नई दिल्ली: सांप्रदायिक झड़प की दो घटनाओं—एक मध्य प्रदेश के खरगोन में और दूसरी दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में—के बाद जिस तरह से प्रभावित क्षेत्रों में ध्वस्तीकरण अभियान चलाया गया है, उससे लगता है कि बुलडोजर का इस्तेमाल एक नया ट्रेंड बनता जा रहा है.
उत्तर पश्चिमी दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाके जहांगीरपुरी में बुधवार सुबह उत्तरी दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों की निगरानी में दुकानों, अस्थायी ढांचों और एक मस्जिद के गेट के बाहर बुलडोजर चलाया गया.
यह कदम दिल्ली भाजपा प्रमुख आदेश गुप्ता की तरफ से मंगलवार को उत्तरी दिल्ली के मेयर राजा इकबाल सिंह को एक पत्र लिखे जाने के बाद उठाया गया, जिसमें उनसे शनिवार को हनुमान जयंती रैली के दौरान जहांगीरपुरी में सांप्रदायिक हिंसा के बाद गिरफ्तार किए गए लोगों के ‘अवैध अतिक्रमण’ और निर्माण की पहचान करने को कहा गया था.
यद्यपि नॉर्थ एमसीडी मेयर राजा इकबाल सिंह ने ध्वस्तीकरण अभियान को ‘सामान्य नियमित प्रक्रिया’ का हिस्सा बताया है, वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मामला उठाते हुए इसे ‘पूरी तरह से असंवैधानिक और अवैध’ कार्रवाई बताया. इसके बाद कोर्ट ने मामले में ‘यथास्थिति’ बहाल रखने का आदेश दिया. अब मामले की सुनवाई गुरुवार को होगी.
इस माह के शुरू में मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में रामनवमी जुलूस के दौरान एक सांप्रदायिक झड़प भी हुई थी, जिसके बाद आसपास के क्षेत्र में ‘अवैध अतिक्रमण’ हटाने के लिए बुलडोजर चलाया गया था. और जिला प्रशासन का दावा था कि इस अभियान का उद्देश्य ‘दंगाइयों और हिंसा की घटना से प्रभावित लोगों को एक संदेश भेजना’ था.
आखिर अवैध अतिक्रमण हटाने की सही प्रक्रिया क्या है, और क्या दंगों के खिलाफ इस तरह का ध्वस्तीकरण अभियान एक उपयुक्त प्रतिक्रिया है? दिप्रिंट यहां ध्वस्तीकरण अभियान से जुड़े कानूनी प्रावधानों की व्याख्या कर रहा है.
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अवैध कब्जा हटाने की प्रक्रिया क्या है
सरकार कुछ परिस्थितियो में किसी की निजी संपत्ति को ध्वस्त कर सकती है. इनमें सरकारी जमीन पर अनाधिकृत निर्माण, किसी और की संपत्ति पर अतिक्रमण वाली इमारतें या नियमों का उल्लंघन करके बनाए गए ढांचे शामिल होते हैं.
वैसे, देशभर के नगर निगमों को ऐसे निर्माणों को ध्वस्त करने का अधिकार हासिल है, लेकिन विभिन्न राज्यों में इससे पूर्व अलग-अलग नियमों का पालन किया जाना होता है.
उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश—जहां खरगोन जिले में रामनवमी पर झड़पों के बाद ‘अवैध अतिक्रमण’ के खिलाफ बुलडोजर अभियान चला था—में मध्य प्रदेश भूमि विकास नियम 1984 के नियम 12 में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को नोटिस भेजा जाना चाहिए, जिसकी संपत्ति नियमों का उल्लंघन करती है. नोटिस पाने वाले को या भवन छोड़ने या उसे नियमों के अनुरूप बनाने के लिए कम से कम 10 दिनों की मोहलत दी जानी चाहिए.
उल्लेखनीय है कि यद्यपि खरगोन जिला प्रशासन के अधिकारियों ने कहा कि जिनके घरों और दुकानों को तोड़ा गया था, उन्हें पूर्व में नोटिस दिया गया था, जबकि रिपोर्टों में दावा किया गया है कि ऐसा नहीं किया गया था.
इसी तरह, दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 की धारा 343 में भी अवैध ढंग से, बिना मंजूरी के, या भवन उपनियमों का उल्लंघन करके बनाए गए किसी भी भवन या ढांचे को गिराने से पहले नोटिस देने का प्रावधान है.
इस धारा के मुताबिक, आयुक्त मालिक या इसमें रहने वाले को इमारत गिराने के लिए पांच से 15 दिनों का नोटिस दे सकता है. ऐसा न होने पर आयुक्त स्वयं भवन को गिराने का आदेश दे सकता है.
हालांकि, नियम स्पष्ट तौर पर यह भी निर्देशित करते हैं कि ‘तब तक ध्वस्तीकरण का कोई आदेश नहीं दिया जाएगा जब तक कि किसी व्यक्ति को नोटिस इस तरह से न दिया गया हो, जिसे आयुक्त उचित समझे, जो उसे ऐसा आदेश लागू न होने के कारण बताने का उचित अवसर देता हो.’
इसमें यह भी कहा गया है कि आयुक्त के आदेश से असंतुष्ट कोई भी व्यक्ति ध्वस्तीकरण आदेश में निर्धारित अवधि के भीतर अपीली न्यायाधिकरण में अपील दायर कर सकता है. जब ऐसी अपील दायर की जाती है, तो ट्रिब्यूनल आदेश के पालन पर रोक भी लगा सकता है.
विक्रेताओं के बारे में क्या कहता है कानून?
वेंडर्स के संबंध में तोड़फोड़ के नियम अलग हैं. 1957 के अधिनियम की धारा 322 में कहा गया है कि आयुक्त, बिना किसी सूचना के, किसी भी सार्वजनिक सड़क या सार्वजनिक स्थान पर बिक्री के लिए अवैध रूप से रखी गई किसी भी चीज को हटाने का आदेश दे सकता है. इसमें कोई स्टॉल, कुर्सी, बेंच, बॉक्स, सीढ़ी, वाहन, पैकेज बॉक्स, या कोई अन्य चीज शामिल हो सकती है जिस पर रखकर सामान बेचा जाता हो.
हालांकि, 1989 में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि दिल्ली की सड़कों पर फेरी लगाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत मौलिक अधिकार में शामिल है, अर्थात् किसी भी पेशे को अपनाने या कोई व्यवसाय, कारोबार या खरीद-फरोख्त करने की स्वतंत्रता एक अधिकार है, लेकिन ऐसा अधिकार असीमित नहीं है और अनुच्छेद 19(6) के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन है. इसलिए, कानून के तहत फेरी लगाने के नागरिकों के मौलिक अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं.
2010 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को इस पर कानून बनाने का निर्देश दिया था. 2013 में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच ने शहरी स्ट्रीट वेंडर्स पर 2009 की राष्ट्रीय नीति का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे व्यापारियों को शारीरिक रूप से बेदखल करने से पहले नोटिस दिया जाना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि नो-वेंडिंग जोन में भी विक्रेताओं को जगह खाली करने से पहले कम से कम कुछ घंटों की मोहलत दी जानी चाहिए.
इस फैसले के तुरंत बाद केंद्र की तरफ से स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) एक्ट, 2014 लाया गया. इस कानून ने संबंधित राज्य सरकारों को स्ट्रीट वेंडर्स के लिए एक योजना बनाने का मौका दिया.
दिल्ली स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) स्कीम 2019 को अप्रैल 2019 में अधिसूचित किया गया था. इसमें कहा गया है कि यदि किसी स्ट्रीट वेंडर के पास सर्टिफिकेट नहीं है और सर्टिफिकेट के बिना वह अपना सामान बेच रहा है तो ऐसे वेंडर्स को 30 दिन के भीतर वह जगह छोड़ने का नोटिस दिया जा सकता है. इसमें 15वें दिन एक अतिरिक्त रिमाइंटर नोटिस भी दिया जा सकता है.
यदि दो नोटिसों के बाद कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती है, तो नोटिस को स्पष्ट तौर पर वेंडिंग की जगह पर चिपकाया जाना होता है. बेदखली को लेकर जारी नोटिस में बेदखली के औचित्य और इसके खिलाफ अपील की प्रक्रिया का जिक्र अवश्य होना चाहिए.
यह भी जरूरी है कि टाउन वेंडिंग कमेटी इन विक्रेताओं को बेदखल करने का निर्णय लेने से पहले उनके मौखिक अनुरोधों पर विचार करे. बेदखल करने के निर्णय के मामले में विक्रेता को 15 दिनों के भीतर किसी भी सामान को हटाकर साइट खाली करने के लिए कहा जाना है. इस योजना में विक्रेता के बनाए ढांचे को ध्वस्त करने की प्रक्रिया भी निर्धारित की गई है: इसे तभी ध्वस्त किया जा सकता है जब विक्रेता नोटिस अवधि की समाप्ति के बाद भी संबंधित जगह को खाली करने में नाकाम रहे, और इसके बाद भी ढांचे को सुरक्षित रूप से गिराने के लिए तीन दिन के नोटिस का पालन करना अनिवार्य है.
नोटिस तामील नहीं होने पर अदालतों का क्या रहा है रुख
2010 के एक फैसले में दिल्ली हाई कोर्ट ने संबंधित पार्टी को कारण बताओ नोटिस भेजे जाने को एक ‘अनिवार्य व्यवस्था’ के तौर पर वर्णित किया है.
कोर्ट ने कहा, ‘इससे पहले कि विभाग यानी एमसीडी किसी संबंधित पक्ष के खिलाफ एक ध्वस्तीकरण आदेश पारित करे, संबंधित व्यक्ति को कारण बताओ नोटिस दिया जाना अनिवार्य है.’
सुप्रीम कोर्ट ने भी अवैध ढांचा गिराए जाने से पहले नोटिस जारी करने के महत्व को रेखांकित किया है.
उदाहरण के तौर पर 2008 के एक फैसले में शीर्ष कोर्ट ने नगर निगमों की तरफ से इस तरह के नोटिस देने की जरूरत पर बल दिया. पंजाब सिविल म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट—जो डीएमसी अधिनियम की धारा 343 के समान है—में कारण बताओ नोटिस की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘अधिनियम की धारा 269 में संलग्न प्रावधान ध्वस्तीकरण का आदेश पारित होने से पहले सुनवाई का एक अवसर देने की कोई निश्चित शर्त नहीं रखते हैं. यह चारित्रिक तौर पर अनिवार्य है लेकिन उक्त प्रावधान का पालन नहीं किया गया है.’
इसमें आगे कहा गया गया, ‘यदि प्रतिवादी को पहले उचित कारण बताओ नोटिस दिया गया होता, तो वह दर्शा सकता था कि कानूनी प्रावधानों का कथित उल्लंघन नगण्य चरित्र का है, जिसके लिए ध्वस्तीकरण का वारंट जारी करने की जरूरत नहीं थी.’
2019 में पारित एक अन्य फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के ध्वस्तीकरण के लिए सही प्रक्रिया का पालन करने की जरूरत बताई थी.
महाराष्ट्र के इस मामले, जिसमें नगर निगम शामिल था, में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई संरचना अवैध थी, और यदि अधिकारियों ने इसे ध्वस्त करने की प्रक्रिया का पालन नहीं किया है, तो कुछ मुआवजा दिया जा सकता है.
कोर्ट ने जोर देकर कहा, ‘ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया जो कि इस देश के नागरिकों की संपत्ति को प्रभावित करती है, में कानूनी शक्तियों का उपयोग बिल्कुल निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए. इस संबंध में नियमों का पूरी तरह पालन किया जाना चाहिए.’
2017 में एक अन्य फैसले में दिल्ली की एक जिला कोर्ट ने सैनिक फार्म में अशोक सिक्का का घर अवैध रूप से ध्वस्त करके ‘सत्ता की ताकत का स्पष्ट दुरुपयोग’ करने के लिए एमसीडी अधिकारियों को फटकार लगाई थी. अदालत ने तब उनके लिए एक गुणवत्तापूर्ण घर बनाने या एक महीने के भीतर 1.5 करोड़ रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था.
इसने दक्षिण दिल्ली नगर निगम (एसडीएमसी) को ‘प्रतिष्ठा, आवास और कीमती सामान’ के नुकसान की एवज में मालिक को 50 लाख रुपये का मुआवजा देने को भी कहा था.
कोर्ट ने पाया था कि शिकायतकर्ता को ‘परिसर खाली करने का कोई नोटिस नहीं’ दिया गया था, जबकि कब्जे वाली संपत्ति के ध्वस्तीकरण के संबंध में ‘डीएमसी अधिनियम, 1957 की धारा 343 के तहत इस तरह का नोटिस जारी करना एमसीडी की एक मानक प्रक्रिया का हिस्सा है.’
क्या दंगे के आरोपियों की संपत्ति गिराना जायज है
ऐसा कोई कानून नहीं है जो सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने या दंगा करने के आरोपी की संपत्ति को नष्ट करने की अनुमति देता हो.
सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में दो महत्वपूर्ण आदेश पारित किए हैं—एक 2009 में और दूसरा 2018 में.
2009 के फैसले में कहा गया था कि चूंकि हिंसा के कारण नुकसान की भरपाई के लिए कोई कानून नहीं है, इसलिए हाई कोर्ट सार्वजनिक संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाए जाने की घटनाओं पर स्वत: संज्ञान ले सकते हैं और जांच और मुआवजे के लिए एक मैकेनिज्म बना सकते हैं.
दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया था कि हाई कोर्ट के किसी मौजूदा या सेवानिवृत्त न्यायाधीश को तब नुकसान का अनुमान लगाने और दायित्व की जांच करने के लिए ‘दावा आयुक्त’ के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है.
इस हफ्ते के शुरू में मुंबई स्थित इस्लामिक संगठन जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी किसी दंडात्मक उपाय के तौर पर आवासीय या व्यावसायिक संपत्तियों पर बुलडोजर चलाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी.
याचिका में कहा गया है, ‘कथित अपराधियों की संपत्तियों नष्ट करने जैसे साधनों का सहारा लेना हमारी संवैधानिक व्यवस्था और आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ-साथ आरोपी व्यक्तियों के अधिकारों का भी उल्लंघन है.’
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