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Sunday, 24 November, 2024
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फर्जी डिग्री, बेतहाशा कमाई: ग्वालियर की बंद पड़ी इमारतों में चलने वाले ‘नर्सिंग कॉलेजों’ की इनसाइड स्टोरी

ऐसे ही एक कॉलेज से लाखों की कमाई के मामले में पिछले महीने स्कूल शिक्षक प्रशांत परमार पर छापा मारा गया था। लेकिन दिप्रिंट की जांच से पता चलता है कि वह ऐसा करने वाले अकेले व्यक्ति नहीं हैं.

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ग्वालियर: मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर से 15 किलोमीटर दूर बरौआ गांव में खाली खेतों में चार रंग-बिरंगी इमारतें खड़ी हैं. कैंपस के अंदर एक कर्मचारी पाइप से पानी लेकर खुले में नहा रहा है और पास ही भैंस घास चरती नजर आ रही है. दो बंद इमारतों पर लगे बैनर बताते हैं कि ये एक अस्पताल हैं.

इनमें से एक इमारत खुली है, उसे नर्सिंग कॉलेज कहा जाता है. लेकिन कॉलेज के नाम पर इसके अंदर सिर्फ एक कंप्यूटर लैब है. इमारत एक थर्ड पार्टी को पट्टे पर दी गई है, जो इसे विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए परीक्षा केंद्र के रूप में इस्तेमाल में ला रहा है.

ये वही बेकार पड़ी इमारते हैं, जिसने ग्वालियर के प्राइमरी स्कूल टीचर प्रशांत परमार को करोड़पति बना दिया है.

उनका ये निजी नर्सिंग और शिक्षा कॉलेज, बाहर से देखने पर स्थायी रूप से बंद नजर आता है. लेकिन हर साल सैकड़ों छात्र यहां से डिग्री लेकर निकलते हैं. लेकिन छात्रों के लिए न तो किसी तरह की कोई कक्षाएं आयोजित की जाती हैं और न ही अस्पतालों का कोई व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है. दरअसल यहां फर्जी डिग्री बेची जा रही थी.

आय से अधिक संपत्ति के मामले में आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) ने पिछले महीने परमार पर छापा मारा था. जांचकर्ताओं को परमार के पास से शहर के पॉश इलाके अलकापुरी में एक फ्लैट, 65 लाख रुपये के गहने और दो ऑफिस के अलावा एक निजी स्कूल और दो मैरिज हॉल के कागज बरामद हुए हैं. कहने को तो परमार एक प्राइमरी टीचर हैं लेकिन वह एसयूवी से चलते हैं, अमेरिका और दुबई में छुट्टियां मनाते हैं. उनका बेटा और बेटी महंगे निजी कॉलेजों में पढ़ाई कर रहे हैं.

दिप्रिंट की एक जांच में पाया गया कि परमार ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो ग्वालियर में इस तरह के नर्सिंग कॉलेज चला रहे हैं. उनके जैसे और भी बहुत से लोग हैं जिन्होंने फर्जी डिग्रियां बांच कर बेहिसाब संपत्ति अर्जित की है.

परमार का नर्सिंग कॉलेज जो ऑनलाइन परीक्षा आयोजित करने वाले तीसरे पक्ष को पट्टे पर दिया जाता है | फोटो: सोनल मथारू | दिप्रिंट

2021 में 121 नर्सिंग कॉलेजों के साथ, ग्वालियर बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के ज्यादातर छात्रों को नर्सिंग की डिग्री देने का केंद्र बन गया है. पड़ोसी जिले मुरैना में 30 नर्सिंग कॉलेज हैं, जबकि भिंड में 18 कॉलेज मौजूद हैं.

ये सस्ते निजी कॉलेज राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं और नर्सिंग शिक्षा के लिए भारतीय नर्सिंग परिषद से मान्यता प्राप्त हैं. लेकिन यहां छात्रों को किसी भी तरह की कोई प्रवेश परीक्षा देनी नहीं होती है. साथ ही क्लास लेने की जहमत तक नहीं उठानी पड़ती.

परमार की तरह, ऐसे बहुत से कॉलेज बंद पड़ी इमारतों में चलाए जा रहे हैं. इन कॉलेजों के पास न तो तो स्थायी शिक्षक हैं, न ही डॉक्टर और न ही छात्रों को व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए किसी अस्पताल से जोड़ा गया हैं. जबकि नर्सिंग कॉलेज खोलने के लिए ये अनिवार्य शर्तें होती हैं.

लेकिन इसके बावजूद यहां से हर साल सैंकड़ों छात्रों को नर्सिंग की डिग्री जारी की जाती है. इन संस्थानों से निकले छात्रों के पास वैध डिग्री तो होती है लेकिन क्लास में नर्सिंग की पढ़ाई या अस्पताल में प्रशिक्षण का कोई अनुभव नहीं है. पर फिर भी उन्हें सरकारी और निजी अस्पतालों में मरीजों की देखभाल करने का लाइसेंस मिल जाता है.


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कोविड के समय सामने आई सच्चाई

ग्वालियर के नर्सिंग कॉलेजों की ये तस्वीर उस समय सामने आई जब जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय ने उन्हें महामारी की तीसरी लहर की तैयारी में कोविड मरीजों के लिए अपने संलग्न अस्पतालों में ऑक्सीजन बेड रखने के लिए कहा था.

मध्य प्रदेश नर्सिंग शिक्षण संस्थान मान्यता नियम, 2018 के अनुसार, नर्सिंग कॉलेज, चाहे वे स्नातक पाठ्यक्रम पढ़ा रहे हों या डिप्लोमा, सभी को 100 बेड के अस्पताल तैयार करने का निर्देश दिया गया था. नर्सिंग एक नियमित पाठ्यक्रम है और छात्रों को अस्पतालों में डॉक्टरों के साथ और उनकी सहायता करने के लिए प्रशिक्षण देना उनके इसी कोर्स का एक हिस्सा है.

जब अधिकांश नर्सिंग कॉलेजों ने ऐसे 100 बेड के अस्पताल तैयार करने से इनकार कर दिया, तो कलेक्टर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने यहां मौजूद सुविधाओं का निरीक्षण करने के लिए चार टीमों को भेजा. जांच में उन्हें बिना बुनियादी ढांचे या कर्मचारियों के बिना खाली इमारतें मिलीं.

सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘अस्पतालों में बिस्तर थे लेकिन मरीजों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. डॉक्टर रोल पर थे लेकिन कॉलेजों से नदारद थे. न तो इलाज के लिए वहां कोई उपकरण था, और न ही कॉलेजों में कोई छात्र.’

निरीक्षण दल के एक सदस्य ने कहा, ‘हमने एक इमारत का दौरा किया, जो चारों तरफ से खुली थी. और अन्य कॉलेजों के अलावा वहां कम से कम तीन अस्पतालों के बोर्ड लगाए थे. कई अस्पताल की इमारतों में 100 बिस्तर लगाने तक की जगह नहीं थी.’

दिप्रिंट आधिकारिक टीमों के निष्कर्षों की पुष्टि कर सकता है.

बरौआ गांव तक जाने वाले हाईवे पर दोनों तरफ बंजर खेत नजर आते हैं. ‘गांव और पोस्ट बरौआ’- यह अस्पष्ट पता, भारतीय नर्सिंग परिषद की निजी मान्यता प्राप्त नर्सिंग कॉलेजों की वर्ष 2020-21 (नवीनतम उपलब्ध) की सूची में 13 कॉलेजों के लिए दिया गया है.

कॉलेज की इमारतें खुले मैदानों में बनी हैं. इनमें से कुछ की तो चारदीवारी भी नहीं हैं. परमार के कॉलेज की जमीन भी इसी हाईवे पर है, जहां से वह कथित तौर पर दो बीएड कॉलेजों के अलावा दो नर्सिंग कॉलेज और दो अस्पताल चला रहा था. झारखंड में उनके सहयोगियों द्वारा चलाए जा रहे पांच अन्य बी.एड. कॉलेज में भी उसकी हिस्सेदारी है.

कुछ मीटर की दूरी पर, जीआर ग्रुप ऑफ एजुकेशन का भी एक ऐसा ही कैंपस नजर आएगा. कहने के लिए यहां कई बिल्डिंग, तीन कॉलेज और परिसर में ही एक अस्पताल भी है. लेकिन उसकी ताला और चाबी गार्ड के पास होती है. गार्ड के अनुसार, ये अस्पताल कभी नहीं चला है.

बरौआ और रायरू नामक दो गांवों के बीच में आने वाले इन 13 नर्सिंग कॉलेज में कायदे से 1,300 बिस्तर वाले अस्पताल होने चाहिए थे. लेकिन ढूंढ़ने पर भी यहां अस्पताल जैसी कोई सुविधा नजर नहीं आएगी.

बरौआ गांव में रहने वाली कंचन सिंह बताती हैं ‘इन इमारतों में जाने पर आपको बिस्तर तो मिल जाएंगे, लेकिन आप वहां जाकर बस लेट सकते हो. इस इलाके में एक भी अस्पताल नहीं है. कोविड -19 के दौरान बीमार पड़े लोगों को इलाज के लिए ग्वालियर के अस्पतालों में जाना पड़ा था.’

ग्वालियर से 10 किलोमीटर दूर शिवपुरी लिंक रोड में 11 नर्सिंग कॉलेजों की भरमार है. इन कॉलेजों के विज्ञापनों से ढकी दीवारों से इन कॉलेजों की ओर रुख करना मुश्किल हो जाता है.

अंश ग्रुप ऑफ कॉलेज के विशाल परिसर में बने अस्पताल की बिल्डिंग बिल्कुल नई है. कॉलेज के प्रशासक मनोज शर्मा कहते हैं, ‘कलेक्टर कार्यालय के अपग्रेड करने के सख्त आदेश के बाद प्रबंधन ने बेड और ऑक्सीजन सिलेंडर पर 2 लाख रुपये से ज्यादा खर्च किए हैं. लेकिन अभी तक एक भी मरीज नहीं आया है.’

अंश ग्रुप ऑफ कॉलेजों के परिसर में एक नया अस्पताल | फोटो: सोनल मथारू | दिप्रिंट | फोटो: सोनल मथारू | दिप्रिंट

अगर सरकार नर्सिंग कॉलेजों को इतने बड़े अस्पताल बनाने का आदेश देती है, तो उन्हें मरीजों को भेजने की व्यवस्था भी करनी चाहिए.

हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब इन फर्जी नर्सिंग कॉलेजों ने जिला प्रशासन का ध्यान अपनी ओर खींचा है. 2015 में, तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट पी. नरहरि ने उन शिकायतों पर कार्रवाई की थी जो नर्सिंग छात्रों के जरिए उन तक पहुंचीं थीं. और ऐसे कुछ कॉलेजों को बंद करने में वह कामयाब भी रहे थे.

नरहरि ने दिप्रिंट को बताया, ‘अस्पतालों में न्यूनतम बुनियादी ढांचा तक नहीं था. वहां कोई क्लास नहीं चल रही थी, टीचर नदारद थे. कुछ कॉलेजों में तो कमरे भी नहीं थे.’ वह अब मध्य प्रदेश सरकार के एमएसएमई विभाग भोपाल में हैं.

सात साल बाद भी, छात्रों की भीड़ इन बंद इमारतों में दाखिला लेती है जिन्हें नर्सिंग कॉलेज कहा जाता है.


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बेकार पड़ी इमारतें कैसे पैसा कमाने का एक जरिया बन जाती हैं?

बिहार का 24 साल का एक कंप्यूटर इंजीनियर इस बात से खासा निराश था कि उसकी इस डिग्री से केवल 12,000 रुपये प्रति माह के मामूली वेतन की नौकरी ही मिल पा रही थी. उसने चेन्नई में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अपना पद छोड़ दिया और ग्वालियर के एक निजी नर्सिंग कॉलेज में GNM (जनरल नर्सिंग एंड मिडवाइफरी) कोर्स में दाखिला ले लिया.

पटना से ग्वालियर में फर्स्ट ईयर का एग्जाम देने आये इस युवक ने बताया, ‘एक मेल नर्स की नौकरी से मुझे बिहार में हर महीने 35,000 रुपये मिलेंगे.’

यहां नर्सिंग की पढ़ाई करने वाले ज्यादातर अन्य छात्रों की तरह, इस कंप्यूटर इंजीनियर ने भी पटना में एक एजेंट के जरिए इस निजी कॉलेज को ढूंढ़ा था. ग्वालियर में कक्षाओं में नहीं जाना पड़ता है और 2 लाख रुपये में दो साल के बाद नर्सिंग की डिग्री हाथ में आ जाती है.

ग्वालियर के एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता आशीष चतुर्वेदी कहते हैं, ‘बिहार, राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश में नर्सिंग की मांग काफी ज्यादा है. राज्य के सरकारी अस्पतालों के लिए वैकेंसी निकलती रहती हैं. इन राज्यों के कॉलेज जीएनएम कोर्स के लिए 6 लाख रुपये से ज्यादा चार्ज करते हैं, जबकि ग्वालियर से 2 लाख रुपये में डिग्री मिल जाती है.’

सरकारी नौकरी की चाह छात्रों को इन एजेंटों के अनौपचारिक नेटवर्क तक ले आती है जो उन्हें ग्वालियर में फर्जी और सस्ते कॉलेजों से अल्पकालिक डिग्री और डिप्लोमा कोर्स में दाखिला दिलाने में मदद करते हैं. वे निजी कॉलेजों में सीटें खरीदते हैं और उन्हें कमीशन के लिए छात्रों को बेचते हैं.

चतुर्वेदी कहते हैं, ‘परीक्षा के समय, एजेंट छात्रों को ग्रुप में लेकर आते हैं और वे सभी ग्वालियर के होटलों में आकर रुकते हैं. परीक्षा देने आए इतने छात्रों के लिए होटल के लॉन में बड़े पैमाने पर खाना पकाया जाता है.’

अपने राज्य में वापस जाकर ये छात्र, एक अस्पताल में काम करने का अनुभव पाने के लिए डॉक्टरों की सहायता के तौर पर निजी अस्पतालों में काम करते हैं.

इन्हीं कॉलेज में से एक में नामांकित एक 19 साल के युवक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उसे विश्वास है कि नर्सिंग की डिग्री मिल जाने के बाद उसे बिहार के अस्पतालों में कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. यहां के अस्पतालों में स्टाफ की काफी कमी है. और सबसे बड़ी बात, एक सरकारी नौकरी उसे वह सुरक्षा देगी, जो उसे निजी नौकरियों में नहीं मिल सकती.’

उन्होंने कहा कि अपने अनुभव और कौशल को बढ़ाने के लिए उन्होंने पहले ही पटना के एक निजी अस्पताल में हृदय रोग विशेषज्ञ के साथ काम करना शुरू कर दिया है. वह बड़े गर्व के साथ बताते हैं, ‘मैं आईसीयू में मरीजों को इंजेक्शन देता हूं.’ ‘यहां कक्षाओं में बैठकर कोई क्या सीखेगा? जब कॉलेजों में टीचर ही नहीं हैं.’

तथ्य यह है कि एक ही जिले में इतने सारे छात्र नामांकित हैं, इसकी जांच पड़ताल की जानी चाहिए थी.

इंडियन नर्सिंग काउंसिल के मानदंडों के अनुसार, 40 डिप्लोमा-स्तरीय जीएनएम सीटों वाले कॉलेज में 10 शिक्षक और चार अन्य कर्मचारी होने चाहिए. बीएससी के लिए मानदंड अधिक हैं. नर्सिंग पाठ्यक्रम से जुड़े अस्पताल में कम से कम 75 प्रतिशत बेड ऑक्यूपेंसी होनी चाहिए. एक आकलन से पता चलता है कि 121 नर्सिंग कॉलेजों के लिए ग्वालियर में 1,200 से ज्यादा नर्सिंग शिक्षक की जरूरत है.

शिवपुरी लिंक रोड की ओर जाने वाली सड़क पर नर्सिंग कॉलेज का विज्ञापन | फोटो: सोनल मथारू | दिप्रिंट | फोटो : सोनल मथारू | दिप्रिंट

जिला प्रशासन इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ है. मुख्य चिकित्सा स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) के आंकड़ों से पता चलता है कि ग्वालियर में केवल सात नर्सिंग कॉलेजों में 100 बिस्तरों वाला अस्पताल है.

सब कुछ साफ-साफ दिखने के बावजूद एक भी नर्सिंग कॉलेज या उससे जुड़े अस्पताल को मंजूरी देते समय निरीक्षण टीमों से किसी भी तरह की पूछताछ का सामना नहीं करना पड़ता है.

सीएमएचओ मनीष शर्मा कहते हैं, ‘पंजीकरण के दौरान अस्पताल सभी जरूरी चीजों की जानकारी देते हैं. उनके पास सब कुछ होता है, बुनियादी ढांचा, बेड और यहां तक कि मरीज भी. जिन चीजों को वे नहीं दिखा सकते हैं, वह हमें उसकी रसीद उपलब्ध करा देते हैं कि वे चीजें अभी प्रॉसेस में हैं.’

लेकिन सीएमएचओ यह नहीं बता सके कि पंजीकरण के तुरंत बाद सारी सुविधाएं कैसे गायब हो जाती हैं.

ग्वालियर नर्सिंग कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों का निरीक्षण करने वाली कलेक्टर टीम के एक सदस्य का कहना है, ‘अगर बुनियादी मानदंड गायब हैं, तब ये तो बिल्कुल साफ है कि कॉलेजों और अस्पतालों को चलाने के लिए मंजूरी लेने के लिए शुरुआती निरीक्षणों में हेरफेर किया गया है.’

‘निरीक्षण दल आसानी से इसका प्रबंध कर लेते हैं और भ्रष्टाचार इतना प्रबल होता है कि अच्छे कॉलेज भी इसके खिलाफ नहीं बोलते हैं. अगर वे ऐसा करेंगे तो टीम उन्हें एक नकारात्मक रिपोर्ट दे सकती हैं.’ एक कॉलेज प्रशासक ने अपनी पहचान छिपाते हुए कहा कि उसने इस भ्रष्टाचार के चलते अपने कॉलेज में नर्सिंग पाठ्यक्रम बंद कर दिया है.

सीएमएचओ ने माना कि निरीक्षण टीमों को अपने साथ मिलाकर काम निकलवाया जाता है. लेकिन उनके खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई. सदस्यों को बस एक टीम से दूसरी टीम में भेज दिया जाता है. अस्पतालों और कॉलेजों में नियमित तौर पर किए जाने वाले औचक निरीक्षण भी नदारद हैं.

2021 में, अधिवक्ता उमेश बोहरा ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर पीठ में एक जनहित याचिका दायर की थी. इसमें उन्होंने अदालत से ग्वालियर-चंबल क्षेत्र, जिसमें नौ जिले शामिल हैं, के सभी नर्सिंग कॉलेजों का निरीक्षण करने के लिए स्वतंत्र टीमों का गठन करने के लिए कहा था.

प्राइवेट नर्सिंग इंस्टीट्यूट एसोसिएशन ऑल इंडिया ने मामले में हस्तक्षेप किया और वकीलों की एक टीम द्वारा निरीक्षण के उच्च न्यायालय के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट से स्टे लेने में कामयाब रहा. मामला अब उच्च न्यायालय में वापस आ गया है. एक बार फिर से उन कॉलेजों का निरीक्षण करने मंजूरी मिल गई है.

एसोसिएशन के अध्यक्ष आर.एम. सिंह ने बताया, ‘यह कहना गलत होगा कि निरीक्षण टीम नर्सिंग कॉलेजों के इशारों पर काम करती हैं. एसोसिएशन को ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली है. एक या दो कॉलेज भ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन इससे सभी कॉलेजों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो जाता है.’

कोविड-19 महामारी के समय बेड की जरूरतों के चलते और कलेक्टर कार्यालय के दबाव में, पिछले छह महीनों में रद्द किए गए लगभग 55 अस्पतालों के लाइसेंस वापस कर दिए गए थे. ये सभी नर्सिंग कॉलेजों से जुड़े थे.

कलेक्टर सिंह को विश्वास है कि वह अगले दो साल में व्यवस्था को साफ कर देंगे. उन्होंने कहा, ‘हम संस्थानों को बेहतरी की तरफ ले जा रहे हैं.

मध्य प्रदेश नर्स पंजीकरण परिषद, नर्सिंग कॉलेजों को अंतिम मंजूरी देने वाली संस्था ने दिप्रिंट के सवालों का जवाब नहीं दिया.

सीटें बेचना, मरीजों की जान जोखिम में डालना

कलेक्टर कार्यालय से परिषद तक और फिर सीएमएचओ तक फाइलों यहां से वहां घूमती फाइलें और ईओडब्ल्यू द्वारा मारे गए छापे भी ग्वालियर के इन नर्सिंग कॉलेजों पर कोई असर नहीं डाल पाए हैं.

अपनी पत्नी के लिए परीक्षा केंद्र के बाहर प्रतीक्षा करते हुए, ग्वालियर नर्सिंग कॉलेज में एक नर्सिंग छात्र, संदीप कुमार ने दिप्रिंट के रिपोर्टर को एक कॉलेज में सीट दिलाने में मदद करने की पेशकश की. उन्होंने अपने एजेंट, एक कॉलेज के शिक्षक से बात की और 2021-22 के बैच में एक सीट दिलाने का आश्वासन दिया.

उसने कहा, ‘ग्वालियर नर्सिंग कॉलेज की सीटें 2021 के लिए भरी हुई हैं, लेकिन दो-तीन अन्य कॉलेजों में कुछ सीटें खाली हैं. आपको डिग्री 2024 में मिल जाएगी. लेकिन आपको मुझे जल्द ही बताना होगा. नहीं तो आप ग्वालियर नर्सिंग कॉलेज के 2022 बैच में दाखिला ले सकते हैं.

ग्वालियर नर्सिंग कॉलेज उन 14 कॉलेजों में शामिल है, जिनका रजिस्ट्रेशन कलेक्टर की कार्रवाई के बाद रद्द कर दिया गया था.

इसलिए, यह तो साफ है कि उच्च न्यायालय में मामला निपटने और आईएनसी द्वार कॉलेजों का निरीक्षण करने से पहले, ऐसे न जाने कितने अप्रशिक्षित छात्र स्वास्थ्य देखभाल कार्यबल में प्रवेश पा जाएंगे. ऐसी स्थिति में मरीजों को चिकित्सा लापरवाही और जवाबदेही की कमी का सामना करना पड़ सकता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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