दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने हेतु आम आदमी पार्टी के आंदोलन पर राजनीति के बजाय योग्यता पर बहस की जानी चाहिए।
आपको लगेगा है कि यह आपराधिक है कि दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति को कर्मचारियों की कमी का सामना करना पड़ता है जबकि दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है।
मैंने आम आदमी पार्टी के एक सदस्य से पूछा कि अरविन्द केजरीवाल शासन के बारे में आप लोग जो अति-प्रचार करते हैं उसे एक अच्छे शासन के रूप में कैसे गिना जा सकता है। जवाब था कि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने भर्ती को रोक दिया गया है। अगर हम लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय से पूछते हैं, तो उनका एक अलग ही जबाव होगा।
2017 की सर्दियों में केंद्रीय पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) द्वारा दिल्ली में प्रदूषण-रोधी योजना के कार्यान्वयन में काफी विलंब देखा गया था। इस योजना को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर बड़ी सुस्ती के साथ तैयार किया गया था। 16 अलग-अलग सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय की आवश्यकता के चलते दिल्ली-एनसीआर में इसके क्रियान्वयन में विलंब हुआ था।
न तो यहां और न ही वहां
वायु प्रदूषण इसके कई उदाहरणों में से एक है कि कैसे दिल्ली शहर समस्याओं की मार झेल रहा है क्योंकि यह न तो केंद्र शासित प्रदेश है और न ही एक पूर्ण राज्य। यह संवैधानिक अस्पष्टता के बीच में कहीं पर लटका हुआ है।
69वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 दिल्ली को केन्द्र शासित राज्यों में एक विशेष राज्य का दर्जा देता है, जिसमें दिल्ली का नाम “केन्द्र शासित राज्य दिल्ली” से बदलकर “राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली” कर दिया गया था। इसके पीछे का हमेशा से यही उद्देश्य था कि समय आने पर तर्कसंगत रूप से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा।
यदि दिल्ली के निर्वाचित प्रतिनिधि प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं, तो वे अगले चुनाव में हार के हक़दार हैं। सिवाय इसके कि उत्तरदायी प्राधिकरण कौन हैं? लेफ्टिनेंट गवर्नर निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं है। वह मोदी सरकार के लिए उत्तरदायी है। अगले आम चुनाव में दिल्ली के मतदाता, देश के अन्य हिस्सों की तरह, राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करेंगे।
यही कारण है कि हमारे पास स्थानीय मुद्दों के लिए दिल्ली राज्य विधानसभा है। लेकिन यदि निर्वाचित मुख्यमंत्री दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति में कर्मचारियों की नियुक्ति भी नहीं कर सकता है, तो दिल्ली में विधानसभा चुनावों का क्या मतलब है?
अगर आप किसी भी मुद्दे की गहराई में जाते हैं तो यहाँ पर भी वही कहानी है। चाहे यह नालियों की सफाई हो, दिल्ली सरकार के अस्पतालों का खराब रखरखाव हो, दिल्ली मेट्रो निर्माण में विलंब हो, सार्वजनिक बसों की कमी हो और ऐसे ही कई अन्य मुद्दे हों। इनमें से हर मुद्दे पर सरकार की विभिन्न शाखाएं अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ेंगी। आप अपने आप को दिल्ली सचिवालय से उपराज्यपाल कार्यालय और वहाँ से केन्द्रीय मंत्रालयों तथा उनके विभागों तक दौड़ता हुआ पाएंगे।
कोई नई कहानी नहीं है
केजरीवाल-मोदी की लड़ाई की तुलना में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के मुद्दे के बारे में और भी बहुत कुछ है। नौ वर्षों तक, कांग्रेस पार्टी की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने केन्द्र में अपनी ही पार्टी की सरकार होने का अच्छा सौभाग्य प्राप्त किया था।
2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में बड़ी गड़बड़ी थी। खेल के हर पहलू में देरी हुई थी। भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे जिनमें से कुछ की अभी भी जाँच चल रही है। यदि आप 2010 में सरकारी अधिकारियों से पूछते कि समस्या क्या थी तो वह इसके लिए किसी और को जिम्मेदार ठहरा देते। अन्य राज्यों में यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री के नाम के साथ ठहर जाती है। लेकिन दिल्ली की संरचना इतनी भूलभुलैया जैसी है कि यहाँ जिम्मेदारी स्थानांतरण कभी भी नहीं रूकता। जिम्मेदारियाँ एक दूसरे पर थोपने की प्रक्रिया जारी रहती है।
लेकिन शीला दीक्षित की सरकार फिर भी एक सहकारी सरकार थी। उनको सौंपे गए विभागों में से दिल्ली सेवा विभाग था, जो भर्ती और आवंटन विभाग है। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं से लेकर अस्थायी भर्तियाँ भी इसी विभाग द्वारा की जाती हैं। भ्रष्टाचार विरोधी ब्यूरो भी शीला दीक्षित के ही अधीन था।
शक्ति का हस्तांतरण
अब पूरी तरह राजनीतिक कारणों से, सर्वशक्तिमान एल-जी ने एंटी करप्शन ब्यूरो और सेवा विभाग की सभी शक्तियों को हड़प लिया है। नतीजतन केजरीवाल के मंत्रियों के बजाय एल-जी नौकरशाहों की एसीआर रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करते हैं। इसलिए नौकरशाह मुख्यमंत्री या उनके मंत्रियों की सुनने के लिए बाध्य नहीं हैं। तीन महीने तक, वे एक घटना, जिसमें कथित रूप से मुख्य सचिव को पीटा गया था, का विरोध करने के लिए निर्वाचित सरकार का बहिष्कार कर रहे थे। वे ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि केजरीवाल सरकार किसी भी तरीके से उनकी वार्षिक रिपोर्ट नहीं लिख सकती है।
जब केजरीवाल सरकार ने पहली बार 2015 में महसूस किया कि यह एल-जी सहायता नहीं करेंगे, सरकार को समझ नहीं आया ही अब वह क्या करें। वह जो करना चाहते थे वह ना कर पाने के लिए अपने हाथ में संपूर्ण शक्ति ना होने की शिकायत नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्होंने सत्ता में आने के लिए कई बड़े वादे और उम्मीदें दिखाई थीं। इसके बाद वह यदि यह कहते कि मोदी उन्हें कुछ भी करने नहीं दे रहे थे, तो यह एक बहाने जैसा प्रतीत होता। इसके अलावा, दिल्ली के लोग अच्छी तरह से कह सकते थे, चलिए अगले चुनाव में बीजेपी को जिताएंगे।
तो ‘आप’ सरकार एक नारे के साथ आई “वो परेशान करते रहें, हम कर्म करते रहें। लेकिन जैसा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एल-जी बॉस (सर्वशक्तिमान) हैं, ‘आप’ ने एक साल तक दिल्ली को भूलने का फैसला किया। पूरी पार्टी और कैबिनेट पंजाब चली गई। उन्होंने सोचा कि वे पंजाब में जीतेंगे और दिल्ली का हिसाब-किताब चंडीगढ़ में बराबर करेंगे। लेकिन वे पंजाब में हार गए।
पंजाब की हार के बाद, ‘आप’ ने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को छोड़ दिया, मोदी पर हमला करना बंद कर दिया और अपना ध्यान दिल्ली पर केन्द्रित किया। पार्टी ने पूरे वर्ष शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में परिणाम दिखाने की कोशिश की और बहुत पीआर के साथ इनका प्रचारित किया। वे बिजली और पानी के बिलों को कम करके पहले ही दिल्ली के गरीबों पर जीत हासिल कर चुके थे। बावाना उपचुनाव में एक मुश्किल जीत से पता चला है कि आप को अब भी गरीबों का समर्थन प्राप्त है।
नीति, राजनीति नहीं
अब, ‘आप’ सोचती है, दिल्ली को एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने हेतु एक आन्दोलन चलाने के लिए इसके पास पर्याप्त राजनीतिक पूँजी है। अरविंद केजरीवाल अपने पुराने धरने वाले रवैये पर लौट आए और एक सप्ताह तक लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय पर धरना दिया, यह मांग करते हुए कि आईएएस अधिकारी फिर से मंत्रियों के साथ काम करना शुरू करें। आखिरकार, उन्होंने ऐसा करना शुरू कर दिया।
1 जुलाई को तालकटोरा स्टेडियम में आम आदमी पार्टी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन शुरू करने जा रही है। यह पहली बार होगा जब ‘आप’ दिल्ली के लोगों यह कहकर मनाएगी कि दिल्ली का पूर्ण राज्य ना होना एक समस्या है। वे इसे “एल-जी, दिल्ली छोड़ो” अभियान बोल रहे हैं।
हम अगले कुछ हफ्तों में हम दिल्ली के लिए एक पूर्ण राज्य की मांग पर काफी बहस देखेंगे। हमारी आदतों के विपरीत, यह महत्वपूर्ण है कि उस बहस को पार्टी की राजनीति द्वारा पारिभाषित न होने दिया जाय। यह ‘आप’ या बीजेपी या कांग्रेस के बारे में नहीं है। यह एक नीतिगत मुद्दा है और दिल्ली के लोगों को उस स्तर पर इसमें भाग लेना चाहिए।
Read in English : Delhi would be better governed with full statehood