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Thursday, 25 April, 2024
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समान नागरिक संहिता: डॉ. अम्बेडकर, केएम मुंशी, एके अय्यर ने संविधान सभा में की थी जोरदार पैरवी

23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में कुछ मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को अस्वीकार कर दिया गया. संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान किया.

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नई दिल्ली: हमारे देश में हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है. 26 नवंबर, 1949 को हमारी संविधान सभा ने उस संविधान को स्वीकार किया था जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर हुई बहस सबसे दिलचस्प बहसों में से एक है.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी हाल ही में एक टिप्पणी करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन किया और केंद्र से इसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए भी कहा.

अदालत ने कहा, ‘यह राज्य की जिम्मेदारी है वह देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता हासिल लागू करे और नि:स्संदेह, उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है.

संविधान सभा में

23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई. पहले मुस्लिम सदस्यों ने बात की और अनुच्छेद 35 जिसमें देश में समान नागरिक संहिता होने से संबंधित प्रावधान शामिल थे, को लेकर कई संशोधनों के प्रस्ताव दिए. प्रस्ताव देने वालों में मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम कुछ ऐसे सदस्य थे जिन्होंने इन संशोधनों को पेश किया.

नज़ीरुद्दीन अहमद ने यह कहते हुए संशोधन पेश किया कि अनुच्छेद 35 में निम्नलिखित प्रावधान जोड़ा जाए
‘बशर्ते कि किसी भी समुदाय का पर्सनल लॉ है, जिसे क़ानून द्वारा गारंटी दी गई है, उस समुदाय की पूर्व स्वीकृति के बिना उसे नहीं बदला जाएगा. इस स्वीकृति को प्राप्त करने के लिए कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया जाएगा.

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अहमद ने इस बहस में भाग लेते हुए कहा कहा, ‘मैं अपनी टिप्पणी को केवल मुस्लिम समुदाय को होने वाली असुविधा तक सीमित नहीं रखना चाहता. मैं इसे बहुत व्यापक आधार पर रखूंगा. वास्तव में, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक मत के अनुयायियों के कुछ पंथिक कानून होते हैं, कुछ नागरिक कानून पंथिक विश्वासों और प्रथाओं से अविभाज्य रूप से जुड़े होते हैं. मेरा मानना है कि एक समान नागरिक संहिता से इन पंथिक कानूनों या अर्ध-पंथिक कानूनों को दूर रखा जाना चाहिए.’

विरोध-प्रतिवाद

एक और संशोधन पेश करते हुए तत्कालीन मद्रास से संविधान सभा में आए एक मुस्लिम सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने कहा, ‘महोदय, मैं प्रस्ताव करता हूं कि अनुच्छेद 35 में निम्नलिखित प्रावधान जोड़ दिया जाए: बशर्ते कि किसी भी समूह, वर्ग या समुदाय के लोगों को ऐसा कानून होने की स्थिति में अपना निजी कानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.’

इस्माइल ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए समान नागरिक संहिता का विरोध किया. उन्होंने कहा, ‘एक समूह या समुदाय का अपने निजी कानून का पालन करने का अधिकार मौलिक अधिकारों में से है और यह प्रावधान वास्तव में वैधानिक और न्याय संगत मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए. इसी कारण से मैंने अन्य मित्रों के साथ इससे पूर्व के कुछ अन्य अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, जिन्हें मैं उचित समय पर उपस्थित करूंगा. अब पर्सनल लॉ का पालन करने का अधिकार उन लोगों के जीवन के तरीके का हिस्सा है जो ऐसे कानूनों का पालन कर रहे हैं; यह उनके मत का हिस्सा है और उनकी संस्कृति का हिस्सा है. यदि व्यक्तिगत कानूनों को प्रभावित करने वाला कुछ भी किया जाता है, तो यह उन लोगों के जीवन के तरीके में हस्तक्षेप के समान होगा जो पीढ़ियों और युगों से इन कानूनों का पालन कर रहे हैं. यह पंथनिरपेक्ष राज्य जिसे हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसे लोगों के मत और पंथ में हस्तक्षेप करने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिए.’

इन सभी तर्कों का प्रतिवाद डॉ. बीआर अंबेडकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (केएम मुंशी) और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर द्वारा प्रस्तुत किया गया था.


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अंबेडकर की पैरवी

देश के लिए समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए आंबडेकर ने कहा, ‘मुझे लगता है कि मेरे अधिकांश मित्र जिन्होंने इस संशोधन पर बात की है, वे यह भूल गए हैं कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था. इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यह पालन इतना व्यापक और मजबूत था कि अंतत: 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में आना पड़ा और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों के लिए हिंदू कानून को निरस्त कर उन पर शरीयत कानून लागू किया गया.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे इस मामले में उनकी भावनाओं का एहसास है, लेकिन मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित हो रहे हैं. यह अनुच्छेद केवल यही प्रस्तावित करता है कि राज्य, देश के नागरिकों के लिए नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.’

केएम मुंशी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए बहुत ही दिलचस्प बात कही, ‘… उन नुकसानों को देखें जिनमें नागरिक संहिता नहीं होने पर वृद्धि होगी. उदाहरण के लिए हिंदुओं को लें. हमारे पास भारत के कुछ हिस्सों में ‘मयूख’ कानून लागू है; हमारे पास दूसरे कुछ हिस्सों में ‘मीताक्षरा’ कानून; और हमारे पास बंगाल में ‘दयाबाघ’ नामक कानून है. इस प्रकार स्वयं हिन्दुओं के भी अलग-अलग कानून हैं और हमारे अधिकांश प्रांतों ने अपने लिए अलग-अलग हिन्दू कानून बनाना शुरू कर दिया है. क्या हम इन टुकड़े-टुकड़े कानूनों को इस आधार पर अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है? इसलिए यह केवल अल्पसंख्यकों का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है.’

खुद इस्लामी शासकों में से एक का उदाहरण लेते हुए उन्होंने आगे कहा, ‘ब्रिटिश शासन के तहत मन का यह रवैया कि पर्सनल लॉ मत/पंथ का हिस्सा है, को अंग्रेजों और ब्रिटिश अदालतों द्वारा बढ़ावा दिया गया है. इसलिए हमें इससे आगे बढ़ कर इसे छोड़ देना चाहिए. अगर मैं माननीय सदस्य को याद दिला दूं … तो अलाउद्दीन खिलजी ने कई बदलाव किए, जो शरीयत के खिलाफ थे, हालांकि वह यहां मुस्लिम सल्तनत की स्थापना करने वाले पहले शासक थे.

दिल्ली के काजी ने उनके कुछ सुधारों पर आपत्ति जताई, और उनका उत्तर था- ‘मैं एक अज्ञानी व्यक्ति हूं और मैं इस देश के सर्वोत्तम हित में शासन कर रहा हूं. मुझे यकीन है, मेरी अज्ञानता और मेरे अच्छे इरादों को देखते हुए, सर्वशक्तिमान मुझे माफ कर देंगे, जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने शरीयत के अनुसार काम नहीं किया है.’ ‘यदि अलाउद्दीन ऐसा नहीं कर सकता है, तो आधुनिक सरकार इस प्रस्ताव को तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकती है कि पंथिक अधिकारों के दायरे में व्यक्तिगत कानून या कई अन्य मामले आते हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से हमें अपने पंथ अथवा मत के हिस्से के रूप में मानने के लिए प्रशिक्षित किया गया है.’ 

पक्ष में बोले एके अय्यर

एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलते हुए और मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का विरोध करते हुए अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा कि एक आपत्ति यह दर्ज की गई है कि कि समान नागरिक संहिता से समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा, जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. समान नागरिक संहिता के पीछे विचार यह है कि अपसी मतभेदों को बढ़ावा देने वाले कारकों को समाप्त किया जाए.

बहस के अंत में, कुछ मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को अस्वीकार कर दिया गया. संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान किया.

(लेखक आरएसएस से जुड़े थिंक-टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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