इमरान खान को अपने माजी के बारे में बात करने से परहेज है. वे वर्तमान में जीना पसंद करते हैं. उनसे उनके क्रिकेट करियर, उस दौर के इमरान खान जब उनकी प्ले बॉय वाली थी, वैवाहिक जीवन और तो और 1992 में पाकिस्तान की वर्ल्ड कप में कामयाबी पर बात करने से भी कुछ नहीं निकलता. अब वे सियासत कर रहे हैं और उसमें पूरी तरह से डूब चुके हैं. वे गुजरे दौर को अगर भूले नहीं भी हैं तो उसे कम से कम बहुत पीछे छोड़ चुके हैं. बेशक, वे मूलत: और अंतत: प्राइवेट पर्सन हैं.
हां, अगर बात का रुख उनकी मां शौकत खानम की तरफ चला जाए तो उनका चेहरा खिल सा जाता है. आप इसी रास्ते पर चलकर उनकी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को जानने की कोशिश कर सकते हैं.
इमरान खान के साथ सन 2004 में दिल्ली में लगभग दो दिनों तक साथ रहने का मौका मिला था. वे तब हिन्दुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में भाग लेने के लिए आए थे. इसके बाद उनके साथ 2015 में एक पूरा दिन गुजारा था. इस बार वे वर्ल्ड इंटर फेथ कांफ्रेस में शिरकत करने आए थे. वे तब तक तहरीके इंसाफ पार्टी (पीटीआई) खड़ी कर चुके थे. वे अपने देश की सियासत में ‘चौधरी’ और ‘वढ़ेरे’ वाली संस्कृति को ललकाराना चाहते थे. पाकिस्तान में चौधरी और वढ़ेरे कहा जाता है उन शक्तिशाली लोगों के लिए जिनके पास धन बल की ताकत है और वे ही राजनीति के मैदान में भी कब्जा जमाए हुए थे.
भारत से है गहरा नाता
बहरहाल, इमरान खान से जब बात हो तो वे सवालों के जवाब देने से बचते या कहें कि उनके आधे-अधूरे उत्तर ही मिलते. संयोग से हमने उनसे पूछ लिया कि ‘क्या वे अपनी ननिहाल जालंधर, वहां के इस्लामिया कॉलेज और मां के जन्म स्थान बस्ती दानिशमंदा में भी कभी गए?’ इस सवाल को सुनकर वे मुस्कराने लगे. उन्होंने पंजाबी में पूछा- ‘तैन्नू किंज इल्म होया इन गलां दा ( तुम्हें इन सब बातों का कब पता चला?). हमने जवाब दिया कि ‘हम तो जानते थे.’ अब वे राजधानी के मौर्या शेरटन होटल के अपने राजसी कमरे से दिल्ली की हरियाली को देखते हुए बताने लगे- ‘जालंधर में मेरे नाना जी अहमद हसन साहब ने इस्लामिया कॉलेज खोला था.
मेरे नाना के वालिद साहब अहमद शाह खान जालंधर में सेशन जज थे. वहां पर ही मेरी मां की पैदाइश हुई. वहां ही वो 1947 तक रहीं. उनकी वहां बहुत सी सहेलियां थीं जिनका वो बाद में जिक्र करती थी. मेरी मां का खानदान गुजरे 500 सालों से जालंधर के आसपास ही रहता था. वे बर्की पठान थे. मैं 1983 में भारत के दौरे पर आया तो अपने ननिहाल गया था.’ उन्होंने अपना उत्तर पूरा किया तो हमने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘सर, जिया उल हक और नुसरत फतेह अली खान भी तो जालंधर के ही थे.’
इमरान खान ने जिया उल खान का नाम सुनते ही कहा- ‘जिया हौरी अंरई सी ( जिया अरंईं परिवार से थे). पंजाब में सब्जी के धंधे से जुड़े लोगों को अरंई कहा जाता है. हमारी बातचीत के मानो केन्द्र में जालंधर आ चुका था. वे कह रहे थे ‘ जालंधर के बिना पाकिस्तान अधूरा है. वहां पर जालंधर से आकर बसे लोग असरदार हैं.’
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उस समिट में पाकिस्तान में उर्दू भाषियों के हकों के लिए लड़ने वली मुताहिदा कौमी मुवमेंट (एमक्यूएम) के फाउंडर और प्रखर नेता अल्ताफ हुसैन भी आए थे. हालांकि दोनों हम वतन एक दूसरे से दूर-दूर थे. उनमें किसी तरह की गुफ्तुगू होने का तो सवाल ही नहीं था. अल्ताफ हुसैन ने समिट में दिए अपने ओजस्वी वक्तव्य में कहा था कि पाकिस्तान बनने से किसी को भी लाभ नहीं हुआ. वे पाकिस्तान में यूपी और बिहारी मुसलमानों की हालत पर खुलकर बोले थे. इससे इमरान खान कुछ झेंप से गए थे. इमरान खान कहने लगे– ‘मुताहिदा कौमी मुवमेंट (एमक्यूएम) वाले बड़े जालिम हैं. इन्होंने कराची को तबाह कर दिया है. ये शरीफ लोगों का कत्ल करते रहते हैं. इनसे मेरा किसी भी तरह तालमेल कभी नहीं होगा.’ हालांकि 2004 और 2022 में बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है. इमरान खान की अब कुर्सी खतरे में है और वे विभिन्न सियासी दलों से सपोर्ट मांग रहे हैं. इस मौके पर उन्हें एमक्यूएम का साथ मिल रहा है. हां, अब एमक्यूएम की सरपरस्ती अल्ताफ हुसैन के पास नहीं है. वे लंदन में रहते हैं.
इमरान खान सम्मेलन के दूसरे दिन हमसे कहने लगे कि मगरिब की नमाज जामा मस्जिद में पढ़ने का मन है. उसके बाद ही रोज खोलेंगे. तब रमजान का महीना चल रहा था. वह उनकी एक तरह से हमारे से पहली बार मांग हुई थी. हमने तुरंत व्यवस्था की. जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी से बात हुई. उन्होंने कहा कि ‘इमरान खान जामा मस्जिद में आएं. हम उनका इंतजार करेंगे.’ वह तारीख थी 4 नवंबर, 2004. हम उनको लेकर जामा मस्जिद पहुंचे. हमारे साथ में लेखक और अब मौलाना आजाद उर्दू यूनिवर्सिटी के चांसलर फिरोज बख्त अहमद भी थे.
इमरान खान के साथ उनके पाकिस्तान से आए कुछ मित्र थे. ये खाससार और फिरोज बख्त अहमद मौर्या शेरटन होटल से इमरान खान को लेकर कार पर जामा मस्जिद के लिए निकले. कार चल रही थी और वे दिल्ली को निहार रहे थे. कई जगहों पर उन्हें मस्जिदें दिखाईं दीं. जब कार ने कनॉट प्लेस से मिन्टो रोड की तरफ का रुख किया तो वो कहने लगे, ‘यार, दिल्ली में मस्जिदें बहुत हैं.’ फिऱ वो पंजाबी में बोले, ‘मुझे इधर पंजाबी बोलने वाले बहुत मिल रहे हैं. लाहौर और दिल्ली का फर्क नजर ही नहीं आ रहा.’ किसी ने जवाब दिया, ‘दिल्ली में लाहौर से ज्यादा लाहौरिये हैं.’
उन्होंने पूछा, ‘ कैसे?’. जवाब मिला कि विभाजन के बाद लाहौर के हजारों हिन्दू-सिख परिवार यहां पर आकर बस गए थे. इसलिए दिल्ली पर लाहौरियो का असर तो है. ये जानकारी मिलने पर वे हैरान जरूर हुए थे. अभी बातचीत जारी ही थी कि हम जामा मस्जिद में पहुंच गए थे. वहां पर उनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ. मगरिब की नमाज से कुछ पहले सब लोग जामा मस्जिद में थे. उन्होंने नमाज अदा की और फिर रोजा खोला. उन्होंने जामा मस्जिद से एक संक्षिप्त तकरीर भी की. वे कुछ पलों तक जामा मस्जिद में एक साथ बैठे सैकड़ों रोजेदारों को देखते रहे थे. वहां पर इस तरह का मंजर रमजान के दौरान रोज देखा जा सकता है. कुछ देर अपने प्रशसंकों के साथ गुजारने के बाद वे वापस जामा मस्जिद की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए कह रहे थे- ‘आज मैंने इस बुलंद मस्जिद में आकर हिन्दुस्तान को जाना.’
इमरान खान पूछने लगे, ‘जामा मस्जिद की मेंटिनेंस कौन देखता है?’ बताया गया कि आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया. ‘बहुत अच्छी तरह से मेनटेन है,’ उन्होंने कहा.
(विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार और Gandhi’s Delhi के लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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