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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतवह दिन दूर नहीं जब नदियों और समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा

वह दिन दूर नहीं जब नदियों और समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा

2050 तक 821 मिलियन मिट्रिक टन प्लास्टिक कचरा नदी और समुद्रों में जमा हो जाएगा और 850 मिट्रिक टन माइक्रोप्लास्टिक हमारी नालियों, नदियों और समुद्र में घुल जाएगा. यानी मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा.

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बहुत जल्दी हमारी नदियों और समुद्रों में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा, हमारे प्लास्टिक फुटप्रिंट ने निमो और डोरी को मार दिया है.

पहली यह कि एक जुलाई से देशभर में सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगने जा रहा है और दूसरी यह कि 2019 से लागू प्लास्टिक कचरा आयात पर रोक आंशिक तौर पर हटा ली गयी है.

मात्र घोषणाओं से उत्साहित हो जाने वाले अति आशावादी लोगों ने पहली खबर को पढ़ा होगा और दूसरी उन तक पहुंची ही नहीं होगी. यह खबर हमारे दोगलेपन को उजागर करती है कि कैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कार्बन क्रेडिट का गाना गाते-गाते हम पूरी बेशर्मी के साथ प्लास्टिक क्रेडिट में आगे हो गए.

पहले चीन, जापान, इटली से आने वाले प्लास्टिक कचरे पर एक नजर डाल लीजिए. पीएटी यानी पॉलीथिलीन टेरेपैथलेट Polyethylene Terephthalate के रूप में ढेर सारा कूड़ा भारत आता है, (एक टन प्लास्टिक से एक मिलियन कैरी बैग बनता है.) पीएटी को रिसाइकिल किया जा सकता है.

अब इस रोचक तथ्य पर ध्यान दीजिए – भारत की प्लास्टिक निर्माता कंपनियों ने सरकार से कहा कि देश में रिसाइकिल करने के लिए वेस्ट मटेरियल पर्याप्त नहीं हो रहा इसलिए बाहर से मंगाने की अनुमति दी जानी चाहिए और कंपनियों की मांग पर भोले भाले केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने अनुमति दे दी.

इस तथ्य से आप भयावहता का अंदाजा लगाइए कि भारत में हर साल 13 मिलियन टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है इसमें मात्र 4 मिलियन टन को रिसाइकिल किया जाता है और 2.8 मिलियन टन को कभी इक्टठा नहीं किया जा सकता है. इस इक्टठा नहीं किया जा सकता, का मतलब है हर साल 2.8 मिलियन टन प्लास्टिक हमारी मिट्टी, खेतों, जानवरों, नालियों और नदियों का हिस्सा बन जाता है. यह आंकड़ा हर साल बढ़ रहा है और बैन इस आधार पर हटाया गया कि प्लास्टिक कचरा ज्यादा नहीं हो रहा.भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है जिसने प्लास्टिक कचरा आयात पर लगी रोक को हटाया है.

वैसे आंकड़ें हमे ज्यादा विचलित नहीं करते फिर विश्व बैंक हमें बता रहा है कि हर साल आठ मिलियन टन प्लास्टिक वेस्ट जमीन से समुद्र में चला जाता है और उसके मार्फत जलीय जीवों में. 2050 तक 821 मिलियन मिट्रिक टन प्लास्टिक कचरा नदी और समुद्रों में जमा हो जाएगा और 850 मिट्रिक टन माइक्रोप्लास्टिक हमारी नालियों, नदियों और समुद्र में घुल जाएगा. यानी मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा. जिन्हें यह तथ्य फिल्मी नजर आ रहा है वे कानपुर की गंगा, भागलपुर का इलाका या कोलकाता की भेरी को गूगल कर लें.


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प्लास्टिक बैन की पहले भी हो चुकी हैं कोशिशें 

अब उस महान खबर पर आते है जिसमें कहा गया है कि एक जुलाई से सिंगल यूज प्लास्टिक पर राष्ट्रव्यापी बैन लगा दिया जाएगा. पहले भी कई राज्य प्लास्टिक बैन पर कानून पास कर चुके हैं. तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों ने पहले ही प्लास्टिक बैन को कागजों पर सख्ती से लागू कर रखा है. तमिलनाडु ने तो अवैध कैरी बैग बनाने वाले कारखानों का पता बताने पर इनाम की घोषणा की लेकिन वास्तविकता क्या है सब जानते हैं. दिल्ली में भी प्लास्टिक बैन की पहले कई कोशिशें हो चुकी है.

व्यावहारिक समस्या है इसे लागू करने वाली ऐजेंसी कौन होगी- स्थानीय निकाय या पुलिस के हाथ में इसे देना भ्रष्टाचार का एक और रास्ता खोलने जैसा होगा. दूसरी व्यावहारिक समस्या है विकल्प, सिर्फ रोक लगाने से कुछ नहीं होगा जब तक लोगों को उसका विकल्प ना दिया जाए. प्लास्टिक बोतल की जगह बांस की बोतल के उपयोग की सलाह, कीमत के स्तर पर हास्यास्पद और निहायत अव्यवाहारिक है. तीसरी समस्या है नीयत की- बैन नीति की नियति नियंता की नीयत पर निर्भर करती है, बानगी देखिए, जिन बीस समानों पर एक जुलाई से बैन लगने वाला है उनमें बिसलरी की बोतल शामिल नहीं है. उसमें पैकिंग मटेरियल, एयर बड्स, प्लेट, कप, कटलरी, स्ट्रा जैसे आईटम शामिल हैं, इनमें सिर्फ स्ट्रा का बाजार ही 790 मिलियन डालर का है.
स्ट्रा के अलावा लिस्ट में मौजूद ज्यादातर आइटम फुटकर बाजार में बनता और बिकता है. इसका मतलब है आपके मोहल्ले के समोसे वाले अंकल को चटनी पैक करने की मनाही है लेकिन अंकल चिप्स के पैकेट पर कोई रोक नहीं.

कुल मिलाकर डंडे से नहीं राष्ट्रीय जागरूकता और स्थानीय सामाजिक कोशिशों से ही प्लास्टिक पर रोक लग सकती है.

पिछले साल रिटार्यड सैन्य कर्मियों की संस्था अतुल्य गंगा ने गंगा की परिक्रमा की, सैनिकों का एक दल सात माह तक गंगा के दोनों किनारों पर चला, उन्होंने स्थानीय प्याऊ और हैंडपंप का पानी पिया और कहीं भी पानी की बोतल का उपयोग नहीं किया और ऐसा ही करने की अपील गंगा पथ के स्कूलों में जाकर की. सात माह की इस यात्रा में करीब दस हजार पानी की बोतलों की आवश्यकता होती. बेशक इस विकराल समस्या के आगे यह कोशिश चुल्लू भर ही है लेकिन समाज इन्ही चुल्लू भर कोशिशों से ही बदलेगा. सरकारी नीतियों और डंडों से नहीं.

समुद्र में निमो और डोरी दोनों खो गए हैं, डिजनी फिल्म्स के हैप्पी एंडिंग की तरह वे अंत में नहीं मिलेंगे, हमने उन्हें मार दिया है, अपना प्लास्टिक खिलाकर. हम बच नहीं सकते, हमारे बच्चों की अदालत में हम पर निमो और डोरी को मारने का मुकदमा चलेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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