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Monday, 30 September, 2024
होमदेशघाटी में आतंक के शुरुआती पीड़ितों के परिवारों ने पूछा, हम किस ‘कश्मीर फाइल’ में शामिल हैं

घाटी में आतंक के शुरुआती पीड़ितों के परिवारों ने पूछा, हम किस ‘कश्मीर फाइल’ में शामिल हैं

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(सुमीर कौल)

श्रीनगर, एक मई (भाषा) कश्मीर में आतंकवाद के शुरुआती पीड़ितों के परिवारों की स्मृति में पुराने घाव गहरे तक समाये हुए हैं, यही वजह है कि तीन दशक से अधिक समय बाद भी समय-समय पर इससे जुड़ी घटनाएं, बेतुकी टिप्पणियां या सुर्खियां उनके जख्म ताजा कर देती हैं।

इन परिवारों ने 1980 के दशक के उत्तरार्ध से संघर्ष किया, जब उनकी मातृभूमि पर आतंकवाद का शिकंजा कस गया और हजारों लोग मारे गए,जिसमें कश्मीरी पंडित और मुस्लिम शामिल थे।

तैंतीस साल बाद हाजी बशीर अहमद वानी बताते हैं कि उनके भाई यूसुफ वानी, जो नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता थे और लोग उन्हें ‘यूसुफ हलवाई’ नाम से जानते थे, 21 अगस्त, 1989 को घाटी में आतंकवाद का पहला शिकार बने, जब यूसुफ को श्रीनगर में दिनदहाड़े गोली मार दी गई।

कश्मीरी पंडितों की वेदना पर केंद्रित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनने के बाद घाटी और इसकी ध्रुवीकरण की राजनीति के एक बार फिर चर्चा में आने पर वानी ने पूछा, ‘‘मेरा भाई किस लिए मरा?’’

कहानी के जरिये विभाजन को और तीव्र करने को बहुत से पीड़ित परिवार ठीक नहीं मानते। वानी नेकां से जुड़े हैं और तीन आतंकवादी हमले झेल चुके हैं। दाहिने जबड़े में चार गोलियां लगने के बाद कई कहानी सुनाने के लिए जी रहे वानी ने कहा कि उनका भाई आतंकवादियों द्वारा धमकाये जा रहे एक परिवार की मदद करने के लिए घर से बाहर निकला था।

वानी ने कहा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ की शुरुआत उनके भाई बानी के साथ होनी चाहिए थी, क्योंकि उन्होंने इस देश के लोगों के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

भाई की गोली मारकर हत्या किए जाने के सदमे से उबरते हुए उन्होंने कहा कि फिल्म द्वारा बनाए गए माहौल में देशभर के सिनेमाघरों में नारेबाजी करते हुए दर्शकों के अभूतपूर्व दृश्य देखे गए हैं, इसने समुदायों के बीच की खाई को पाटने के बजाय और बढ़ा दिया है।

उन्होंने कहा कि कश्मीर पर चर्चा, जो दशकों से एक नाजुक और भावनात्मक मुद्दा रहा, को एक फिल्म के इर्द-गिर्द केंद्रित नहीं होना चाहिए, लेकिन इस बार ऐसा है। पीड़ित परिवारों के लोगों ने कहा कि आतंकवाद के घाव केवल एक समुदाय के बारे में नहीं हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘हम हमेशा भाईचारे के साथ रहे हैं। अगर हमारे पंडित भाइयों और बहनों को नुकसान हुआ है, तो हमें भी अपूरणीय क्षति हुई है। उन्होंने कहा, ‘‘कश्मीर उन दिनों हिंसा की ओर बढ़ रहा था, दिसंबर 1989 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का अपहरण एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने घाटी को हिंसा के गर्त में धकेल दिया। इसके बदले में पांच आतंकियों को छोड़ा गया।’’

उन्होंने कहा कि साल 1989 के अंत से 1990 के दशक के मध्य तक 16 प्रमुख राजनेताओं और प्रसिद्ध हस्तियों की इसी तरह हत्या कर दी गई। इनमें वाची के विधायक नजीर अहमद विलूरा, उनके पिता गुलाम कादिर, कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर मुशीर-उल हक और उनके निजी सहायक अब्दुल गनी जरगर के साथ-साथ दूरदर्शन के निदेशक लस्सा कौल और एच एल खेड़ा शामिल थे, जो सरकार संचालित एचएमटी की इकाई के प्रमुख थे।

प्रोफेसर हक के दामाद और दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में शिक्षक फुरकान कमर ने कहा, ‘‘32 साल एक लंबा समय है। प्रो. हक का अपहरण और हत्या रमजान के महीने के दौरान की गई थी, जो उस साल अप्रैल के महीने में था। इस साल यह फिर से अप्रैल में है।’’जेकेएलएफ की छात्र शाखा प्रतिबंधित जम्मू-कश्मीर स्टूडेंट्स लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों द्वारा छह अप्रैल, 1990 को हक का कश्मीर विश्वविद्यालय परिसर से जरगर के साथ अपहरण कर लिया गया था। पांच दिन बाद उनका गोलियों से छलनी शव हवाई अड्डे के पास एक नहर में मिला।

कमर ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ नहीं देखी है, लेकिन कहा कि इसमें हक या उनके सचिव ज़रगर या खेड़ा जैसे लोगों का कोई उल्लेख नहीं है, जो आतंकवादियों की गोलियों से मारे गए थे।

कमर ने कहा, ‘‘पीड़ितों में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे। उन्होंने कहा कि जिन लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा और जिन लोगों की जान चली गई, उनके परिवारों के पुनर्वास के लिए बहुत कुछ किया जा सकता था।

गुलाम नबी शाहीन नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) के प्रदेश अध्यक्ष थे। उन्नीस सौ नब्बे के दशक के मध्य में हुए आतंकवादी हमले में उनकी जान बच गई लेकिन बम धमाके में उन्हें अपना पैर गंवाना पड़ा। मारे गये 16 लोगों के नाम गिनाते हुए शाहीन ने पूछा, ‘‘ हम मुस्लिमों ने क्या गलत किया ? कश्मीरी पंडितों ने क्या गलत किया? इस्लाम के नाम पर युवकों को गुमराह किया गया। किसी को बेघर करना, चाहे वह हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई हो—कोई भी धर्म इसकी वकालत नहीं करता है। यह जिहाद का गलत चित्रण है।’’

इसी तरह अली मोहम्मद वाटाली कश्मीर के पहले पुलिस अफसर थे, जिन्हें पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों ने निशाना बनाया। वाटाली पर श्रीनगर के राजबाग स्थित उनके घर में घुसकर गोली बरसा दी गई थी। वाटाली ने मीडिया को कुछ नहीं बताया, लेकिन उन्होंने अपने ऊपर 17 सितंबर, 1988 को हुए हमले का अपनी किताब में जिक्र किया।

तेरह दिसंबर, 1990 को 95 वर्षीय मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी की गंदेरबल स्थित उनके घर में तब हत्या कर दी गई थी, जब वह कुरान पढ़ रहे थे। मसूदी जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर हस्ताक्षर करने वाले शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के बाद दूसरे व्यक्ति थे।

भाषा संतोष दिलीप

दिलीप

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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