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Sunday, 29 September, 2024
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क्यों MP हाईकोर्ट ने हत्या के आरोपी को बरी किया और राज्य को 42 लाख मुआवजा देने का दिया आदेश

अनुसूचित जनजाति समुदाय के मेडिकल छात्र चंद्रेश मार्सकोले को निचली अदालत ने 2009 में अपनी प्रेमिका की हत्या के लिए दोषी ठहराया था. हाईकोर्ट ने उन्हें बुधवार को रिहा कर दिया.

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नई दिल्ली: मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा 13 साल पहले हुए एक हत्या के एक मामले को जल्दबाजी में सुलझाने का ‘उत्साह’ राज्य के लिए महंगा साबित हुआ है. इस बुधवार को, एमपी उच्च न्यायालय ने मामले में एक 36 साल के व्यक्ति को झूठा फंसाने के लिए राज्य पर 42 लाख रुपये का जुर्माना लगाया और ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को पलट दिया जिसमें उसे दोषी ठहराया गया था.

आरोपी चंद्रेश मार्सकोले को सितंबर 2008 में गिरफ्तार किया गया था. वह उस समय राज्य के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में चौथे वर्ष के मेडिकल छात्र थे. उन पर अपनी प्रेमिका की हत्या का मामला दर्ज किया गया था. जुलाई 2009 में भोपाल के एक सत्र न्यायाधीश ने उसे दोषी करार दिया और उम्रकैद की सजा सुनाई. गिरफ्तारी के बाद से ही मार्सकोले जेल में है.

लेकिन उनके द्वारा दायर एक अपील पर, जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस सुनीता यादव की उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए, उन पर लगे सभी आरोपों को रद्द कर दिया और पुलिस जांच को ‘एक निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाने’ के एकमात्र उद्देश्य से की गई ‘प्रेरित और प्रभावित’ करार दिया.

मार्सकोले को मुआवजा देने का फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा, ‘यदि सरकारी कामकाज दुर्भावनापूर्ण इरादे से या दुर्भावनापूर्ण तरीके से किया गया हो तो उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है.‘

अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड पर लाए गए सबूत द्वेषपूर्ण हैं. जिसके कारण निर्दोष होते हुए भी उन्हें 4 हजार 740 दिन जेल में बिताने पड़े. आवेदक का पूरा जीवन अव्यवस्था की भेंट चढ़ गया.


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चूक जानबूझकर की जा सकती है

पीठ ने पुलिस जांच में खामियों की ओर इशारा किया और कहा कि शायद वास्तविक अपराधी को बचाने के लिए चूक जानबूझकर की गई हो सकती है, जिसे मामले में एक महत्वपूर्ण गवाह बनाया गया था.

हालांकि अदालत ने इस गवाह के खिलाफ कोई निर्णायक राय नहीं दी. जहां आरोपी पढ़ता था, गवाह उसी मेडिकल कॉलेज से जुड़े अस्पताल में एक सीनियर रेजिडेंट था. अदालत के अनुसार, पुलिस को पूछताछ करनी चाहिए थी कि घटना वाले दिन वह कहां था.

सीनियर रेजिडेंट द्वारा भोपाल के महानिरीक्षक को हत्या का आरोप लगाते हुए लिखे गए एक पत्र के बाद, मार्सकोले को 20 सितंबर 2008 को गिरफ्तार किया गया था. पत्र के अनुसार, मार्सकोले को एक जरूरी काम से होशंगाबाद जाना था, जिसके लिए सीनियर रेजिडेंट ने अपनी कार और ड्राइवर को 19 सितंबर 2008 को उसे उधार दी थी.

होशंगाबाद जाने के लिए मार्सकोले ने लंबा रास्ता चुना और वे पंचमढ़ी के रास्ते की ओर चले गए. वहां उन्होंने ड्राइवर से कुछ देर गाड़ी रोकने के लिए कहा. पत्र में आरोप लगाया गया है कि जब ड्राइवर ‘नेचर्स कॉल’ के लिए गया, तो मार्सकोले ने कथित तौर पर कार की डिक्की से ‘भारी’ बिस्तर निकाला और उसे खड्ड में फेंक दिया.

पत्र के अनुसार, सीनियर रेजिडेंट उस दिन इंदौर के लिए निकला था और जब वह रात को भोपाल लौटा तो उसके ड्राइवर ने उसे घटना के बारे में बताया.

अपने 78 पन्नों के फैसले में उच्च न्यायालय ने पत्र की सामग्री पर संदेह जताया.

सीनियर रेजिडेंट के बयान और उसके ड्राइवर के बयान की जांच करने के बाद, अदालत ने पाया कि दोनों ने विरोधाभासी बयान दिए थे. ड्राइवर ने कभी भी हत्या को देखने का दावा नहीं किया था लेकिन सीनियर रेजिडेंट ने अपने बयान में कहा कि उसके ड्राइवर ने ही उसे बताया कि ‘मार्सकोले ने अपनी प्रेमिका की हत्या की थी.’

अदालत ने विचार किया कि अगर ड्राइवर ने कभी हत्या होते हुए नहीं देखा या बॉडी को डंप करने में कभी मार्सकोले की मदद नहीं की, तो वह कैसे मान सकता है कि आरोपी द्वारा फेंका गया बिस्तर ‘भारी’ था.

इसके अलावा अदालत ने एक टोल प्लाजा टिकट पर भी ध्यान दिया. टिकट के अनुसार जिस कार में मार्सकोले यात्रा कर रहे थे, उसमें चार यात्री सवार थे. टोल प्लाजा शुल्क वाहन में यात्रियों की संख्या के अनुसार लगाया गया था.

अदालत ने कहा, ‘हालांकि, पुलिस ने इस पहलू पर भी जांच नहीं की.’

मार्सकोले कथित तौर पर जिस वाहन को पंचमढ़ी ले गया था, उसे पुलिस ने घटना के लगभग 15 दिन बाद जब्त किया था. ये एक और तथ्य था जिसने अदालत को यह विश्वास दिलाया कि जांच में लापरवाही बरती गई है.

कार से जब्त किए गए मैट पर मानव खून के धब्बे थे. जांच के दौरान जब्त किए गए सामान का रिकॉर्ड बनाने वाले ‘सीज़र मेमो’ में इसके लिए ‘स्राव’ शब्द का इस्तेमाल गया था. अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि यह अत्यंत अस्वाभाविक था, क्योंकि वर्णन करने के लिए आमतौर पर ‘खून जैसे धब्बे’ वाक्य का इस्तेमाल किया जाता है.

अदालत ने कहा, ‘ जब्त की गई गाड़ी और मैट, जिस पर मानव रक्त पाया गया था, जैसे सबूत अत्यधिक मनगढ़ंत हैं और पुलिस द्वारा उन 15 दिनों में जब उनके पास वाहन था, अप्रासंगिक साक्ष्यों को रचने और पेश करने में हेरफेर करने की ओर इशारा करता है.


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‘भेदभाव और दमन’

मार्सकोले पर जब ये आरोप लगा और उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब वह एक डॉक्टर बनने की कगार पर थे और अपने परिवार के लिए वित्तीय सहायता का एकमात्र स्रोत भी. अदालत ने कहा कि वह गोंड जनजाति के थे और उन्होंने राज्य के मेडिकल कॉलेज में जगह बनाई थी इसलिए वह अपने समुदाय के लिए प्रेरणा के स्रोत भी थे.

अदालत ने निश्चित रूप से इस पर टिप्पणी करने से परहेज किया कि क्या उनके अनुसूचित जनजाति के सदस्य होने से इसका कोई लेना-देना था. लेकिन रिकॉर्ड में उल्लेख किया कि ऐसे समुदायों से संबंधित लोगों को राज्य में ‘अपमान, भेदभाव और उत्पीड़न’ का सामना करना पड़ता है और इसे साबित करने के लिए ‘किसी भी बाहरी सबूत की आवश्यकता नहीं है.’

अदालत ने कहा, ‘उसके जीवन के महत्वपूर्ण साल बर्बाद हो गए. मेडिकल अध्ययन के पूरा होने से लेकर अब तक सालाना कमाई के हिसाब से उसे सरकार मुआवजे के तौर पर 42 लाख रुपये दे.’

अदालत ने कहा, ‘इस दौरान अगर याचिकाकर्ता सरकारी अस्पताल में या फिर निजी प्रैक्टिस कर रहा होता तो कम से कम 3 लाख रुपये की सालाना कमाई करता. उसके जीवन के महत्वपूर्ण साल बर्बाद हुए हैं. हम मानते हैं कि याचिकाकर्ता भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अपने मौलिक जीवन के अधिकार के उल्लंघन के कारण मुआवजे का पात्र है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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