नई दिल्ली: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा जारी दिशानिर्देशों के मसौदे, जिसमें देश में उच्च शिक्षा में ‘बदलाव लाने’ के उद्देश्य से बहु-विषयक संस्थानों (मल्टीडिसप्लीनरी इंस्टीटूशन्स) के लिए राह तैयार करने हेतु डोमेन-स्पेसिफिक (किसी खास क्षेत्र से जुड़े) संस्थानों को चरणबद्ध रूप ख़त्म किये जाने की मांग की गयी है, के प्रति कॉलेजों की तरफ से अनिच्छा व्यक्त की जा रही है.
जिन कुछ शिक्षाविदों से दिप्रिंट ने बात की, उनमें से कुछ ने दावा किया कि वे इन मसौदा दिशानिर्देशों (ड्राफ्ट गाइडलाइन्स) को पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं, वहीं कुछ अन्य ने उनके लागू होने के बाद होने वाले संभावित नुकसान की ओर इशारा किया. कुछ अन्य ने तो यह भी कहा कि उन्हें इन मसौदा दिशानिर्देशों के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं है.
‘ट्रांसफॉर्मिंग हायर एजुकेशन इंस्टीटूट्स इन टू मल्टीडिसप्लीनरी इंस्टीटूशन्स’ शीर्षक वाले इन दिशा-निर्देशों में मुख्य रूप से तीन सुझाव दिए गए हैं – पहला कि सिंगल स्ट्रीम इंस्टीटूट्स (एक ही जैसे विषय पढ़ाने वाले संस्थान) अपने कार्यक्रमों के तहत ‘और अधिक विषय पेश करने’ के लिए आस-पास के बहु-विषयक संस्थानों के साथ अपने आप को एकीकृत कर ले, दूसरे कि और अधिक कॉलेज डिग्री देने वाले स्वायत्त संस्थान बनाया जाएं और तीसरे यह कि कम छात्रों को प्रवेश देने वाले कॉलेज का आस-पास के अन्य कॉलेजों में विलय हो.
इस दिशानिर्देशों को यूजीसी की वेबसाइट पर डाला गया है और यह 5 से 20 मार्च तक जनता की प्रतिक्रिया के लिए खुले थे.
दिप्रिंट से बात करते हुए, कई प्रोफेसरों और प्रधानाचार्यों ने सवाल किया कि किसी कॉलेज, जिसे एक स्वायत्त डिग्री-देने वाले संस्थान में बदल दिया गया हो, के द्वारा दी गई डिग्री को किसी विश्वविद्यालय द्वारा दी गई डिग्री के मुकाबले कैसे मापा जाएगा, खासकर तब जब किसी छात्र ने विदेश में आवेदन किया हो. वे ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले छात्रों पर कॉलेजों के विलय के संभावित प्रभाव के बारे में भी चिंतित थे और उन्हें यह भी चिंता थी इसके परिणामस्वरूप उन्हें ज्यादा दूरियों तक यात्रा करने की आवश्यकता होगी.
उन्होंने उन संभावित लॉजिस्टिक (साजोसामान वाली) समस्याओं की ओर भी इशारा किया, जो कॉलेजों के बीच सहयोग के कारण पैदा हो सकती हैं, खासकर अगर संस्थानों के पास संसाधनों के साथ-साथ शिक्षकों की भी कमी है.
‘विश्वसनीयता से जुड़े मुद्दे’
मसौदा दिशानिर्देशों में कहा गया है कि आने वाले समय के साथ, ‘हर कॉलेज या तो एक स्वायत्त डिग्री देने वाले कॉलेज के रूप में विकसित होगा या फिर किसी विश्वविद्यालय का एक घटक (कोंस्टीटूएंट) कॉलेज बन जाएगा.’
अहमदाबाद के महात्मा गांधी फिजियोथेरेपी कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ जसप्रीत कौर कांग ने कहा कि पहली श्रेणी वाले कॉलेजों द्वारा दी गई डिग्री के साथ विश्वसनीयता से जुड़े मुद्दे पैदा हो सकते हैं, जो इन छात्रों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हालांकि हम इस पहल की सराहना करते हैं, लेकिन इस के साथ कुछ शुरुआती समस्याएं हैं जिनसे हम जूझ रहे हैं.’
महात्मा गांधी फिजियोथेरेपी कॉलेज, जिसमें फ़िलहाल लगभग 300 छात्र नामांकित हैं, गुजरात यूनिवर्सिटी (जीयू) से संबद्ध है और इसके द्वारा निर्धारित नियमों का ही पालन करता है.
वे कहती है, ‘अभी, इंडियन एसोसिएशन ऑफ फिजियोथेरेपिस्ट हमारे पास हमारे ग्रेजुएट्स (स्नातकों) की भर्ती के लिए आता है, जो जीयू द्वारा निर्धारित डिग्री देने वाले मानकों पर भरोसा करता है. एक बार जब हम स्वयं से डिग्री देना शुरू कर देंगे तो क्या वे हमारे छात्रों को भर्ती करने के मामले में उसी स्तर की सहजता दिखाएंगे? मेरे कम-से-कम 20 प्रतिशत छात्रों का लक्ष्य विदेश में पढ़ाई या काम करना होता है. हमारे द्वारा दी गई डिग्री का किसी राजकीय विश्वविद्यालय (स्टेट यूनिवर्सिटी) द्वारा दी गई डिग्री के मुकाबले कितना महत्व होगा?’
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‘जमीन स्तर पर सहभागिता कठिन होगी’
यूजीसी द्वारा प्रस्तावित ‘सहभागी व्यवस्था’ (कोलेबोरेटिव अरेंजमेंट) के तहत, छात्र दोहरी डिग्री लेने में सक्षम होंगे – एक उनके मूल संस्थान में और दूसरी इसमें भागीदारी वाले संस्थान में. उदाहरण के तौर पर दो भिन्न संस्थान बीएससी और एमबीए के दोहरे डिग्री कार्यक्रमों की पेशकश करने के लिए आपस में साझेदारी कर सकते हैं.
नियमों के कहा गया है, ‘विश्वविद्यालय, राज्य सरकार, और / या नियामक संस्थाओं की मंजूरी के साथ दोहरी डिग्री की पेशकश करने के लिए साझेदारी वाले संस्थानों के बीच एक समझौता ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग) पर हस्ताक्षर किए जा सकते हैं.’
हालांकि, छोटे शहरों के कॉलेज इस बारे में आश्वस्त नहीं हैं कि यह कैसे काम करेगा.
उत्तर प्रदेश के मवाना में पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर ने कहा, ‘आप बस यह नहीं कह सकते हैं कि एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करें और आगे बढ़ जाएं. किस संस्था के साथ इस पर हस्ताक्षर करें, इसकी अनुकूलता (कंपैटिबिलिटी) और उद्देश्य क्या है? यहां तक कि इस तरह का सहयोग स्थापित करने के लिए अन्य कॉलेजों को ढूंढने जितना आसान काम भी जमीनी स्तर पर हमारे लिए असंभव जैसा है.’
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में नर्मदा महाविद्यालय में साहित्य पढ़ाने वाले एक अन्य प्रोफेसर ने उनका नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि उन्हें इन मसौदा दिशानिर्देशों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है.
इन प्रोफेसर ने कहा, ‘यहां किसी को भी कॉलेजो के विलय की योजना, और यह कैसे काम करेगा, की कोई जानकारी नहीं है. वैसे भी केंद्र सरकार की इन योजनाओं में से अधिकांश को छोटे शहरों के कॉलेजों के स्तर तक पहुंचने में लंबा समय लगता है.’
ग्रामीण छात्रों पर क्लस्टर कॉलेजों का प्रभाव
इन दिशानिर्देशों में सुझाव दिया गया है कि सिंगल-स्ट्रीम संस्थान और खराब नामांकन वाले बहु-विषयक संस्थान (मल्टीडिसप्लीनरी इंस्टीटूशन्स) एक क्लस्टर (समूह) के सदस्य बन सकते हैं और बहु-विषयक पाठ्यक्रम (मल्टीडिसप्लीनरी कोर्सेज) प्रदान कर सकते हैं.
मवाना के कृष्णक कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर तनुज कुमार ने कहा कि उनके छात्र कहीं और पढ़ने के लिए यात्रा नहीं कर पाएंगे.
कृष्णक कॉलेज छह विषयों में बीए पाठ्यक्रम, और साथ ही बीकॉम और बीएससी (गृह विज्ञान) पाठ्यक्रम प्रदान करता है. यह चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से संबद्ध है.
उन्होंने सवाल किया, ‘हमारे पास ऐसे छात्र हैं जो आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं. अगर कैंपस 10 किमी की दूरी पर भी हों, तो भी सार्वजानिक परिवहन व्यवस्था (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) इस्तेमाल करने वाले छात्र सिर्फ एक कोर्स के लिए कैसे यात्रा कर पाएंगे?’
उन्होंने यह भी बताया कि यूपी के कॉलेजों में ‘शिक्षकों की भर्ती कम होना’ एक बड़ी असुविधा है जिससे वे जूझ रहे हैं. उन्होंने बताया कि उनके कॉलेज में केवल छह प्रोफेसर हैं जो 1,500 छात्रों को पढ़ा रहे हैं. कुमार ने पूछा, ‘कॉलेज कैसे आपसे में सहयोग करेंगे या और अधिक कार्यक्रम जोड़ेंगे जब वे अपने ही छात्रों को पढ़ाने का प्रबंध बड़ी मुश्किल से कर पा रहे हैं?’
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