भारत के प्रधानमंत्री के वी.वी.आई.पी. विमान ने इस्लामाबाद अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट से भारतीय समयानुसार सुबह 7 बजकर 45 मिनट पर उड़ान भरी. उसे निर्धारित समयानुसार नई दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर 9 बजकर 10 मिनट पर उतरना था. करीब 8.30 बजे रडार पर जब वह विमान अपने निर्धारित रूट से अलग होने लगा तो नई दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर खलबली मच गई. चूंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला था, एयर ट्रैफिक कंट्रोलरों को 45 मिनट यह पता करने में लग गए कि इसकी खबर किसे दी जाए और उस तक कैसे पहुंचा जाए.
9.15 बजे तक यह देखने में आया कि आई.जी.आई.ए. के रडार रेंज से बाहर निकलकर विमान दक्षिण की ओर जा रहा है. क्या प्रधानमंत्री का विमान ‘हाईजैक’ हो गया है? क्या वह श्रीलंका या मालदीव की ओर जा रहा है? क्या पाकिस्तानियों का इसमें हाथ है?
आई.जी.आई.ए. कंट्रोल टावर पायलट से सीधा संपर्क नहीं कर सकता था, क्योंकि वे एयरफोर्स के पायलट थे, जो इंडियन के एयर हेडक्वार्टर कम्युनिकेशन स्क्वाड्रन ‘पेगासस’ में ड्यूटी कर रहे थे. केवल आई.ए.एफ. स्टेशन्स ही वी.वी.आई.पी. के पायलटों से संपर्क कर सकते थे.
जब एयर हेडक्वार्टर के संबद्ध अधिकारी को खबर दी गई तो उसने चीफ एयर मार्शल श्रीवास्तव को सूचित किया. चीफ एयर मार्शल ने अधिकारी से कहा कि गैर-जरूरी आतंक न फैलने पाए, इसलिए वह खबर को गोपनीय रखे और यह कि वे स्वयं आगे की स्थिति को सँभाल लेंगे. रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एन.एस.ए.) प्रधानमंत्री के साथ इस्लामाबाद गए थे. उनकी अनुपस्थिति में चीफ एयर मार्शल को उपयुक्त अधिकारी कैबिनेट सचिव या रक्षा सचिव लगे. उन दोनों को आई.जी.आई.ए. के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर ने पहले ही सूचित कर दिया था.
दोनों अधिकारियों ने एयर चीफ से संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया, क्योंकि वे दफ्तर या मोबाइल फोन के कॉल नहीं ले रहे थे.
अजीब हालत थी. आखिर हो क्या रहा है?
राष्ट्रीय सुरक्षा
अगस्त 2019
नई प्रधानमंत्री अपने समर्थन के क्षेत्र को छोड़कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में कमजोर मानी जाती थीं. एक से अधिक अवसरों पर उन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध भारतीय सशस्त्र सेनाओं की काररवाइयों पर प्रश्नचिह्न उठाए थे. उन्होंने केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को, जिन्हें सरकारी ड्यूटी पूरी करने के लिए उनके राज्य में भेजा गया था, स्थानीय पुलिस को आदेश देकर ‘गिरफ्तार’ भी करवा दिया था. उनके राज्य के और बाहर के अनेक लोगों ने इस काररवाई को संविधान के विरुद्ध बताया था. उन्होंने कई केंद्रीय जांच-पड़ताल करनेवाली एजेंसियों को अपने राज्य में काम करने पर ‘रोक’ लगा दी.
जैसे ही भारत की सत्रहवीं लोकसभा का अधिवेशन समाप्त हुआ, नई सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी अपने पहले नीतिगत निर्णय में ‘आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट’ या ए.एफ.एस.पी.ए. को भारत के सात उत्तर-पूर्वी राज्यों और जम्मू एवं कश्मीर (जे. एंड के.) में निरस्त कर दिया. इस निर्णय को लागू करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया गया.
ए.एफ.एस.पी.ए. भारत की संसद् का कानून है, जिसके अंतर्गत सशस्त्र बलों को ‘उपद्रवग्रस्त’ क्षेत्रों में शांति व कानून बनाए रखने के लिए विशेष शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं. इसे सन् 1958 में पहली बार असम, मणिपुर व नागालैंड में लागू किया गया था. धीरे-धीरे यह अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी लागू कर दिया गया. आर्म्ड फोर्सेस (जम्मू एंड कश्मीर) स्पेशल पावर्स एेक्ट-1990 में जम्मू व कश्मीर में लागू किया गया था और तब से लागू था.
अध्यादेश ऐसे कानून होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर जारी करते हैं. इन्हें केवल उस स्थिति में जारी किया जा सकता है, जब संसद् का अधिवेशन नहीं चल रहा हो, ताकि केंद्र सरकार समय पर उपयुक्त कार्रवाई कर सके. यदि संसद् अपने अधिवेशन के शुरू होने के समय से छह सप्ताह के भीतर वह का अनुमोदन नहीं करती है या संसद् के दोनों सदन अध्यादेश के विरोध में प्रस्ताव पास कर देते हैं तो वह निरस्त हो जाता है.
जैसाकि उम्मीद थी, भारतीय सशस्त्र सेनाओं के टॉप कमांडर ‘आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशनल पावर्स) एेक्ट’ के निरस्त्रीकरण (विशेष रूप से जम्मू व कश्मीर में) को लेकर बहुत चिंतित थे. इसके अलावा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के चुनाव तथा प्रतिरक्षा बजट कटौती भी उनकी परेशानी के केंद्रबिंदु थे.
इनमें सर्वप्रथम साठ वर्षीय जनरल सुखबीर सिंह, पी.वी.एस.एम., यू.वाई.एस.एम., वाई.एस.एम., वी.एस.एम., चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ (सी.ओ.ए.एस.) थे, जो आजादी के पश्चात् उनतीस भारतीय सेनाधिकारियों के बाद तीसरे सिख सेनाधिकारी थे, जो इस पद पर पहुंचे थे. पहले दो सेनाधिकारी ब्रिटिश थे. सुखबीर सिंह एक कर्मठ सैनिक थे. उन्होंने सन् 1999 में कर्नल के रूप में पाकिस्तान के खिलाफ कारगिल युद्ध में भाग लिया था.
जनरल सिंह का जन्म एक सैनिक परिवार में हुआ था. उनके दादा ने भारतीय सेना में रहकर सन् 1947 में हुए प्रथम भारत-पाक युद्ध में भाग लिया था. इसके अलावा, उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 के भारत-पाक युद्ध तथा 1971 में हुए तीसरे भारत-पाक युद्ध में भी हिस्सा लिया था. वे लेफ्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हुए थे. उनके पिता ने सेना में रहकर सन् 1962, 1965 एवं 1971 के युद्धों में भाग लिया और वे भी लेफ्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हुए थे.
सुखबीर सिंह अपने दादा व पिता से भी आगे निकल गए और अपने परिवार में वे पहले आर्मी चीफ ‘फुल फोर स्टार’ जनरल के ओहदे पर पहुंचे थे. उनका इकतीस वर्षीय बेटा भारतीय सेना के पंद्रहवें कोर में मेजर के पद पर कार्यरत है. यह परिवार की चौथी पीढ़ी है, जो देश की सेवा में लगी हुई है. पंद्रहवीं कोर श्रीनगर स्थित आर्मी हेडक्वार्टर की पैदल सेना की यूनिट है, जिस पर कश्मीर घाटी में सैन्य काररवाई की जिम्मेदारी है. इस यूनिट ने आज तक भारत और चीन से हुए सभी युद्धों में भाग लिया है.
सर्जिकल स्ट्राइक पर उठे थे प्रश्नचिह्न
सशस्त्र सेनाएं भी कडक मेहता की हार से आमतौर पर चिंतित थीं, क्योंकि वे सुरक्षा के मामलों में बहुत मजबूत थे. उन्होंने दो बार ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ पार करके पाकिस्तान में घुसकर एक बार सर्जिकल ग्राउंड स्ट्राइक और दूसरी बार सर्जिकल एयर स्ट्राइक (हवाई हमला) की छूट दी थी. यह सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान द्वारा पोषित सीमा पार आतंकी हमलों की जवाबी काररवाई के रूप में की गई थी. विरोधी दलाें के अनेक नेताओं ने, जो आज नई सरकार में मंत्री हैं, भारत की ओर से की गई सर्जिकल स्ट्राइक की आलोचना की थी. स्वयं प्रधानमंत्री ने दोनों बार प्रश्न उठाए थे. सन् 2017 में वंशवादी राष्ट्रीय पार्टी के प्रमुख नेता ने तत्कालीन सेनाध्यक्ष को ‘सड़क छाप मूर्ख’ कहा था.
जनरल सिंह ने प्रधानमंत्री से तुरंत मिलने की अनुमति मांगी. अध्यादेश जारी होने के छह दिन और अनुमति मांगने की तिथि से पांच दिन बाद चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ को अंततः अनुमति मिल गई. उनके साथ वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (वी.सी.ओ.एस.) तथा उत्तरी कमांड के जनरल ऑफिसर-कमांडिंग-इन-चीफ भी प्रधानमंत्री से मिलने गए.
उनकी मुलाकात लोक कल्याण मार्ग स्थित प्रधानमंत्री के कार्यालय में हुई, जबकि प्रधानमंत्री का सचिवालय साउथ ब्लॉक में है. प्रधानमंत्री का प्रमुख कार्यस्थल लोक कल्याण मार्ग पर 12 एकड़ के कंपाउंड में स्थित है, जिसे ‘पंचवटी’ कहा जाता है, अर्थात् पांच वृक्षों का झुंड. इस अहाते में पांच बंगले हैं, जिनमें प्रधानमंत्री का आवास भी शामिल है. अन्य बंगलों में प्रधानमंत्री का दैनिक कार्यालय, गेस्ट हाउस तथा स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एस.पी.जी.) का कार्यस्थल है, जो प्रधानमंत्री की सुरक्षा करता है. पांचवें बंगले में लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबी एक गोपनीय सुरंग है, जो लोक कल्याण मार्ग को सफदरजंग हवाई अड्डे से जोड़ती है. यह हवाई अड्डा बुनियादी रूप से वी.वी.आई.पी. हेलीकॉप्टर को इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक की उड़ान के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
पीएम ने नहीं सुनी जनरल सुखबीर की बात
‘मैडम, हम विश्वास के साथ यह कहना चाहते हैं कि कश्मीर में आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) एेक्ट को हटाना एक भयंकर गलती है.’ छह फीट दो इंच ऊंचे, चौड़ी छातीवाले जनरल ने 5 फीट 3 इंच छोटी काठीवाली प्रधानमंत्री की आंखों में सीधे देखते हुए कहा.
‘क्या सेना मुझे सिखाएगी कि मैं कैसे काम करूं?’ प्रधानमंत्री ने गुर्राते हुए जवाब दिया.
‘नहीं मैडम, हम केवल अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं.’
‘कई सालों से आप लोग ओधार (उधर) में ह्यूमन राइट्स भायोलेट (वायलेट) कर रहा है. हजारों इनोसेंट मुसलिम लोगों का रेपिंग (बलात्कार) और किलिंग (हत्या) कर रहा है. जब तक मैं पी.एम. है, मैं यह एलाउ (छूट) नहीं करेगा.’
अपनी कठोर मुद्रा में जनरल ने अपने क्रोध को जब्त करते हुए कहा, ‘मैडम, आदर सहित कहता हूं कि ये सब झूठे इल्जाम हैं, जो वे लोग लगाते हैं, जिन्हें हमारे दुश्मन पोषित करते हैं. इनमें कोई सच्चाई नहीं है.’
‘मैं अपना ‘डिशीषान’ (डिसीजन) नहीं बदलेगा. फौरन थार्टी पार्शेंट (थर्टी पर्सेंट) अपना फौज को जम्मू-कश्मीर से विदड्रा (हटाइए) कीजिए. ‘इट इज कॉश्टिंग (कॉस्टिंग) टू माच (मच) (यह बहुत खर्चीला है). आई हैब (हैव) टू फीक्स (फिक्स) दि इकोनॉमी बिज (विच) वॉस ब्रोकेन बाई दैट मैन मेहता (मुझे इकोनॉमी को पटरी पर लाना है, जिसे उस आदमी मेहता ने तहस-नहस कर दिया है.)
‘वांस (वॅस) दीज सोल्जार्स (सोल्जर्स) कम बैक दे कैन हेल्प बिल्ड रोड्स एंड भेल्स (वेल्स) फॉर पुअर पीपल्स (पीपल) इन द भिलेजेस (विलेजेस) स्पेशली फॉर द माइनियोरिटी पीपल्स (पीपल). (एक बार ये सैनिक वापस आ जाते हैं तो ये सड़कों के निर्माण और गरीबों, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों, के लिए कुएँ खोदने के काम में मदद कर सकते हैं.)’
‘ठीक है, मैडम! जैसा आप चाहें.’
उनसे बहस करने से कोई फायदा नहीं. उन्हें कुछ दूसरा सोचना होगा. वे अपने सैनिकों को कुएँ खोदने में नहीं लगाएँगे. उन्होंने इस काम के लिए सेना में भरती नहीं ली है.
जम्मू व कश्मीर में 2,10,000 भारतीय सशस्त्र सैनिकों के अलावा सी.आर.पी.एफ. सहित बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स तथा इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस के लगभग 1,58,000 जवान लगे हुए हैं. इन सबको मिलाकर राज्य में केंद्रीय सैनिकों का योग लगभग 3,68,000 हो जाता है. इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर पुलिस, जम्मू-कश्मीर आर्म्ड पुलिस, स्पेशल ऑफिसर्स (एस.पी.ओ.) तथा इंटेलिजेंस एजेंसियों के कर्मचारियों की संख्या लगभग 1,30,000 है. ये 4,98,000 पुरुष एवं स्त्री कर्मचारी राज्य की लगभग 14 लाख 60 हजार की अनुमानित आबादी के जीवन की रक्षा करते हैं.
‘एक और बात है.’ प्रधानमंत्री ने कहा.
‘स्टॉप यूजिंग ऑवर कॉस्टली भेपंस (वेपंस) टू रिप्लाई टू पाकिस्तान क्रॉश (क्रॉस) बॉर्डर फायरेंग (फायरिंग). लेट देम भेस्ट (वेस्ट) देयर मनी. फ्रॉम टुडे, बिफोर टेकिंग एनी शार्ट (सार्ट) ऑफ ऐक्शन, यू मास्ट (मस्ट) टेक माई परमिशन.’ (पाकिस्तान की सीमा पार की फायरिंग के जवाब में हमारे कीमती शस्त्रों का इस्तेमाल फौरन बंद करें. उन्हें पैसा बरबाद करने दें. आज के बाद से कोई भी कदम उठाने से पहले आपको मुझसे आज्ञा लेनी पड़ेगी.)
जनरल सुखबीर सिंह तथा दो अन्य अधिकारी प्रधानमंत्री को जवाब दिए बगैर कमरे से बाहर आ गए. उनके मुख की मुद्रा बताती थी कि वे बहुत ही व्याकुल और चिंताग्रस्त हैं.
भारतीय सेना प्रमुख को इस प्रकार की राजनीति को क्यों सहना पड़ता है? एक राजनयिक क्या जाने कि सही सैनिक सामरिक परिस्थिति क्या होती है? हम पाकिस्तानी आर्मी जितने शक्तिशाली क्यों नहीं हैं?
प्रधानमंत्री का कमरा छोड़कर अपनी कार तक पहुंचने तक जनरल सिंह के दिमाग को इस प्रकार के अनेक विचार उथल-पुथल करते रहे. वे जानते थे कि उनके सहयोगियों के मस्तिष्कों में भी ऐसे ही विचार उठ रहे होंगे.
इस मीटिंग के दो दिन बाद प्रधानमंत्री ने रॉ (RAW रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के सचिव रवि कौशिक को बुलाया. ‘रॉ’ अमेरिका की सी.आई.ए., इंग्लैंड की एम-16 (काल्पनिक चरित्र जेम्स बॉण्ड की नियोक्ता), चीन की एम.एस.एस., रूस की एस.वी.आर. तथा पाकिस्तान की आई.एस.आई. की जासूसी एजेंसियों की तरह भारत की जासूसी एजेंसी (विदेश इंटेलिजेंस एजेंसी) है. इस मीटिंग में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एन.एस.ए.) भी मौजूद थे.
‘पाकिस्तान में आपके कितने जासूस हैं?’ प्रधानमंत्री ने ‘रॉ’ प्रमुख से सवाल किया.
‘मैडम, लगभग पचहत्तर.’ कौशिक ने जवाब दिया.
‘इतने सारे क्यों?’
‘पाकिस्तान एक बड़ा देश है और हमारा प्रमुख शत्रु है.’
‘पाकिस्तान अब ज्यादा देर तक शत्रु नहीं रहेगा. आई एम इन फेबार (फेवर) ऑफ फ्रेंडशिप ‘नॉट फॉर फाइटिंग बिद नेबार्स’ (नेबर्स). ये विल नॉट नीड मोर देन फाइव टू सिक्स पीपुल्स (पीपल). नाऊ ब्रिंग बैक दि रेश्ट (रेस्ट) ऑफ देम.’ (मैं दोस्ती कायम करना चाहती हूं. पड़ोसियों से लड़ाई नहीं चाहती. अब आपको वहाँ पांच-छह से ज्यादा लोग रखने की जरूरत नहीं होगी. बाकी सबको वापस बुला लीजिए.)
‘लेकिन…’
‘भॉट (वॉट) इज लेकिन? आई एम प्राइम मिनिस्टर ना?’ (लेकिन क्या? मैं प्रधानमंत्री हूं, ठीक?)
‘यस, मैडम.’
‘रॉ’ के इतिहास में यह तीसरी बार था कि उसकी टांगें और किसी ने नहीं, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री ने काट दी थीं. सन् 1977 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ‘रॉ’ के बजट को 30 प्रतिशत काट दिया था और ‘रॉ’ के नेटवर्क को पाकिस्तान के मिलिटरी डिक्टेटर जनरल जिआ उल-हक के साथ साझा किया था. सन् 1977 में प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल ने पाकिस्तान में रॉ की गोपनीय काररवाइयों को बंद करवा दिया था और भारत के प्रमुख शत्रु से गोपनीय युद्ध में ‘रॉ’ ने अपने आपको असहाय व अयोग्य महसूस किया था.
ऐसा लगता है कि इतिहास प्रत्येक 25 वर्ष के अंतराल में अपने आपको दोहराता है.
कडक मेहता के पांच वर्ष के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में ‘रॉ’ की शक्तियों में समय-समय पर इजाफा होता रहा और वह अपने दुश्मन पाकिस्तान की आई.एस.आई. की बढ़ती हुई घातक दौड़ में बराबरी करने लायक बनती जा रही थी. आई.एस.आई. की विशेषता यह थी कि उसके कामकाज में सरकार का हस्तक्षेप न के बराबर था.
कौशिक उदास नजरें लिये कमरे से बाहर निकले. वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. उस जासूस एजेंसी को चलाने का क्या फायदा, जो अपने सबसे दुश्मन की जासूसी न कर पाए!
कुछ किया जा सकता है? कौन मदद कर सकता है? इस कमजोर सरकार का मिनिस्टर तो हरगिज नहीं.
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