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Friday, 22 November, 2024
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21 साल की उम्र में ‘ओवरएज’, ग्रामीण भारत के सेना में जाने के इच्छुक उम्मीदवारों की जीवन के लिए दौड़

जीवन यापन करना, पुरुष होने का दंभ और शादी –राजस्थान और हरियाणा के कई जिलों में ये सब सेना में भर्ती होने पर टिका है.

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सीकर/नागौर/झुंझुनू: ‘अप-डाउन-यूपी! अप-डाउन-यूपी!’ मनोज खिचर जोर-जोर से चींखकर युवकों को ट्रेनिंग देने में लगे हैं. राजस्थान के नागौर जिले की डीडवाना तहसील के बड़े से कीचड़ भरे मैदान में 18 से 20 साल के बीस युवा उनकी हर आवाज को ध्यान से सुनते और उसका पालन करते हैं. मनोज खुद 22 साल के हैं लेकिन जाट रेजीमेंट बतौर उम्मीदवार सेना में भर्ती के लिए ‘ओवरएज’ हैं. लेकिन सालों की उनकी तैयारी ने उन्हें इस काबिल तो बना ही दिया कि वह ड्रिल सार्जेंट के रूप में एक अनुभवी की तरह काम कर सकें. वह अपने से उम्र में कुछ ही छोटे रहे युवकों को ट्रेनिंग देने का जिम्मा संभाले हुए हैं.

4 मई का दिन है और सुबह के 5 बजे हैं. अगले दो घंटो तक जब तक की ये ठंडी बयार गर्म हवा के झोंकों में नहीं बदल जाती, शारीरिक रूप से फिट नजर आ रहे ये युवा अपने गले में टायर लेकर दौड़ते रहेंगे और खेजड़ी के पेड़ों से बंधी रस्सियों पर चढ़ते-उतरते नजर आएंगे.

18 साल के वीरेंद्र मांडा कहते हैं, ‘सेना के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है’ भविष्य के बारे में सोचते ही उनके चेहरे पर अजीब सी बेचैनी छा जाती है.

वह कहते हैं, ‘मेरे पास अपनी काबिलियत साबित करने के लिए तीन साल हैं. अगर मुझे सेना में नौकरी नहीं मिलती, तो समाज में सिर ऊंचा करके जीवन जीने और मेरी शादी होने की संभावना कम हो जाएगी. लोग हर फंक्शन में मेरा मजाक उड़ाएंगे.’

नागौर रक्षा एकेडमी में ‘दौड़ना यहां फैशन है’ का स्टिकर | ज्योति यादव | दिप्रिंट

उसकी रोजाना की एक ही दिनचर्या है: सुबह 4 बजे उठो, गांव से डीडवाना मैदान तक 25 किमी साइकिल चलाओ, अभ्यास करो, दौड़ो और फिर 11 बजे सो जाओ.

मनोज और वीरेंद्र जैसे सैकड़ों लोग राजस्थान और हरियाणा के जाट बहुल इलाकों के गांवों, ब्लॉकों और जिलों में देखे जा सकते हैं. ये सभी इलाके सैनिक और ‘शहीद’ पैदा करने के लिए खासे प्रसिद्ध हैं. वे बस दिन-रात, एक ही मिशन के साथ दौड़ते हैं – भारतीय सेना में जवानों के रूप में शामिल होना है.

कई लोगों के लिए, यह एक हारी हुई दौड़ है.

कोविड के चलते पिछले दो साल से गैर-अधिकारी पदों पर कोई भर्तियां नहीं हुई हैं. नतीजतन, कई ‘लड़के’ सेना में भर्ती के उम्र पात्रता-17 से 21 वर्ष- से आगे निकल चुके हैं.

कुछ मानते हैं कि वो ‘एवरेज’ हैं. वे ‘ओवरएज’ का उच्चारण कुछ इसी तरह करते हैं. लेकिन वे आज भी दौड़ रहे हैं, क्योंकि करने के लिए और कुछ नहीं है. उन्हें ऐसी कोई नौकरी नहीं नजर नहीं आती जिसकी वो तैयारी कर सकें.

दिप्रिंट ने राजस्थान के उन तीन जिलों का दौरा किया जहां लोगों को सेना में भर्ती होने का जुनून है. शेखावाटी में सीकर और झुंझुनू और मारवाड़ क्षेत्र से जुड़े नागौर की कुछ ‘डिफेंस एकेडमी’ में जाकर जब हमने इन ‘ओवरएज लड़कों’ से मुलाकात की तो उनमें अभी भी सेना में शामिल होने को जोश और जज्बा नजर आया.


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विरोध, एक वायरल वीडियो और एक सुसाइड नोट

मार्च में राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने स्वीकार किया था कि 2020-21 में नियोजित 97 में से केवल 47 भर्ती रैली निकाली गईं थीं. भर्ती स्थगित होने से पहले इनमें से केवल चार ने ही सामान्य प्रवेश परीक्षा (सीईई) आयोजित की थी. विडंबना यह है कि सेना में कर्मियों की गंभीर कमी है- पिछले साल दिसंबर तक सेना में 1,04,053, नौसेना में 12,431 और वायु सेना में 5,471 पद खाली थे.

भर्ती प्रक्रिया शुरु न होने की वजह से सेना के लाखों उम्मीदवार बेचैन हो रहे हैं. इस महीने की शुरुआत में, ‘#जस्टिस फॉर डिफेंस स्टुडेंट्स’ सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा था और सेना भर्तियों में देरी के लिए केंद्र सरकार पर धावा बोलने वाले पोस्ट्स की भरमार देखी गई. 8 मई को इसी मुद्दे पर हरियाणा में भी आंदोलन हुए थे.

पिछले महीने भी संसद सत्र के दौरान शेखावाटी और देश के अन्य हिस्सों के कई ओवरऐज युवकों ने नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ सेना की भर्ती में देरी करने और आयु सीमा बढ़ाने की मांग के विरोध में दिल्ली तक मार्च किया था.

उनमें से एक सुरेश भिंचर भी था. यह युवक भीषण गर्मी में सीकर से दिल्ली तक की 350 किलोमीटर की दूरी 50 घंटे में तय करके आया था. उसकी मेहनत रंग लाई और वह नागौर के सांसद हनुमान बेनीवाल से मुलाकात कर ओवरएज का मुद्दा उठाने में कामयाब रहा.

सीकर के जिला मैदान में 50 घंटे में सीकर से दिल्ली भागे सुरेश भींचर | ज्योति यादव | दिप्रिंट

कई लोगों के लिए सेना में भर्ती होने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवार की दृढ़ता और मेहनत ‘प्रेरणा’ बन जाती है. इसके लिए मुस्कुराते हुए ‘मिडनाइट रनर’ प्रदीप मेहरा के वायरल वीडियो को शुक्रिया कहा जा सकता है. 19 साल का प्रदीप मैकडॉनल्ड्स में काम करता है. सेना में भर्ती के लिए फिट बना रहे, इसलिए रोजाना नोएडा से 10 किमी दूर अपने कार्यस्थल तक दौड़ लगाता हुआ जाता है. उसकी इस दौड़ को किसी ने कैमरे में कैद कर लिया और लोगों तक इसे पहुंचते देर नहीं लगी.

लेकिन अकेला प्रदीप नहीं है. कम ही लोग जानते हैं कि ग्रामीण भारत में हजारों अन्य युवक भी इसी कारण से दिन-रात दौड़ लगा रहे हैं.

कई बार हताशा में हरियाणा के भिवानी जिले के 23 साल के पवन पंघाल जैसी त्रासदी हो जाती हैं. भर्तियां नहीं होने से निराश होकर पवन ने अप्रैल में उसी ट्रैक पर फांसी लगा ली थी, जहां वह रोज दौड़ने की प्रक्टिस किया करता था. उनका सुसाइड नोट कथित तौर पर जमीन पर लिखा गया था: ‘बापू, इस जन्म में नहीं बन सका, अगला जन्म लिया तो फौजी जरूर बनूंगा’

हालांकि, ‘प्रेरक’ कहानियों और त्रासदियों के बीच एक वास्तविकता ये भी है कि देश के कुछ हिस्सों में लड़कों के लिए सेना में शामिल होना केवल ‘देश की सेवा करना’ या एक स्थिर नौकरी पाने तक सीमित नहीं है बल्कि यह उनकी मर्दानगी और सम्मान की परीक्षा भी है..

जब वे बच्चे होते हैं तो उन्हें अपने पूर्वजों की वीरता की कहानियां सुनाई जाती हैं, जिनके कुछ निशां अभी भी यहां-वहां मौजूद हैं. और जैसे-जैसे वे किशोरावस्था में आते हैं तो उनकी नजर पढ़ाई के लिए दूर के कॉलेजों पर नहीं बल्कि अपने पास के दर्जनों घरेलू सैन्य अकादमियों पर जाती है.

झुंझुनू, राजस्थान में दीवारों पर रक्षा अकादमियों का विज्ञापन | ज्योति यादव | दिप्रिंट

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ग्रामीण राजस्थान की ‘डिफेंस इकोनॉमी’

जो कुछ नहीं कर सके, वो पढ़ाने लगते हैं. शेखावाटी और नागौर में भी यह कहावत सच है. सेना के कई उम्मीदवार जिनकी उम्र निकल चुकी है या अन्य कारणों से वे सफल नहीं हो पाए हैं, वे नए उम्मीदवारों की आशाओं को जिंदा रखने के लिए प्रशिक्षित देने वाली अपनी ‘एकेडमी’ खोल लेते हैं.

जहां दिप्रिंट ने मनोज खिचर और उनके छात्रों से मुलाकात की, उसी डीडवाना तहसील में अकेले सेना, वायु सेना, नौसेना में सफलता का वादा करने वाली 15 से अधिक एकेडमी हैं. हालांकि यहां अभी तक सेना में जाने का लोगों में ज्यादा क्रेज है.

मनोज रक्षा एकेडमी में ट्रेनिंग देते हैं जिसे एक साल पहले सेना में जाने की इच्छा रखने वाले एक ओवरऐज उम्मीदवार मुकेश खिचर ने खोला था. फिलहाल वह 25 साल के हैं.

एकेडमी के अंदर कई प्रेरणादायक पोस्टर लगे हैं. इनमें से बहुत सारे तो पूर्व आर्मीमैन और ट्रैक स्टार मिल्खा सिंह के हैं. एक पोस्टर पर लिखा है-‘दौड़ना यहां फैशन है तो दूसरे पर लिखा है- ‘1,600 मीटर दौड़ 4.50 मिनट में पूरा करना ही मेरा सपना है. तीसरा पोस्टर ‘जे मिल्खा, ते मिल्खा’ की घोषणा करता नजर आ रहा है.

डिडवाना में एक अभ्यास प्रगति पर | ज्योति यादव | दिप्रिंट

कई अकादमियों के नाम सेना की भव्यता का बखान करते हैं- लक्ष्य, विजेता, कर्नल आदि. जबकि कुछ एकेडमी ब्लूम जैसे नाम प्रगति का संकेत देते हैं.

कई किसान परिवार 16 साल की उम्र के अपने बेटों को प्रशिक्षण के लिए ऐसी एकेडमी में भेजते हैं ताकि वे हजारों अन्य लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें. कुछ छात्र अपने गांवों से रोजाना आना-जाना करते हैं जबकि दूर-दराज में रहने वाले अन्य युवक बोर्डिंग सुविधाओं का फायदा उठाते हैं.

इन संस्थानों के पाठ्यक्रम में कठोर शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ लिखित परीक्षा के लिए प्रशिक्षण शामिल है. 4,000 से 6,000 रुपये एक महीने की फीस है, जिसमें रहना और खाना शामिल है.

फैक्ल्टी से कुछ रिटायर सैनिक जुड़े हुए हैं. जो कभी-कभी समय मिलने पर लड़कों को ट्रेनिंग देने के लिए आते हैं. गणित और सामान्य ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया जाता है. शहरों से शिक्षकों को हायर किया जाता है.

नागौर में मिल्खा रक्षा एकेडमी | ज्योति यादव | दिप्रिंट

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शर्म, शादी और एक ‘साधारण’ जीवन

राजस्थान के इस हिस्से से काफी लोग सेना में भर्ती हुए हैं लेकिन अब इसकी विरासत का भार ओवरऐज लड़कों के कंधों पर भारी पड़ रहा है. उन्हें डर लगता है कि वे पुराने लोगों की तरह सम्मानजनक जीवन नहीं जी पाएंगे.

नागौर के छोटे बेरी गांव का कहानी भी इन सबसे अलग नहीं है. जहां हर दूसरी सुविधा सेना की तैयारी से जुड़ी है.

सेना के रिटायर जवान अमजद फौजी कहते हैं, ‘रनिंग ट्रैक, वॉलीबॉल और फुटबॉल का मैदान, जिम और पड़ोस में उपलब्ध ट्रेनर… यह सब फौजी बनने के सपने का एक हिस्सा है जो लड़कों को बचपन से दिखाया जाता है.’

वह और उनके जैसे अन्य सेवानिवृत्त सैनिक इस बात से चिंतित हैं कि भर्ती रुकने से गांव की पूरी संस्कृति खतरे में है. वह इस मुद्दे को राजनीतिक रूप से सामने लाने के लिए युवाओं को विरोध और सोशल मीडिया ट्रेंड शुरू करने के लिए लामबंद कर रहे हैं.

12,000 की आबादी वाला गांव 70 सेवारत और 250 सेवानिवृत्त सैनिकों का घर हैं. 150 या उससे अधिक युवक वर्तमान में सेना में भर्ती होने की तैयारी कर रहे हैं. इनमें से कुछ अभी भी स्कूल में ही हैं. 50 या उससे अधिक लड़के जो पिछले दो सालों में ओवरऐज गए हैं, ग्रामीणों के लिए एक काला धब्बे के समान है.

छोटी बेरी में पूर्व और वर्तमान सेना के जवानों का दबदबा है, जहां ‘अधिक उम्र के लड़के’ अब संख्या में बढ़ रहे हैं | ज्योति यादव | दिप्रिंट

ग्राम प्रधान इकबाल खान के चार बेटे भी अब ओवरऐज हो चुके हैं. यह उनके लिए गुस्से और शर्म की बात है. खान ने केंद्र सरकार को दोष देते हुए कहा, ‘मैं बहुत निराश हूं.’

प्रधान के ऑफिस से कुछ ही दूर 92 साल के उम्मेद खान का घर है. वह 4 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट के सदस्य थे. उन्होंने क्रमशः चीन और पाकिस्तान के साथ 1962 और 1965 की लड़ाई भी लड़ी थी.

उनके बेटों ने भी सेना में अपनी सेवा दी है. परिवार को हमेशा राष्ट्र की सेवा करने की उनकी महान विरासत पर गर्व रहा है.

हालांकि, 21 साल के उम्मेद के पोते मोहम्मद फारूक ने अपने तीन ‘सुनहरे’ साल खो दिए हैं. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि उसके पास अब कोई मौका है.’ यह कहते हुए उनका चेहरा फीका पड़ गया.

सेना के अनुभवी उम्मेद खान, 92, अपने पोते मोहम्मद फारूक, 21 के साथ, जिनकी अब सेना के लिए क्वालीफाई करने के लिए उम्र निकल चुकी है | ज्योति यादव | दिप्रिंट

यह इंगित करते हुए कि हर कोई ‘ ओवरऐज’ का उच्चारण ‘एवरेज’ करता है, अमजद फौजी ने चुटकी ली: ‘क्या यह सच नहीं है कि ये ‘ओवरऐज’ लड़के आगे चलकर ‘एवरेज’ जीवन जीने वाले हैं? इसलिए हो सकता है कि यह शब्द उनके भविष्य का सही वर्णन करता हो’

आर्मी में जाने की उम्र को पार कर चुके इन लड़कों के सामने विरासत और रोजगार जैसी दो बड़ी चिंताएं तो हैं ही लेकिन इसके साथ उनकी शादी का न होना भी जुड़ा हुआ है.

20 साल के महेश साहू कहते हैं, ‘कोई भी अपनी बेटियों की शादी बेरोजगार बेटों से नहीं करता है’ वह ‘ओवरऐज’ लड़को की श्रेणी में आने की कगार पर हैं और इस बात को लेकर चिंतित है कि क्या उनकी शादी हो पाएगी. स्थानीय कार्यक्रमों में अधिक उम्र के लड़कों को दरकिनार कर दिया जाता है.

सामाजिक प्रभाव इससे और भी गहरे हैं. राजस्थान के इस हिस्से में, ‘आटा-साटा’ की सदियों पुरानी प्रथा है, जो कम लिंगानुपात (2011 की जनगणना के अनुसार 928:1000) के कारण शुरू हुई थी. इसने फिर से वापसी कर ली है. इस प्रथा के अनुसार, एक परिवार अपनी बेटी को शादी करने के लिए तभी सहमत होता है जब दूल्हे के परिजन बदले में उनके बेटे के लिए दूसरी दुल्हन भेज सकते हो. अगर वह इस तरह के पैकेज डील का हिस्सा है, तो ओवरऐज लड़के को भी दुल्हन मिल जाती है.

हरियाणा में तो स्थिति और भी ज्यादा खराब है. बिचौलिए शादी के लिए लड़कियों की व्यवस्था करते हैं – जिसे ‘मोल की बहुएं’ कहा जाता है. ओवरऐज लड़कों के लिए पैसे देकर बहुएं खरीदी जाती हैं.

फिलहाल मुकेश साहू एक रक्षा एकेडमी में प्रशिक्षण में पूरी तरह से जुटे हैं. कई अन्य लोगों की तरह वह भी दूरस्थ शिक्षा के जरिए बीए की डिग्री हासिल करने की कोशिशों में लगे हैं. जब उनसे पूछा गया कि अगर वह सेना में नहीं जा पाए तो क्या करेंगे, उनके पास कोई प्लान बी नहीं था.

वह कहते हैं, ‘मैं खुद को मार दूंगा, मैं और क्या कर सकता हूं?’ उन्होंने आगे कहा, ‘हम सात भाई हैं और मेरे पिता के पास केवल 15 बीघा खेती की जमीन है. मुझे केवल एक या दो बीघा विरासत में मिलेगी. आप मुझे बताएं कि क्या मेरा भविष्य उज्जवल होगा?’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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