उत्तराखंड में नई सरकार के गठन के बाद मंत्रिमंडल की हुई पहली बैठक में राज्य में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लागू करने के प्रस्ताव को पारित करते हुए पैनल गठन को मंजूरी दे दी. इसके साथ ही न सिर्फ उत्तराखंड राज्य में बल्कि पूरे देश में एक बार फिर यूसीसी बहस के केंद्र में है. अभी कुछ ही दिन पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में यूसीसी (सामन नागरिक संहिता) को लेकर दायर एक याचिका के जवाब में पेश हलफनामे में केन्द्र सरकार ने कहा कि विभिन्न धर्म संप्रदाय के लोगो का संपत्ति और विवाह संबंधी अलग-अलग कानूनों (पर्सनल लॉ) का पालन करना देश की एकता का अपमान है. केन्द्र ने आगे कहा कि समान नागरिक संहिता भारत को एकीकृत करने का काम करेगी. सरकार विधि आयोग की रिपोर्ट मिलने के बाद संहिता बनाने के मामले में हितधारकों से विचार-विमर्श करके इसकी पड़ताल करेगी. सरकार के मुताबिक यह मामला अहम और संवेदनशील है. लिहाजा इसके लिए गहन अध्ययन करने की दरकार है. (अमर उजाला 9 जनवरी 2022)
ऐसा नही है कि यूसीसी से संबंधित यह कोई पहली और नई बहस है समय समय पर समान नागरिक संहिता को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ती रही है.
संविधान निर्माण के समय भी इस पर काफी बहस हुई थी, जिसके उपरान्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 (डायरेक्टिव प्रिंसिपल) के तहत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया कि वह सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करें. समय समय पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायलय द्वारा समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल देते हुए सरकार से इसके लिए आग्रह किया जाता रहा है किन्तु सरकार की ओर से अब तक इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.
जब कभी भी सरकार या समाज में इसकी बहस शुरू होती है मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले उच्च अशराफ वर्ग की ओर से इसे मुसलमानो के धार्मिक मामले में हस्तक्षेप और इस्लाम के विरुद्ध बताकर, इस पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जाता रहा है और फिर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यूसीसी लागू होने से मुसलमानों के साथ अन्याय होगा.
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समान नागरिक संहिता के खिलाफ गलत प्रचार
पसमांदा एक्टिविस्ट एवं महिला मौलाना कहकशां वकार कहती हैं कि ऐसा बहुत सा दुष्प्रचार भी किया जाता रहा है कि यूसीसी लागू होने से मुसलमान अपने मुर्दे को दफन नहीं कर पाएंगे उन्हें जलाना पड़ेगा, शादी विवाह में हिन्दू रस्म रिवाज मानना पड़ेगा, टोपी नही पहन पाएंगे, उनका ईमान यकीन बर्बाद हो जायेगा आदि आदि.जबकि देखा जाए तो समान नागरिक संहिता केवल शादी विवाह, संबंध विच्छेद, भरण पोषण, विरासत और उत्तराधिकार आदि जैसे मामले में ही देश के सभी नागरिकों के लिए समानता का प्रावधान की बात करता है जो न सिर्फ मुसलमानो से बल्कि इस देश में बसने वाले हिन्दू समाज (हिन्दू,सिख,बौद्ध,जैन, लिंगायत) अन्य अल्पसंख्यक और बहुत से आदिवासी समाज से भी संबंधित है. यहां यह गौरतलब है जब पूरे भारतीयों पर समान रूप से लागू होने वाले क्रिमिनल लॉ से किसी मुसलमान के ईमान यकीन पर आंच नहीं आता है तो शादी विवाह, संबंध विच्छेद, भरण पोषण, विरासत और उत्तराधिकार आदि जैसे मामले में अगर एक समान कानून बनता है तब कैसे किसी का इस्लाम खतरे में आ जायेगा?
शरिया ईश्वरीय नहीं, इसमें संशोधन की गुंजाइश
एक और तर्क दिया जाता है कि शरीयत (शरिया लॉ) में सुधार ही गुंजाइश नहीं है और इसका अक्षरशः पालन अनिवार्य है और मुसलमानों के लिए उनका पर्सनल लॉ शरिया लॉ पर आधारित होना चाहिए. यहां सवाल यह उठता है कि क्या शरिया दैवीय हैं? इस्लामी शरिया कानून इस्लामी विद्वानों द्वारा कुरआन और मुहम्मद (स०) के कथनों एवं क्रियाकलापों (हदीस) के आधार पर समय समय पर बनाया जाता रहा है और उसमें संशोधन भी होता रहा है इसलिए शरिया कई एक प्रकार के हैं और इनकी विभिन्न टीकाएं भी हैं. जाहिर है कि शरिया मानव निर्मित है न की ईश्वरीय या दैवीय जैसा कि प्रचार किया जाता रहा है. और समयनुसार इसमें संशोधन की पूरी गुंजाइश भी रहती है.
एक ऐतिहासिक उदाहरण है कि खलीफा उमर के समय भयंकर अकाल पड़ा जिस कारण उमर ने चोरी की सजा हाथ काटने को स्थगित कर दिया, ज्ञात रहें कि यह सजा कुरआन में वर्णित है फिर भी समयानुसार लोक हित में खलीफा उमर ने इस सजा को कुछ समय के लिए स्थगित करना उचित समझा.
विदेशी अशराफ और देशज पसमांदा में फर्क
पर्सनल लॉ के पक्ष में एक दलील यह भी दी जाती है कि इससे मुसलमान अपनी सभ्यता, संस्कृति और परम्परा को संरक्षित रखता है. इस आधार पर देखें तो स्वघोषित विदेशी अशराफ और देशज पसमांदा में मूलभूत अंतर है. पसमांदा की भाषा, भेष-भूषा, सभ्यता, मान्यता, संस्कार, संस्कृति, आचार-विचार, व्यवहार आदि भारतीय क्षेत्र विशेष आधारित है जो अशराफ मुस्लिमो से सर्वथा भिन्न है. चेन्नई का पसमांदा श्रीनगर के पसमांदा से, अहमदाबाद का पसमांदा कोलकाता के पसमांदा से पुणे का पसमांदा वाराणसी के पसमांदा से भिन्न होता है, जबकि चेन्नई, श्रीनगर, अहमदाबाद, कोलकाता, पुणे और वाराणसी का अशराफ एक जैसे होते हैं. शेरवानी पहनतें हैं उर्दू बोलते हैं, और बिरयानी खाते हैं जबकि पसमांदा स्थानीय वस्त्र धारण करता है स्थानीय भाषा बोलता है, और स्थानीय व्यंजन खाता है. कल्चर प्रिजर्व करने के नाम पर या इस्लाम के नाम पर अरबी/ईरानी कल्चर को देशज पसमांदा मुसलमानों पर क्यों थोपा जाय? आम खाने वाले लोगो पर खजूर खाने का दबाव क्यों? देशज पसमांदा के देसी कल्चर को प्रिजर्व करने की बात क्यों न हो? जबकि इस्लाम में वर्णित सिद्धांत ‘उर्फ’ ने किसी भी क्षेत्र विशेष के रस्म व रिवाज के पालन करने की छूट इस शर्त के साथ दिया है कि वो इस्लाम के मूल सिद्धांत से ना टकराते हों.
अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह को गैर इस्लामी मानना गलत
दूसरी बात यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रकाशित पर्सनल लॉ से संबंधित पुस्तक ‘मजमुए कवानीने इस्लामी’ अंतरजातिय एवं अंतरधार्मिक विवाह को गैर इस्लामी मानते हुए मुसलमानों के लिए अवैध करार दिया है जो एक भारतीय नागरिक को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार का सीधा सीधा हनन है. क्या एक सेक्युलर देश में किसी धर्म विशेष द्वारा किसी समुदाय विशेष को इस तरह के असंवैधानिक कृत्य के लिए बाध्य किया जा सकता है?
मालूम होता है कि हमेशा की तरह इस मामले में भी शासक वर्गीय अशराफ वर्ग का द्विराष्ट्र सिद्धांत के तहत अलग पहचान बनाकर इस्लाम और मुसलमान नाम पर अपने निजी सत्ता एवं वर्चस्व का संरक्षण ही उद्देश्य है जिसका भुगतान देश और देशज पसमांदा मुसलमान करते आ रहें हैं. देशज पसमांदा समाज को यह सोचना होगा कि देश संविधान से चलेगा या शरिया से?
देशज पसमांदा मुस्लिमों का पक्ष सुना जाए
केन्द्र सरकार द्वार दाखिल हलफनामे में इस मुद्दे को अहम और संवेदनशील मानते हुए इसके लिए गहन अध्ययन और हितधारकों से विचार-विमर्श की बात कही गई है. देशज पसमांदा जो कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 90% हिस्सा है एक बड़ा हितधारक समाज है, इसलिए इस मामले में देशज पसमांदा मुसलमानों के पक्ष को भी जानना समझना देश और समाज के हित में उचित होगा, मुस्लिम नाम पर सिर्फ संभ्रांत शासक वर्गीय अशराफ मुसलमानों से वार्तालाप काफी नहीं होगा.
भारत की सभी राजनैतिक पार्टियों और सरकार को यह बात साफ साफ समझ लेनी चाहिए कि भारत में मुसलमान का मतलब देशज पसमांदा होता है, अशराफ नहीं, जब तक वो इस गलतफहमी में रहेगें तब तक वो अशराफ का भला करके इस मुगालते में रहेंगे कि वो पसमांदा का भला कर रहें हैं.
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं)
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