नई दिल्ली: भारत के तमाम फिल्म संघ अब फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया में बदलाव चाहते हैं. पिछले महीने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ हुई एक बैठक में, देश भर के 50 फिल्म संघों ने विभिन्न राज्यों के लिए सेंसरशिप के अलग-अलग मानकों का उपयोग करने और प्रमाणन प्रक्रिया को आसान बनाने के बारे में अपने सुझाव दिए.
मंत्रालय द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने केंद्र सरकार द्वारा सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 – जो भारत में फिल्म प्रमाणन की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है – में आधिकारिक तौर पर संशोधन पेश किये जाने के दौरान उनकी इन सिफारिशों को ध्यान में रखे जाने का वादा किया है.
सिनेमैटोग्राफ संशोधन विधेयक, 2021, एक प्रस्तावित कानून है जो केंद्र सरकार को फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया पर अधिक नियंत्रण देने का प्रस्ताव करता है. इस विधेयक के आलोचकों को डर है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर देगा.
भारतीय फिल्म संघ (फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया -एफएफआई) की विभिन्न क्षेत्रीय शाखाओं के प्रतिनिधि, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन-सीबीएफसी), राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया-एनएफडीसी), फिल्म समारोह निदेशालय (डायरेक्टरेट ऑफ़ फिल्म फेस्टिवल्स – डीएफएफ) जैसे अर्ध-सरकारी निकायों के प्रमुखों के साथ-साथ और इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (इम्प्पा) और इंडियन फिल्म एंड टेलीविज़न डायरेक्टर्स एसोसिएशन जैसी निजी संस्थाएं भी इस बैठक का हिस्सा थीं.
प्रमुख मांगें
फिल्म संघ यह चाहते हैं कि सीबीएफसी – वह संगठन जिसे भारत में फिल्मों के प्रमाणन का काम सौंपा गया है – विभिन्न राज्यों में फिल्मों को प्रमाणित करते समय अलग-अलग मानदंड लागू करे. इन संघों का कहना है कि एक विषय जो संभवतः किसी एक क्षेत्र विशेष को प्रभावित कर सकता है, उसे इसे ग्रहण कर सकने या समझ सकने की क्षमता रखने वाले क्षेत्रों में भी पूर्ण प्रतिबंध का सामना नहीं करना चाहिए.
इस बैठक में मौजूद एफएफआई के महासचिव रवि कोट्टारकरा ने कहा, ‘कभी-कभी केरल और पश्चिम बंगाल जैसे प्रगतिशील राज्यों में लोग ऐसी विषय वस्तु को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं जो अन्य राज्यों में अधिक विवादास्पद है.’ उन्होंने कहा, ‘इन राज्यों में भी सेंसरशिप के समान मानक का उपयोग करने का कोई मतलब नहीं है.’
उदाहरण के तौर पर संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ ने राजपूत समुदाय के भीतर गुस्से की लहर सी पैदा कर दी थी, जिसके कारण राजस्थान, दिल्ली और गुजरात में हिंसक विरोध प्रदर्शन भी हुए थे, लेकिन दक्षिणी और पूर्वी भारत के राज्यों में ऐसी प्रतिक्रियाएं काफी हद तक नदारद थीं.
इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन डायरेक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक पंडित ने कहा कि इसका समाधान अतिरिक्त क्षेत्रीय सेंसर बोर्ड स्थापित करना है जो किसी क्षेत्र विशेष की संवेदनशीलता को समझने में सक्षम होंगे.
पंडित ने कहा, ‘इससे व्यापक प्रतिबंध और सेंसरशिप से बचने में मदद मिलेगी.’
कोट्टारकरा ने कहा कि किसी फिल्म को रिलीज करना है या नहीं, इस पर अंतिम फैसले का अधिकार राज्य सरकारों के पास होना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राज्य सरकार को ही जमीनी स्तर पर कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण रखना है, और इसलिए मुश्किल समय में किसी फिल्म को सेंसर करने के बारे में फैसले का हक़ उनके ही पास होना चाहिए.’
फिल्म प्रमाणन की और अधिक श्रेणियां
कोट्टारकरा ने कहा कि फिल्म संघों ने विशेष रूप से ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म के युग में अतिरिक्त प्रमाणन श्रेणियां बनाये जाने की संभावना पर भी चर्चा की.
कोट्टारकरा ने कहा, ‘फिल्म प्रमाणन का विभाजन बहुत पुराना हो चूका है. यह उस ज़माने का है जब ओटीटी प्लेटफॉर्म मौजूद ही नहीं थे. हमने फिल्मों की विविधता में वृद्धि देखी है और इसलिए अब और अधिक खानों (कम्पार्टमेन्टस) की जरुरत है जिमें हम विभिन्न शैलियों की फिल्मों को समायोजित कर सकें.’
फिल्मों को वर्तमान में यू (अप्रतिबंधित रूप से देखे जाने), यू/ए (अप्रतिबंधित लेकिन 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अभिभावकों के मार्गदर्शन के साथ देखे जाने), ए (वयस्क) और एस (किसी एक वर्ग या पेशे (एस) तक सीमित) के रूप में वर्गीकृत किया गया जाता.
सिनेमैटोग्राफ संशोधन विधेयक, 2021, में के अंतर्गत यू/ए श्रेणी ही उम्र के मुताबिक अतिरिक्त विभाजनों – यू/ए 7+, यू/ए 13+, और यू/ए 16+ – का प्रस्ताव किया गया है.
एक अन्य सुझाव फिल्म निर्माताओं द्वारा प्रमाणन के लिए आवेदन करने हेतु एक सामान्य वन-स्टॉप डिजिटल सर्टिफिकेशन प्लेटफार्म का निर्माण करना था. सीबीएफसी के सीईओ रविंदर भाकर और अध्यक्ष प्रसून जोशी, जिन्होंने यह सुझाव दिया था, ने कहा कि इसका उद्देश्य ‘सीबीएफसी द्वारा फिल्म प्रमाणन से जुडी प्रक्रियाओं को सरल एवं कारगर बनाना तथा कागजी कार्रवाई को कम करना हैं.
वरिष्ठ फिल्म निर्माता राहुल रवैल, जो इस साल की शुरुआत में भारत के राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) के तहत चार सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित फिल्म निकायों के विलय की सिफारिश करने वाली समिति का हिस्सा थे, ने कहा: ‘जानकारी को ऑनलाइन रखने से न केवल फिल्म निर्माताओं के लिए बल्कि आम जनता और सरकार के लिए भी पारदर्शिता सुनिश्चित होगी. किसी एक खास फिल्म को किसी एक खास श्रेणी में क्यों रखा गया, इसका कारण सबके सामने स्पष्ट हो जाएगा. अन्यथा, ये बातें भ्रामक और पेचीदा हो सकती हैं.’
उन्होंने कहा कि इससे प्रमाणन से पहले फिल्म देखने की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं आएगा.
स्वयं एक प्रसिद्ध फिल्म निर्माता रहे पंडित ने कहा कि वर्तमान प्रमाणन प्रक्रिया लालफीताशाही से भरी हुई है.
उन्होंने कहा, ‘हमारे राष्ट्रीय फिल्म निकायों ने अतीत में कुछ काफी अच्छे निर्णय लिए हैं. लेकिन लालफीताशाही की वजह से फिल्म उद्योग दलदल में धंसा महसूस करता है. हमें फिल्म निर्माताओं के लिए प्रक्रिया को आसान बनाना होगा.’
एनएफडीसी वह निकाय है जो विदेशी फिल्म समारोहों में भेजे जाने के लिए फिल्मों का चयन करता है. मंत्रालय फ़िलहाल इस संगठन के नेतृत्व में परिवर्तन पर विचार कर रहा है.
इस बैठक का संचालन करने वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सचिव अपूर्व चंद्रा ने कहा कि इसमें एंटी-पायरेसी (फिल्मों की नक़ल या अनधिकृत प्रसारण) से जुड़े मुद्दों पर भी चर्चा की गई. फिल्म संघों ने पायरेसी के लिए और कड़ी सजा की मांग की है – संघों ने इसके लिए मौजूदा दंड के प्रावधानों की जगह आठ साल की जेल की सजा और 2 लाख रुपये का जुर्माने का सुझाव दिया है.
अतिरिक्त सचिव नीरजा शेखर, जो इस बैठक का हिस्सा थीं, ने कहा कि विदेशों में फिल्मों के प्रदर्शन में भारत की भागीदारी में वृद्धि से देश के ‘सॉफ्ट पावर’ को मजबूत करने में मदद मिल सकती है.
मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया गया, ‘हमें फिल्म उद्योग से ऐसी विशिष्ट सामग्री (विषय-वस्तु) की आवश्यकता है जो भारतीय फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करने में मदद करता है जहां भारतीय फिल्मों की मांग मौजूद है.’
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