scorecardresearch
Saturday, 16 November, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार की भटकी सोच की बदौलत आज कश्मीर में फिर से आ गए हैं 1993 वाले हालात

मोदी सरकार की भटकी सोच की बदौलत आज कश्मीर में फिर से आ गए हैं 1993 वाले हालात

Text Size:

दोनों देश कश्मीर को खूनी लड़ाई की जगह मानते हैं और वे आख़िरी कश्मीरी व्यक्ति तक अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।

श्मीर पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की रिपोर्ट इतनी घातक रूप से त्रुटिपूर्ण है कि यह आते ही ख़त्म हो गयी थी। इसकी सटीकता, निष्पक्षता, पद्धति या उद्देश्यों पर बहस करना समय की बर्बादी है।

इसका घातक दोष राजनीतिक है। पहली बात यह है कि यह रिपोर्ट एनजीओ-टाइप कार्यकर्ताओं को दुनिया के प्रमुख मानव अधिकार निकाय पर कब्ज़ा करने देती है और दूसरी बात इस पर कोई राजनीतिक नियंत्रण नहीं करने देती। एक स्तर पर, यह आपको बताती है कि संयुक्त राष्ट्र कितनी अयोग्यतापूर्वक चल रहा है। दूसरे पर, यह दर्शाती है आप उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं जिन्हें आप बचाने के लिए निकले हैं।

क्या यह रिपोर्ट भारत या पाकिस्तान को शर्मिंदा करती है? कम से कम नहीं। दोनों कश्मीर को खूनी लड़ाई की जगह मानते हैं। भारत अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड से शर्मिंदा नहीं होगा: यह मानता है कि यह सिर्फ एक घिनौने, सीमा पार आतंकवादी हमले से लड़ रहा है।

पाकिस्तान सिर्फ एक और रिपोर्ट से शर्मिंदा नहीं होगा कि यह इस बड़े आतंकवादी अभियान को वित्त पोषण, भोजन और हथियार दे रहा है। यह मानता है कि यह न्याय के लिए एक नैतिक अभियान में लगा हुआ है। इसे ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ जिहाद’ और ‘इंटरनेशनल माइग्रेन’ जैसे घृणास्पद नाम मिले हैं।

अगर यही करना पड़ा तो दोनों आखिरी कश्मीरी व्यक्ति के ख़त्म होने तक लड़ेंगे। क्या वे संयुक्त राष्ट्र की इस मूर्खतापूर्ण रिपोर्ट के बारे में परेशान होंगे जहाँ ‘शोधकर्ताओं’ ने कश्मीर की जमीन पर एक बार भी कदम नहीं रखा है, एलओसी के किसी भी तरफ? वे नहीं होंगे। लेकिन यह सबसे बड़ी समस्या नहीं है।

म इसे इसकी गुणवत्ता के कारण इसे मूर्खतापूर्ण नहीं कहते हैं लेकिन इसकी अपेक्षाओं के लिए, कि यह कश्मीर के लोगों की मदद करेगी, इसे मूर्खतापूर्ण कह सकते हैं। इसके विपरीत, यह भारत के नजरिये को सख्त करेगा। यह पाकिस्तान को और अधिक कश्मीरियों और अपने खुद के युवाओं को जिहाद में झोंकने के लिए प्रोत्साहित करेगा, इस नयी आशा में कि एक दिन, किसी दिन, यह भारत को शर्म, भय या दर्द में दूर ले जायेगा। जब मानव अधिकारों के वर्तमान उच्चायुक्त अपनी प्रचुर यूएन पेंशन पर गोल्फ खेलने के लिए सेवानिवृत्त हो जायेंगे, हम तब से अगले एक दशक के बाद इस पर बातचीत कर सकते हैं।

तीन दशकों से उत्तरोत्तर महासचिवों की गुणवत्ता हमें बताती है कि संयुक्त राष्ट्र अपने नौकरशाहों को आवश्यक रूप से बुद्धि या सामर्थ्य के लिए नियोजित नहीं करता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वर्तमान समूह अपने स्वयं के हस्तक्षेप के इतिहास को देखने के झंझट में नहीं पड़ना चाहता।

कई सारे दुर्भाग्यपूर्ण तरीकों से कश्मीर की स्थिति संकटमय 90 के दशक की तरह हो गयी है। यह तब भी था जब एक बहुत कमजोर भारत पर यूएन और पश्चिमी मानवाधिकारों का दबाव सबसे ज्यादा था। तब इसने कैसे प्रतिक्रिया दी थी? इसने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सभी क्षेत्रों को वापस पाने के लिए संसद में सर्वसम्मति से समाधान निकालने वाला एक प्रस्ताव पारित किया था।

विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में, उनके डिप्टी के रूप में विदेश मामलों के राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद के साथ, एक द्विपक्षीय प्रतिनिधि मंडल ने जिनेवा में एक ऐतिहासिक वोट जीता था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें चाइना और ईरान के मानवाधिकार विरोधियों की तरह हाथ मिलाना पड़ा था।

यह यूएन रिपोर्ट कुछ ऐसी ही गुटबंदी की और बढ़ेगी। याद कीजिए, विदेश मंत्रालय की आधिकारिक निंदा से भी पहले कांग्रेस के प्रवक्ता सरकार का समर्थन करते हुए टीवी पर थे।

शुजात बुखारी की हत्या ने हमारे दिमाग को इस रिपोर्ट के सबसे जहरीले हिस्सों से दूर कर लिया। दोनों तरफ, शायद यह जानबूझकर है। भारत एक उकसावे के नोटिस को उतना गंभीरता से नहीं ले सकता जितना संयुक्त राष्ट्र संकाय कश्मीर में आत्मनिर्भरता और इस पर युद्ध घोषित न करने के लिए औपचारिक रूप से कह रहा है। इसे पाकिस्तानी दिलों को भी तोड़ना चाहिए क्योंकि आत्मनिर्भरता स्वतंत्रता के विकल्प को बढ़ाती है। पाकिस्तान ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया है और न ही 1948 के यूएन प्रस्ताव ने किया था।

संयुक्त राष्ट्र ने 1972 के शिमला समझौते के बाद से, जिसने कश्मीर को पूरी तरह से एक द्विपक्षीय मुद्दे के रूप पारिभाषित किया था, किसी भी मामले में आत्मनिर्भरता या जनमत संग्रह की बात नहीं की है। शायद पाकिस्तान ने कभी-कभी प्रस्ताव का अवाहन किया है लेकिन तब से लाहौर, इस्लामाबाद या शर्म एल शेख में द्विपक्षीय समझौतों और अन्य संयुक्त घोषणाओं में इस पर कभी भी जोर नहीं दिया गया। इनमें केवल द्विपक्षीय रूप से विवाद को हल करने के बारे में बात की गयी है। चूंकि हम 1989-94 की अवधि को कश्मीरी विद्रोह में सबसे खराब पांच साल के रूप में देखते हैं, इसलिए अगर हम उस मैदान में वापस आते हैं तो हमें बहस करने की जरूरत है।

वहां कड़वा अलगाव है, राजनीति ने विश्वसनीयता खो दी है, मानवाधिकारों के दबाव बढ़ गए हैं, पाकिस्तानियों को उकसाया गया है, एलओसी सुलग रही है और राष्ट्रीय राजनीति टूट गयी है। उन दो चीजों को याद कीजिए जो तब भारत को एक साथ गुस्से में लाये थे: पश्चिमी मानवाधिकार संगठनों का दबाव और अमेरिकी सहायक राज्य सचिव रॉबिन रैफेल द्वारा कश्मीर पर भारत की पहुँच के साधन की वैधता पर सवाल उठाते हुए वह विनाशकारी बयान।

अब इस गैर जिम्मेदार संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट ने इन दोनों को उकसाया है।

अपनी स्वयं की और पश्चिमी शक्तियों की बड़ी भूलों को दोहराते हुए संयुक्त राष्ट्र की मूर्खता का शिकार बनने के बाद हमें यह भी सोचना चाहिए कि हम यहाँ तक पहुंचे कैसे। सरल उत्तर: अतीत की तरह ही बड़ी-बड़ी भूलें करके।

समस्या 1989 में शुरू हुई थी, जब भारत राजनीतिक परिवर्तनकाल में था और वी.पी. सिंह के अंतर्गत एक वैचारिक जिज्ञासा सत्ता में आई थी। जिज्ञासा इसलिए क्योंकि यह वामपंथियों और भाजपा के बाह्य समर्थन द्वारा सत्ता में स्थापित की गयी एक अल्पसंख्यक गठबंधन की सरकार थी।

भाजपा कश्मीर के लिए एक शक्तिशाली नजरिया चाहती थी। तो भाजपा के हुक्म पर आतंकवादियों को कुचलने के लिए जगमोहन को गवर्नर के रूप में भेजा गया था। लेकिन सरकार के पास एक आक्रामक मुस्लिम समर्थक अन्तर्भाग था और साथ ही साथ यह वामपंथियों पर भी निर्भर थी। इसके अलावा मुफ़्ती मोहम्मद सईद इसमें केन्द्रीय गृह मंत्री थे। इसलिए इसने अतिउदारवादी जॉर्ज फर्नांडीस को कश्मीर मामलों के मंत्री के रूप में नियुक्त किया था।

अब हमारे पास सत्ता का एक केंद्र था जो चोट पहुंचता था और दूसरा मरहम लगाता था। जहां गृह मंत्री का दिल था, हमें अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं है। नतीजा था- आपदा। कश्मीरी पंडितों को नृशंसतम संजातीय सफाए का सामना करना पड़ा था और आतंकवाद ने पूरी तरह से पाकिस्तान आधारित विद्रोह का रूप ले लिया था। बाद में, एक बुद्धिमान, क्रूर और अधिक स्पष्ट नेतृत्व वाले नरसिम्हा राव ने जैसे ही सत्ता संभाली, सशस्त्र बलों को असीमित संसाधन, छूट और इसे कुचलने के लिए शासनादेश दे दिया गया।

यह अभी तक राज्य के मानवाधिकार इतिहास में सबसे खराब चरण था। कुख्यात पूछताछ केंद्र स्थापित किए गये थे, नागरिकों की भीड़ पर गोलीबारी में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे, बिजबेहरा फायरिंग नरसंहार और कुनान पोशपोरा के सामूहिक बलात्कार के आरोप उसी अवधि में सामने आये थे और साथ ही चरार-ए-शरीफ संकट भी सामने आया था।

आज की पीढ़ी इसे कश्मीर के इतिहास में हैदर (विश्वाल भारद्वाज की फिल्म) चरण के रूप में बेहतर पहचान सकती है। राव के कार्यकाल के अंत तक, आतंकवाद को सार्वजनिक भावनाओं की बड़ी कीमत पर कुचला गया था। अनिवार्य रूप से, यह कीमत थी जो भारत ने वी.पी. सिंह की सरकार की भ्रमित सोच के लिए चुकाई थी।

हमने हाल ही में कुछ वैसे ही भ्रम देखे हैं। अंतर इतना है कि दैनिक मजदूरी पर वी.पी. सिंह के अल्पसंख्यक गठबंधन के विपरीत यह एक व्यापक बहुमत के साथ एक मजबूत राष्ट्रवादी सरकार है। लेकिन इसने क्या किया है? स्पष्ट रूप से, विपरीत विचारधाराओं, घाटी और जम्मू को एक साथ लाने के लिए इसने पीडीपी के साथ गठबंधन किया। तदनुसार यह अपनी खुद की प्रवृत्तियों को ढालने में कभी भी सक्षम नहीं थी। तो आपने फिर से एक ही समय में बन्दूक और बैंडेज से एक साथ खेला है। यह फिर से ठीक वैसा ही है जैसे जगमोहन और जॉर्ज फर्नांडीस एक ही प्रतिष्ठान में हों।

कश्मीर के परिग्रहण पर मानवाधिकारों के दबाव और रॉबिन रैफेल के सवाल उठाने वाले गायब तत्व अब संयुक्त राष्ट्र की इस विचारहीन रिपोर्ट द्वारा वापस ले आये गए हैं। कश्मीर में घड़ी की सुइयां 1993 तक पीछे कर दी गयीं हैं।

Read in English : Thanks to Modi govt’s woolly-headedness, it’s 1993 in Kashmir again

share & View comments