिक कर्तव्यों (सुन्नत) को पूरा करने से वंचित नहीं कर सकते।
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