नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार एक बार फिर बड़े अंतर के साथ अपने विनिवेश लक्ष्य से चूक गई है. निवेश और लोक संपत्ति प्रबंधन विभाग (दीपम) की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, 31 मार्च 2022 को विनिवेश से मिली कुल रकम 13,561 करोड़ रुपये थी, जो 1.75 लाख करोड़ रुपये के मूल बजट लक्ष्य से 1.61 लाख करोड़ रुपये कम है.
सरकार ने इस साल 1 फरवरी को जब आम बजट पेश किया था, तो 2021-22 के लक्ष्य को संशोधित कर 78,000 करोड़ रुपये यानी मूल लक्ष्य का करीब 40 प्रतिशत कर दिया था.
प्रारंभिक लक्ष्य के मुताबिक, राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों के निजीकरण से सरकार को लगभग 75,000 करोड़ रुपये मिलने की संभावना थी, जबकि विनिवेश—सार्वजनिक उपक्रमों में सीमित हिस्सेदारी बेचने—से 1 लाख करोड़ रुपये हासिल होने की उम्मीद थी.
हालांकि, विनिवेश से राजस्व जुटाने में कमी का नतीजा यह हुआ है कि एक बड़े अंतर को सरकार को राजस्व के अन्य स्रोतों के साथ पूरा करना पड़ा है. शुरुआती अनुमानों से पता चलता है कि सरकार 2021-22 में करों से एक लाख करोड़ रुपये अधिक जुटाने में कामयाब रही है. हालांकि, यह विनिवेश की कमी को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जो कि सकल घरेलू उत्पाद का 0.8 प्रतिशत होने का अनुमान है.
दिप्रिंट ने जिन सरकारी अधिकारियों से बात की उनका कहना है कि वे जानते हैं कि लक्ष्य हासिल करना मुश्किल था, लेकिन इसमें इतनी ज्यादा कमी की उम्मीद नहीं थी.
सरकारी अधिकारियों में से एक ने कहा, ‘इतना बड़ा अंतर रह जाने का एक प्रमुख कारण तो यह है कि सरकार पिछले वित्तीय वर्ष में जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को सूचीबद्ध करने में अक्षम रही, जिससे विनिवेश राजस्व का बड़ा हिस्सा मिलना था.’
इसके अलावा, देश में दूसरी कोविड लहर के कारण 2021 की अप्रैल-जून तिमाही में और उसके बाद जनवरी में तीसरी लहर तक बाजार में कायम रही अस्थिरता के कारण कुछ बड़ी कंपनियों भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल), शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एससीआई), प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट लिमिटेड (पीडीएल), इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स इंडिया लिमिटेड और पवन हंस लिमिटेड आदि के निजीकरण की योजना टल गई.
पिछले प्रदर्शनों की तुलना
हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब सरकार अपने विनिवेश लक्ष्य से चूकी है. 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से सरकार केवल छह बार अपने लक्ष्यों को पाने में सफल रही है.
2019 में शुरू हुई मोदी सरकार की दूसरी पारी में अब तक एक बार भी विनिवेश का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है. इस दौरान लक्ष्यों से चूकने की सीमा काफी ज्यादा रही है, जो लक्ष्य के 50 से 90 प्रतिशत तक है. प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान 2014-19 के बीच सरकार ने पांच में से तीन साल में लक्ष्य पूरे करने में सफल रही थी.
यद्यपि निरपेक्ष तौर पर 2014 के बाद से विनिवेश लक्ष्य हासिल करने में चूक वित्तीय वर्ष 2020-21 में सबसे अधिक थी जो कि 1,72,103 करोड़ रुपये थी, लेकिन उच्च लक्ष्य (2,10,000 करोड़ रुपये) के कारण प्रतिशत के संदर्भ में यह आंकड़ा वित्त वर्ष 2021-22 में उच्चतम रहा है जो कि निर्धारित लक्ष्य का 92 प्रतिशत है.
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2022-23 के लिए तर्कसंगत लक्ष्य का निर्धारण
इनीशियल पब्लिक ऑफर (आईपीईओ) के माध्यम से शेयरों की बिक्री या ऑफर फॉर सेल के जरिये राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों में सीमित हिस्सेदारी बेचने पर फोकस घटा है. इसके बजाये, सरकार अब राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों के निजीकरण पर पूरा जोर दे रही है.
सरकार पिछले साल जिस एकमात्र कंपनी के निजीकरण में कामयाब रही, वह राष्ट्रीय विमानन कंपनी एयर इंडिया है, जिसे टाटा समूह को 18,000 करोड़ रुपये में बेचा गया था. इसमें केवल 15 फीसदी हिस्सा ही सरकार को मिला जबकि बाकी रकम एयर इंडिया का कर्ज चुकाने में चली गई.
2021-22 में निजीकरण के लिए प्रस्तावित कंपनियों की सूची में आईडीबीआई बैंक भी शामिल थी. इसके अलावा, सरकार दो सरकारी बैंकों और एक बीमा कंपनी का भी निजीकरण करना चाह रही थी. हालांकि, इन संस्थाओं की बिक्री से मिलने वाली रकम पिछले वित्त वर्ष के लिए बजट में विनिवेश लक्ष्य का हिस्सा नहीं थी.
2022-23 के लिए सरकार ने 65,000 करोड़ रुपये का मामूली विनिवेश लक्ष्य ही निर्धारित किया है, जिसे शायद केवल एलआईसी को सूचीबद्ध करके ही पूरा किया जा सकता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार ने महसूस किया है कि हर साल राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए विनिवेश से मिलने वाली रकम के भरोसे नहीं रहना चाहिए और इसलिए तर्कसंगत लक्ष्य तय करना सबसे अच्छा विकल्प है.
एक अर्थशास्त्री और शोध फर्म क्वांटइको संस्थापक शुभदा राव का कहना है, ‘वित्त वर्ष 2023 के लिए निर्धारित विनिवेश लक्ष्य 65,000 करोड़ रुपये होना काफी तर्कसंगत प्रतीत होता है.’
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