इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालय में यह समस्या सबसे ज्यादा है, जहाँ एससी और एसटी के लिए आरक्षित 98.36 और 93.10 प्रतिशत सीटें खाली हैं।
नई दिल्ली: केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के स्तर पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 80 प्रतिशत से अधिक सीटें वर्तमान में रिक्त हैं।
ऐसे समय में जब केन्द्रीय विश्वविद्यालय शिक्षकों के आरक्षण के मुद्दे पर पहले से ही विवादों में हैं तब दिप्रिंट द्वारा दायर किये गये आरटीआई आवेदन के जवाब में सरकार की प्रतिक्रिया से पता चला है कि 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित 1,125 सीटों में से 94 सीटें 1 जनवरी 2018 तक खाली थीं।
जबकि बड़े पैमाने पर रिक्तियां देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक समस्या है, 33 प्रतिशत शिक्षक पद खाली पड़े हैं और आरक्षित सीटों के मामले में समस्या बहुत अधिक है। जबकि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में रिक्तियां 76.99 प्रतिशत हैं, वहीं अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों में इसका प्रतिशत 87.5 है।
क्या पर्याप्त उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं?
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, “जब आरक्षित सीटों की बात आती है तो विश्वविद्यालय अक्सर उपयुक्त उम्मीदवार न मिल पाने की समस्या का हवाला देते हैं लेकिन असल बात यह है कि वे सीटें जो बहुत अमूर्त और विशेष विभागों में आरक्षित हैं वहाँ उम्मीदवारों की तलाश करना मुश्किल होता है।” उन्होंने आगे कहा कि “अंग्रेजी, इतिहास इत्यादि जैसे लोकप्रिय विभागों में सीट शायद ही कभी आरक्षित होती हैं।”
मार्च में, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने एक अधिसूचना जारी की थी जिसमें घोषणा की गई थी कि विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में आरक्षित शिक्षक पदों की संख्याओं की गणना विश्वविद्यालय न करके विभागवार की जाएगी। विशेषज्ञ इससे चिंतित हैं कि ऐसी अधिसूचना संकाय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व और भी कम करने के लिए बाध्य है।
उदाहरण के लिए, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में जहाँ आरक्षणों की गणना विभागवार की जाती है, वहीं कानून द्वारा अनिवार्य 22.5 प्रतिशत के विपरीत प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर के स्तर पर कुल सीटों का केवल 4.06 प्रतिशत ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित है।
न्यून प्रतिनिधित्व
इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले के आधार पर आया नया यूजीसी फॉर्मूला केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बाद अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक दिया गया है। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि यह फॉर्मूला “अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय के सदस्यों के प्रतिनिधित्व को कम करता है और कई विभागों में इनके प्रतिनिधित्व को पूरी तरह से समाप्त करता है।”
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जिसे 2005 में केंद्रीय विश्वविद्यालय मान लिया गया था, में आरक्षित सीटों में से 98.36 प्रतिशत खाली पड़ी सीटों के साथ स्थिति सबसे खराब है। कुमार कहते हैं, “उनको हाल ही में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनाया था, लेकिन वे अभी भी काम राज्य विश्वविद्यालय के अंदाज में करते हैं।” इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह आंकड़ा 1 अप्रैल 2017 की जानकारी पर आधारित है, तब से विश्वविद्यालय ने नवीनतम जानकारी नहीं दी है।
हालांकि, दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय क्रमशः 93.10 प्रतिशत, 70.96 प्रतिशत और 75 प्रतिशत रिक्तियों के साथ बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं।
दलित नेता अशोक भारती कहते हैं, “उच्च शिक्षा के विश्वविद्यालय और संस्थान उच्च जाति और उच्च वर्गीय ब्राहमण रूढ़िवादिता के अंतिम गढ़ हैं।” उन्होंने कहा कि “ज्ञान प्रणाली अभी भी ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित है।”
एक तरफ जहाँ प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर के स्तर पर दोनों समुदायों का प्रतिनिधित्व कम है वहीं दूसरी तरफ यह सहायक प्रोफेसर के प्रवेश स्तर पर अपेक्षाकृत बेहतर है।
ओबीसी पूरी तरह गायब
चाहे कितना ही खराब हो, एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व अभी भी उनके ओबीसी समकक्षों की तुलना में बेहतर है, जिनके पास सहायक प्रोफेसर और प्रोफेसर स्तर पर कोई भी सीट आरक्षित नहीं है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 27 प्रतिशत आरक्षण अनिवार्य किया हो लेकिन 2016 में यह आरक्षण यूजीसी द्वारा वरिष्ठ शिक्षक स्तर पर ख़त्म कर दिया गया था। 2016 में आयोग द्वारा गठित नियम के अनुसार, शिक्षक पदों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण केवल सहायक प्रोफेसर के स्तर तक ही सीमित था।
दिल्ली विश्वविद्यालय के महाराजा अग्रसेन कॉलेज के एक शिक्षक सुबोध कुमार तर्क देते हैं कि “विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का ओबीसी के लिए आरक्षण रद्द करने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय का अनादर है जो कहता है कि सभी सरकारी संस्थानों में इस श्रेणी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा कि “आयोग अपने नियमों के साथ आ रहा है जिनसे हम लड़ते रहते हैं। हम लम्बे समय से इस आरक्षण आदेश के विरुद्ध लड़ते रहे हैं लेकिन अब यह आन्दोलन मजबूती की तरफ नहीं बढ़ रहा है क्योंकि विश्वविद्यालय प्रणाली में ओबीसी के कम प्रतिनिधित्व का होना भी इसके पीछे एक कारण है।”
कृतिका शर्मा से इनपुट्स के साथ
Read in English: Central universities have over 80 per cent reserved seats for senior faculty lying vacant