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Friday, 22 November, 2024
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कांग्रेस में नहीं दिखती मुसलमानों के हित में फैसले लेने की काबिलियत

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बहुत सारी मंदिर यात्राओं के बाद, राहुल गांधी द्वारा मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग को आमंत्रित करने के कदम का स्वागत है लेकिन चुनावी रणनीति के संदर्भ में राहुल की बुधवार की पहल में स्पष्टता और 2019 से पहले उद्देश्य के बोध की कमी थी।

पने हालिया ‘टेंपल रन’ (मंदिर की यात्राओं) के बाद मुस्लिम मतदाताओं के साथ जुड़ना एक अच्छा विचार है लेकिन पादरी और समाज में गहरी पैठ वाले लोगों को हटाना अकथनीय है।

गेस्ट लिस्ट लिबरलों, वामपंथी बुद्धिजीवियों और पेशेवरों से भरी हुई थी जिनके पास एनडीए से नफरत करने का एक उभयनिष्ठ एजेंडा है, नेहरू-गांधी परिवार के लिए सहानुभूति है और सामाजिक वामपंथ (कल्याण उपायों) पर ध्यान केन्द्रित है। विरोधाभासी विचारों या कांग्रेस नेतृत्व को एक आईना दिखाने की गुंजाइश कम थी।

पहली नज़र में, समुदाय के उदारवादी, नरम और आधुनिक विचारों को मजबूती देना अच्छी बात है। लेकिन 2019 में अधिकाधिक वोट प्राप्त करने के लिए लालायित एक राजनीतिक दल द्वारा समुदाय के रूढ़िवादी वर्गों को अनदेखा या प्रथक करना एक चतुर राजनीति नहीं है।

कांग्रेस पार्टी पर बहुत ज्यादा दबाव हैं।

मुस्लिम समुदाय के लिए एक चिंता का विषय है (जो कि कई बार बढ़ा चढ़ा कर भी दिखाया जाता है) – एक तो पंचायत से लेकर संसद तक चुने गए मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या में गिरावट, और साथ ही उनके खिलाफ अन्य गौरतलब मुद्दे जिनमें उनकी हत्याओं का सिलसिला और गौ रक्षा कुछ एक हैं।

और अभी से काफी आवाजें जो कि इस बात का अंदेशा जाता रही हैं कि 2019 के चुनाव 80 प्रतिशत और 20 प्रतिशत की लड़ाई में तब्दील हो सकते हैं। ये बात तब उठी जब सोनिया गाँधी ने मुंबई में कहा की बीजेपी लोगों को विश्वास दिलाने में कामयाब हो गयी है कि कांग्रेस एक “मुसलमानों की पार्टी” है। वो इस बात की सफाई दे रही थी की राहुल गाँधी कई मंदिरों के चक्कर क्यूँ काट रहे हैं।

सच्चाई यह है कि भारतीय मुसलमान वफ़ादारी को बहुत तवज्जो देते हैं। यही कारण है की क्यों “आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड” तीन तलाक के खिलाफ इतने हस्ताक्षर करने में सफल हो पाया था और क्यों 10 लाख बुर्का पहने औरतें सड़क पर परेड के लिए एकत्रित हो गयी थी और किस तरह से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार को धारा 377 न हटाने के लिए बाध्य किया। कांग्रेस कई मुद्दों पर अपनी राय और मत स्पष्ट रूप से नहीं रख पाई है जैसे कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्नाह की तस्वीर का होना, साथ ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया और अन्य अल्पसंख्यक विश्व विद्यालयों में पहले से चल रहे आरक्षण का समर्थन।

जाहिर तौर पर, इन मुद्दों पर उलझन की शुरुआत कांग्रेस के दरवाजे से ही होती है जहाँ सरकारों ने जानबूझ कर इसको नहीं सुलझाया। उदाहरण के लिए, सरकारी फाइलें अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में एएमयू का वर्णन नहीं करतीं और कहेंगी “ कि माना जाता है कि भारत में मुस्लिमों द्वारा गठित की गयी थी” । इस बात का भी कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि क्यों लगातार कांग्रेस शासन मुस्लिम पर्सनल लॉ आवेदन अधिनियम, 1937 में सुधार या संशोधन में असफल रहा जिससे विवादास्पद मुद्दों जैसे गुमनामी, बहुविवाह और सहमति की उम्र की जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखी जा सकती थी।

दारुल कजा की निरंतरता और विस्तार के मुद्दे पर भी कांग्रेस का पक्ष अस्पष्ट रहता है। जबकि कर्नाटक में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ने इसे उचित कहा और इसका स्वागत किया है, जबकि केंद्रीय कांग्रेस नेतृत्व ने चुप रहना चुना है, हालांकि यह अपने पक्ष में कई तर्कों को रख सकते थे और साथ ही इसे दशकों तक क्यों बढ़ने की इजाजत मिली इस पर सवाल उठा सकते थे। शर्म की बात यह है कि, इतनी बड़ी और पुरानी पार्टी राजनीतिक हानि के डर से यह कहने की स्थिति में भी नहीं है कि एक गतिशील समाज में, समाज के भीतर से ही सामाजिक-धार्मिक सुधार आना चाहिए। यह शुतुरमुर्ग जैसा दृष्टिकोण कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ेगा।

कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम आरोप पत्र काफी लंबा है।

यूपीए ने खराब सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को इंगित करते हुए संचार आयोग की रिपोर्ट को अधिकृत और तैयार कर दिया है लेकिन स्थिति में सुधार बहुत कम हुआ। 1967 और 2002 के बीच, जब कांग्रेस ज्यादातर सत्ता में थी, 58 प्रमुख सांप्रदायिक दंगे हुए जिनमें कई हजार लोगों ने अपनी जान गंवा दी। जबलपुर, भागलपुर, हाशिमपुरा, भिवांडी, मुरादाबाद और माल्याना के अधिकांश अपराधी बिना दण्ड के छूट गए। दिसंबर 2006 में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि राष्ट्रीय संसाधनों पर अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों का पहला अधिकार है, लेकिन पूरे यूपीए शासन में पीएसयू बैंकों से ऋण प्राप्त करने के मामले में मुस्लिम नकारात्मक सूची में बने रहे।

कांग्रेस पार्टी प्रशासन राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और हर एक जगह हत्या की घटना होने पर एक मूक दर्शक बनी रही। पीड़ितों को कोई कानूनी सहायता नहीं दी गई थी और कोई कांग्रेस सेवा दल या एकता व्यक्त करते या जिला कलेक्टर के कार्यालय की तरफ बढ़ते घरेलू सद्भावना के सिपाही नहीं थे। इसके बजाय हमने पाया कि प्रेस विज्ञप्ति, टीवी स्टेटमेंट्स और ट्वीट्स जारी किए गये।

वर्तमान में कांग्रेस नेतृत्व किसी भी तरह हर एक चुनाव जीतने के लिए उत्सुक है। इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए, यह बहुसंख्यक समुदाय की अदालत में भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता है। साथ ही यह ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और मायावती की तरह अल्पसंख्यक अधिकारों का चैंपियन बनना नहीं चाहता। लेकिन जब मुसलमानों की बात आती है तो कांग्रेस किसी भी निर्णय को लेने में सक्षम नहीं दिखती।

राहुल को राजीव गांधी से सीख सीख लेनी चाहिए कि उन्होंने शाह बानो के मामले को कैसे संभाला था। उन्हें कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन राजीव ने पहले निर्णय का स्वागत किया और फिर मुस्लिम उलेमाओं की सुनवाई शुरू की, जिन्हें लगा कि निर्णय शरिया कानून के खिलाफ था। हालाँकि राजीव दुविधा में थे लेकिन तब तक 125 प्रमुख मुसलमानों, लिबरल्स और लेफ्ट विचारधारा की सदस्यता लेने वाले लोगों ने एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए, जिसमें राजीव ने जोर दिया कि सीआरपीसी की धारा 125 को नहीं बदला जाए और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का उनके पति और पूर्व पतियों से रखरखाव का दावा करने के अधिकार को संरक्षित किया जाए।

इनमें से कुछ हस्ताक्षरकर्ता थे- प्रोफेसर रईस अहमद, अली सरदार जाफरी, आबिद हुसैन, प्रोफेसर इरफान हबीब, ख्वाजा अहमद अब्बास, प्रोफेसर मूनिस रजा, प्रोफेसर रशीदुद्दीन खान, बदरुद्दीन त्याबजी, जावेद अख्तर, शबाना आजमी और सईद मिर्जा।

मुस्लिमों के लिबरल और रूढ़िवादी वर्गों के बीच में फँस कर राजीव घबरा गये। अंत में उन्होंने पुरोहित वर्ग का साथ दिया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए मुस्लिम महिलाओं (तलाकशुदा महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण) का बिल पारित करवाया। कांग्रेस के भीतर कुछ तत्व अभी भी उस कार्यवाही पर खेद व्यक्त करते हैं।
एक समुदाय को शामिल करना हमेशा अच्छा होता है लेकिन राजनीतिक मूल्य-विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है, खासकर जब महत्वपूर्ण आम चुनाव करीब होते हैं।

रशीद किदवई ओआरएफ के विजिटिंग फेलो, लेखक और पत्रकार हैं। यहां व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं।

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