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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमोदी नहीं पर कोई भी सही: दुश्मनों को भी गले लगाने को तैयार हैं अब राहुल गांधी

मोदी नहीं पर कोई भी सही: दुश्मनों को भी गले लगाने को तैयार हैं अब राहुल गांधी

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दुश्मन के सबसे अच्छे दोस्त को रिझाना दर्शाता है कि राजनीतिक नियम दोबारा लिखे जा रहे हैं। जिसका एकमात्र उद्देश्य है: मोदी के अलावा कोई भी, भले ही वो मैं भी न होऊँ।

म जानते हैं कि राजनीति में कोई भी व्यक्ति स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं होता है, सिर्फ निहित स्वार्थों का स्थानांतरण होता है। फिर भी, सभी राजनीतिक गठजोड़ और ब्रेक-अप, या राजनीतिक पंडितों के अनुसार “जोड़-तोड़ की राजनीति” कुछ व्यापक मानकों के साथ जगह बना लेती है। इनका खाका अब दोबारा खींचा जा रहा है।

मुझे भारतीय राजनीति के तीन महान शिक्षकों से सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ: प्रणब मुखर्जी, एल.के. आडवाणी और स्वर्गीय सीताराम केसरी। मुझे यकीन है कि प्रणब दा मेरी इस बात का बुरा नहीं मानेंगे कि जब बड़ी तस्वीर की बात आती है तो एल.के. आडवाणी से बेहतर शिक्षक कोई नहीं है। या, एक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए जो यहाँ अधिक उपयुक्त होंगे भले ही इसे गुस्ताखी माना जाये यानी कि भारत का सम्पूर्ण राजनीतिक विज्ञान।

अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से, जब आडवाणी ने अपनी पार्टी के पुनरुत्थान की शुरुआत की, उन्होंने गठबंधन निर्माण के अपने सरल सिद्धांत को बताया। वह कहते, “पाँच दल हैं जो सोचते हैं कि हम राष्ट्र विरोधी हैं। इनके अलावा, हम किसी के भी साथ जुड़ने को तैयार हैं।” कांग्रेस, वामपंथी, मुलायम की समाजवादी पार्टी (एसपी), लालू का राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और मुस्लिम लीग (आज इसकी पसंद ओवेसी की एआईएमआईएम और अजमल की एआईयूडीएफ सहित) पांच “अस्पृश्य” हैं।

इसके बाद यह हुआ कि ऐसे दल थे जिनके पास भाजपा के साथ जुड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था, वे थे: शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल, और उस समय तेलुगू देशम पार्टी। पहले दो इसलिए क्योंकि धर्म उनकी राजनीति और सत्ता के लिए आवश्यक था और तीसरी पार्टी इसलिए क्योंकि इसके पास कोई विकल्प नहीं था, यह देखते हुए कि कॉंग्रेस ही इसकी एकमात्र प्रतिद्वंदी थी।

उन्होंने जो कहा सो किया। अटल बिहारी वाजपेयी के अंतर्गत उनके द्वारा गठित गठबंधन सरकार पहली सरकार थी जिसने अपना सम्पूर्ण कार्यकाल पूरा किया। इसने भारत में गठबंधन के भय को दूर कर दिया और TINA-टीना (There Is No Alternative-कोई विकल्प नहीं है) कारक को कमजोर कर दिया। उस समय तक, आप डर में बनावटी हंसी हँसते या सकुचाते जब-जब जॉर्ज फर्नांडीस कहते यदि गठबंधन “सासू माँ के देश” (इटली) में चल सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं। इसके बाद “इटली की बेटी” ने भी एक गठबंधन बनाया जिसने दो बार अपना सम्पूर्ण कार्यकाल पूर्ण किया।

हालांकि कुछ मूलभूत मानदंड नहीं बदले थे: ऐसे दल थे जिनके साथ आप कभी नहीं जाते, ऐसे अन्य दल भी थे जिनके पास आपके साथ रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इसके अलावा, किसी भी चुनाव में 75 से 150 सीटें उन्हीं पार्टियों को जाती थीं जिनकी विचारधाराएँ सत्तारूढ़ दल से मेल खाती थीं। इसने 160 तक पहुँचने वाला आंकड़ा 272 का नया आंकड़ा बन गया। यह अब बदल रहा है लेकिन उस तरह से जिस तरह से 2014 में नरेंद्र मोदी की भाजपा द्वारा एक पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद आप ने उम्मीद की होगी।

ूचक आज 2014 से पहले की स्थिति में वापसी का संकेत देते हैं लेकिन एक दिलचस्प मोड़ के साथ। अर्थशास्त्रियों के हिसाब से हर कोई बराबर है और यह अधिकांशतः असंभव है कि किसी भी पार्टी को अब बहुमत मिलेगा। यहां तक कि सबसे प्रतिबद्ध भाजपा वफादार भी बहुमत का दावा नहीं करते हैं। उनका सबसे अच्छा तर्क है – निश्चित रूप से 230+, और अगर कुछ कम भी रह जाती हैं तो और कौन है? यह वापस 1989 के बाद की सामान्य स्थिति की तरह है बस अंदाज कुछ दूसरा है।

राहुल गांधी एक ऐसा ट्वीट क्यों करते हैं? जिसमें वह लिखते हैं, “श्री उद्धव ठाकरे जी को उनके जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ। मैं हमेशा उनके अच्छे स्वास्थ्य और खुशियों की कामना करता हूँ।” पाखंड से राजनेताओं को कोई खास परेशानी नहीं होती और अपने प्रतिद्वंदी को उसके जन्मदिन पर बधाई देने में कोई विशेष बात नहीं है। या आप तब भी खुश हैं जब आप अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी को गले लगाकर उसे आश्चर्यचकित करते हैं। लेकिन यह अलग है।

कभी भी एक कॉंग्रेस प्रमुख ने एक ऐसी पार्टी, जो इसके लिए वैचारिक रूप सबसे घृणित मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है, के सर्वोच्च नेता के लिए बधाई संदेश नहीं भेजा है, और वह भी सार्वजनिक रूप से। कॉंग्रेस के लिए भाजपा की तुलना में शिव सेना कहीं ज्यादा अस्पृश्य है, क्योंकि यह एनडीए में सबसे मूलभूत सहयोगी रही है।

अब अगर राहुल गांधी इसके मुखिया तक पहुंचे हैं और अपना प्रेम पत्र सार्वजनिक किया है, तो इसके तीन मतलब हैं। पहला, वह भाजपा-शिवसेना के सम्बन्धों में दरार देखते हैं और इसे भुनाने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरा, वह 2019 की अपनी रणनीति पर काफी स्पष्ट हैं: मोदी के अलावा कोई भी, चाहे मैं भी न होऊँ। और तीसरा, 2019 में भले ही गठबंधन की जीत हो, लेकिन इसकी राजनीति आडवाणी द्वारा बनाए गए गठबंधन बनाने के पुराने मापदण्डों की सीमा से बाहर आ रही है।

प्यार, युद्ध और राजनीति में ‘दुश्मन का दुश्मन — आपका दोस्त’ सबसे पुराना स्वयंसिद्ध सत्य है। यदि अब आप अपने दुश्मन के सबसे अच्छे दोस्त के पास पहुँचने की इच्छा रखते हैं तो यह दर्शाता है कि जिसे आप ज्यादा नापसंद करते हैं उसे हराने के लिए आप दूसरे को गले लगा सकते हैं। आप अपनी पार्टी, परिवार और जो आपको लगता है कि आइडिया ऑफ इंडिया के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए, के लिए एक अस्तित्ववादी चुनौती का सामना कर रहे हैं। तो नए नियम लिखे जा सकते हैं। वैचारिकता के भाव इंतज़ार कर सकते हैं।

ोदी के दुबारा बहुमत प्राप्त करने की कम हो चुकी संभावना ने हमारे शुरुआती बेस्ट-ऑफ-नाइन-सेट्स-टेनिस-मैच के सिद्धान्त, कि भारत पर शासन कौन करेगा, को भी बहाल किया है। कोई भी पक्ष जो इनमें से पाँच में जीतता है वही भारत पर शासन करेगा। यहाँ नौ सेट रहे हैं उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र (तेलंगाना समेत), तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और केरल। हमने इन नौ को सिर्फ इसलिए नहीं चुना कि ये सबसे बड़े राज्यों में से हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि इन राज्यों में बड़े स्तर पर परिवर्तन संभव हैं। यही कारण है कि हमने उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और गुजरात छोड़ दिया। उनके बीच नौ राज्यों में 351 संसदीय सीटें हैं। गठबंधन अगर पाँच राज्यों में जीत दर्ज करता है तो 200 के करीब पहुँच सकता है और निश्चित ही 160 से ऊपर तो पहुंचेगा ही। जैसा कि हमने पहले कहा था कि 2014 तक यह 272 था। हम उस तक वापस पहुँच सकते हैं।

इसको किसी अन्य व्यक्ति (राहुल गांधी) के नजरिये से देखिए जिसका सर्वोपरि लक्ष्य मोदी-शाह वाली भाजपा को फिर से सत्ता में न आने देना है। अगर सपा और बसपा एक साथ आ जाते हैं तो निश्चित रूप से भाजपा को उत्तर प्रदेश में बहुमत नहीं मिलेगा। इससे भाजपा के लिए 2014 में प्राप्त की गई अपनी 73 सीटों में से आधी भी प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में इसको परेशानियों का सामना करना पड़ेगा जहाँ 2014 में इसने बहुत सारी सीटें जीती थीं। भाजपा को उम्मीद है कि यह पूर्व और पूर्वोत्तर से इस नुकसान की भरपाई कर पाएगी। इसलिए, लोकसभा के लिए उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा योगदान (48) देने वाले राज्य महाराष्ट्र पर अपनी पकड़ बनाए रखना इसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। अमित शाह ने महाराष्ट्र में हाल ही में कुछ साहसिक कदम उठाए हैं, इन्होंने महाराष्ट्र में शिव सेना के बिना ही अकेले दम पर चुनाव लड़ने के लिए कमर कस ली है। लेकिन उन्हें पता है कि वह शिव सेना के बिना चुनाव नहीं जीत सकते हैं।

राहुल गांधी भी यह जानते हैं। यदि 2019 दोबारा बेस्ट ऑफ नाइन सेट्स का खेल खेलने जा रहा है तो उन्हें महाराष्ट्र को भाजपा/एनडीए के लिए नहीं छोड़ना चाहिए। कोई भी इतना बेवकूफ नहीं है जो यह सुझाव दे कि शिव सेना कांग्रेस/यूपीए के साथ गठबंधन कर लेगी। लेकिन राहुल को इसकी भी आवश्यकता नहीं है। अगर शिव सेना केवल एनडीए से अपना किनारा भर ही किए रहती है तो उनका लक्ष्य लगभग पूरा हो जाएगा। अस्पष्ट चुनावी सामंजस्य के लिए कांग्रेस और शरद पवार मास्टर हैं।

यह “हैप्पी बर्थडे उद्धव जी” संदेश का राजनीतिक अनुवाद है। अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के जवाब को फिर से सुनिए और आप सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तक पहुँच सकते हैं: आंध्र में चंद्रबाबू नायडू के साथ नाराजगी के विपरीत तेलंगाना के “विकास पुरूष” के रूप में के. चंद्रशेखर राव की चापलूसी पूर्ण प्रशंसा। आपको याद होगा कि के. चंद्रशेखर राव अन्य क्षेत्रीय नेताओं के साथ मिलकर एक भाजपा विरोधी संघीय मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मोदी आंध्र-तेलंगाना को अलग करने के लिए उनकी प्रशंसा कर सकते हैं और राहुल गांधी उद्धव ठाकरे की प्रशंसा कर सकते हैं तब तो आप अच्छी तरह से अनुमान लगा सकते हैं कि अब यह एक खुला चुनाव है।

Read in English : When Rahul says ‘Happy Birthday’ & turns India’s entire political science on its head

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