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Friday, 22 November, 2024
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जनप्रतिनिधित्व कानून के पेंच में लंबे समय तक कैसे फंसे रहे कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल

हार्दिक पटेल ने आरोप लगाया कि पार्टी का प्रदेश नेतृत्व उन्हें परेशान कर रहा है और राज्य के कांग्रेस नेता चाहते हैं कि वो पार्टी छोड़ दें. वहीं आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रमुख गोपाल इटालिया ने पटेल को कांग्रेस छोड़ आप में आने की पेशकश की.

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गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल को उस समय बड़ी राहत मिल गयी जब सुप्रीम कोर्ट ने 2015 मेहसाणा दंगा मामले में उन्हें दोषी ठहराने के निचली अदालत के जुलाई 2018 के फैसले पर रोक लगा दी. हार्दिक पटेल की दोषसिद्धि पर शीर्ष अदालत की रोक के बाद ही वह जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत अयोग्यता के दायरे से बाहर आ गए और अब उनका विधानसभा चुनाव लड़ने का रास्ता भी साफ हो गया.

हालांकि गुरुवार को पटेल ने आरोप लगाया कि पार्टी का प्रदेश नेतृत्व उन्हें परेशान कर रहा है और राज्य के कांग्रेस नेता चाहते हैं कि वो पार्टी छोड़ दें. वहीं आम आदमी पार्टी (आप) के प्रदेश प्रमुख गोपाल इटालिया ने पटेल को कांग्रेस छोड़ आप में आने की पेशकश की.

इससे पहले, गुजरात हाई कोर्ट ने अगस्त 2018 में हार्दिक पटेल को जमानत देते हुए उनकी सजा स्थगित कर दी थी परंतु उनकी दोषसिद्धि पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था.

इस मामले में मेहसाणा जिले की विसनगर की अदालत ने उन्हें पाटीदार आरक्षण आंदोलन के दौरान शहर में दंगा और आगजनी के लिए दोषी ठहराते हुए दो साल की सजा सुनाई थी.

हार्दिक पटेल ने अपनी दोषसिद्धि पर रोक लगाने के लिए मार्च, 2019 में भी हाई कोर्ट में प्रयास किया था लेकिन वहां उन्हें निराशा ही हाथ लगी दी थी. इस बीच, पटेल ने 12 मार्च को कांग्रेस में शामिल होने के बाद उसके टिकट पर जामनगर संसदीय सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी भी शुरू कर दी थी, जहां नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख चार अप्रैल थी.

जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ के प्रावधान के मद्देनज़र ही उच्च न्यायालय से दोषसिद्धि पर किसी प्रकार की राहत नहीं मिलने के कारण हार्दिक पटेल 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सके थे.

लेकिन अब करीब तीन साल बाद कांग्रेस के इस युवा नेता को शीर्ष अदालत से राहत मिल गई. न्यायमूर्ति ए. अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने उन्हें राहत देते हुए कहा कि यह सर्वथा उचित मामला है जिसमें दोषसिद्धि पर रोक लगाई जानी चाहिए.


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जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951

जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा आठ के अंतर्गत यदि किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए कम से कम दो साल की सजा हुई है तो वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होती है. अयोग्यता की अवधि सजा की अवधि के बाद छह साल के लिए प्रभावी हाती है. हां, अगर अपीली अदालत ऐसे व्यक्ति की दोषसिद्धि पर रोक लगा देती है तो वह चुनाव लड़ सकता है.

इस कानून की धारा 8(1), 8(2)और धारा 8(3) में उन अपराधों का विस्तार से उल्लेख है जिनके लिए अदालत द्वारा दोषी ठहराये जाने पर व्यक्ति चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होता है. इनमें से कुछ मामलों में सिर्फ जुर्माना होने की स्थिति में ही छह साल की अयोग्यता का प्रावधान है जबकि दहेज निरोधक कानून के तहत छह महीने या उससे अधिक की सजा अयोग्यता का आधार है.

पूर्व क्रिकेटर और पंजाब प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू का मामला भी कुछ इसी तरह का था. सिद्धू को 1988 में कार पार्किंग को लेकर हुए विवाद में एक व्यक्ति की मृत्यु से संबंधित मामले में उच्च न्यायालय ने दोषी ठहराते हुए उन्हें दिसंबर, 2006 में तीन साल की कैद और एक साल रुपए जुर्माने की सजा सुनाई थी. हालांकि, इससे पहले, पटियाला की अदालत ने इस मामले में सिद्धू और उनके साथ रूपिंदर सिंह संधू को बरी कर दिया था.

सिद्धू की सजा और दोषसिद्धि पर सुप्रीम कोर्ट ने Navjot Singh Sidhu Vs State of Punjab & Anr में 23 जनवरी, 2007 को उनकी अपील पर फैसला होने तक के लिए रोक लगा दी थी.

शीर्ष अदालत से मिली इस अंतरिम राहत के बाद वह अमृतसर संसदीय सीट से उपचुनाव भी लड़े थे. हालांकि, मई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सिद्धू पर सिर्फ एक हजार रुपए का जुर्माना ही किया था.

जहां तक सवाल जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (1), (2) या (3) के अंतर्गत अयोग्यता का सवाल है तो सुप्रीम कोर्ट ने 26 सितंबर 2018 को गैर-सरकारी संगठन Lok Prahari Vs Election Commission Of India में स्पष्ट किया था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 489 या धारा 482 के अंतर्गत अगर अपीली अदालत या हाई कोर्ट दोषसिद्धि पर रोक लगाने का आदेश पारित करता है तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत अयोग्यता संबंधी यह प्रावधान लागू नहीं होंगे.

इसी तरह, शिरोमणि अकाली दल की उम्मीदवार बीबी जागीर कौर के मामले में निचली अदालत ने उन्हें अपनी बेटी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु के मामले में 2012 में पांच साल की सजा सुनाई थी. नतीजतन उन्हें बादल सरकार में मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था और वह अयोग्यता के दायरे में आ गई थीं लेकिन बाद में चार दिसंबर, 2018 को पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था और इस प्रकार उनकी अयोग्यता भी समाप्त हो गयी थी.


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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बदली स्थिति

जुलाई, 2013 से पहले तक आपराधिक मामले में दो साल या इससे अधिक अवधि की सजा पाने वाला व्यक्ति जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के प्रावधानों के तहत चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य था. इस प्रावधान की वजह से निर्वाचित सांसद और विधायक अपील लंबित होने की आड़ में अयोग्यता के प्रावधान से बचे रहते थे.

यह मामला भी शीर्ष अदालत के सामने आया और उसने Lily Thomas Vs Union of India प्रकरण में 10 जुलाई 2013 को सुनाये गए फैसले में निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिला यह संरक्षण खत्म कर दिया था.

शीर्ष अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) निरस्त कर दी थी. इस धारा में प्रावधान था कि अगर निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी दोष सिद्धि और सजा के खिलाफ तीन महीने के भीतर अपील दायर करता है तो संबंधित अदालत में इसका निस्तारण होने तक अयोग्यता प्रभावी नहीं होगी.

शीर्ष अदालत का यह फैसला आने के बाद कई सांसद और विधायक अदालत द्वारा दोषी ठहराये जाने के साथ ही अयोग्य हो गए और उन्हें अपनी सदस्यता गंवानी पड़ी. इस व्यवस्था के बाद सबसे पहले सदस्यता गंवाने वालों में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और पूर्व केंद्रीय मंत्री रशीद मसूद शामिल थे. इसके बाद तो कई सांसद और विधायकों को अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ा.

आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखने की मंशा से जनप्रतिनिधित्व कानून में चुनाव लड़ने की अयोग्यता से संबंधित प्रावधान निश्चित ही बेहद उपयोगी हैं लेकिन आपराधिक न्याय प्रक्रिया में तेजी लाकर ऐसे मामलों का तेजी से निपटारा भी जरूरी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं. उनके अन्य लेखों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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