रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे संकट ने बहुत से देशों को कई सीख दी हैं. सैन्य और अर्थव्यवस्था दोनों मामलों में इसका विश्व व्यवस्था पर बड़े पैमाने पर असर होगा. जहां तक भारत का सवाल है, इस लड़ाई ने स्वदेशी रक्षा प्रणालियों के महत्व को बहुत स्पष्ट कर दिया है, क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद, भारत दुनिया में सबसे बड़ा रक्षा आयातक है, जिसकी अधिकतर ख़रीदारी रूस से होती है.
रूस-यूक्रेन संघर्ष के साथ ही, कई तकनीकें फोकस में आ गईं हैं, जिनमें मैन पोर्टेबल एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल (MPATGM) और सशस्त्र ड्रोन्स शामिल हैं. भारत के अपने कार्यक्रम एक दुखद स्थिति को दर्शाते हैं. MPATGM की संकल्पना मूल रूप से 1980 के दशक में एकीकृत गाइडेड मिसाइल विकास कार्यक्रम के हिस्से के रूप में की गई थी और इसे विकसित करने का काम 2013 से चल रहा है लेकिन अभी ये तक फलीभूत नहीं हुआ है.
इस बीच, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने 2020 की अपनी एक रिपोर्ट में, भारत के सशस्त्र ड्रोन्स कार्यक्रम- रुस्तम- की आलोचना की थी, जिसमें कहा गया था कि अंतिम उपयोगकर्त्ताओं को अंधेरे में रखे जाने, ख़राब योजना बनाने और मानक संचालन प्रक्रियाओं के उल्लंघन ने, मानव-रहित विमान परियोजनाओं (यूएवी) को नुक़सान पहुंचाया.
हेलिकॉप्टर से लॉन्च की जाने वाली नाग मिसाइलें विकसित करने पर 2012 से काम चल रहा है और पूरा होने की तिथि में बार बार विस्तार और लागत बढ़ाने के बाद भी, उन्हें अभी तक सेवाओं में शामिल नहीं किया गया है. क्विक रिएक्शन सरफेस टु एयर मिसाइलों को सेना में शामिल किए जाने में भी, अत्यधिक देरी का सामना करना पड़ रहा है, जबकि वायु सेना को ज़मीन से हवा में मार करने वाले मध्यम दूरी के मिसाइल पिछले साल ही प्राप्त हुए हैं जिनके लिए रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीओरडीओ) के साथ अनुबंध पर, 2007 में हस्ताक्षर किए गए थे.
रक्षा मंत्रालय ने स्वदेशीकरण की संस्कृति को लाने के लिए कई क़दम उठाए हैं. लेकिन, अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) पर हाल में दिया गया ज़ोर ही, दीर्घ-काल में भारत को लाभ पहुंचाएगा.
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स्वदेशी कार्यक्रमों की समीक्षाएं
दिप्रिंट को पता चला है कि पिछले डेड़ महीने में भारत के स्वदेशी रक्षा नज़रिए की एक व्यवस्थित और सम्मिलित समीक्षा की गई है. इसके तहत कई बैठकें हुईं जिनमें तीनों सेवाओं के प्रमुखों और उप और डिप्टी प्रमुखों समेत, सरकार के शीर्ष पदाधिकारियों ने हिस्सा लिया.
सरकार अनुसंधान तथा विकास को बढ़ावा देने के तरीक़ों पर गंभीरता से विचार कर रही है और डीआरडीओ के कामकाज पर उसका ख़ास ध्यान है. समझा जाता है कि बलों ने भी डीआरडीओ के नवीकरण को लेकर कई सुझाव दिए हैं- जिसपर पहले भी चर्चा होती रही है, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली, जिसमें 2019 में एक संसदीय पैनल की कोशिशें भी शामिल हैं.
सीएजी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, डीआरडीओ में 180 वैज्ञानिकों की कमी है और आश्चर्यजनक रूप से उसने अपने 38 वैज्ञानिक सिविल निर्माण कार्यों में लाए हुए हैं- एक ऐसा क्षेत्र जहां पहले ही ज़रूरत से अधिक संख्या मौजूद है.
1958 में केवल 10 लैबोरेट्रीज़ से शुरुआत करने वाली डीआरडीओ, एक विशाल संस्था बन गई है, जिसके पास देश भर में 52 लैबोरेट्रीज़ और प्रतिष्ठानों का एक विशाल नेटवर्क है. दुखद ये है कि आज़ादी के बाद से अभी तक अपने दम पर, ये भारतीय सशस्त्र बलों के लिए एक भी तकनीकी रूप से समकालीन, या भविष्यवादी प्लेटफॉर्म या क्षमता विकसित नहीं कर सका है. सशस्त्र बलों के सूत्रों का कहना है कि अपनी तकनीकी विशेषज्ञता को साबित करने के लिए, डीआरडीओ ने विभिन्न हथियार मंचों के ‘अवधारणा के सुबूत’ के प्रदर्शनों का भारी विज्ञापन किया है जबकि बड़े पैमाने पर उनके उत्पादन और ग्राहकों द्वारा उनके अभिग्रहण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. ज़ाहिर है जिनके लिए वो डिज़ाइन किए गए हैं’. सिफारिशों का सुझाव देने के लिए, केलकर, कारगिल, और रामा राव कमेटियों समेत, बहुत से समूह नियुक्त किए गए थे, लेकिन बहुत कम सिफारिशों पर अमल किया गया.
इसमें कोई शक नहीं कि डीआरडीओ को, ऊंची और उभरती हुई भविष्यवादी तकनीकों में अनुसंधान करना होगा ताकि उनका बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सके और उन्हें सशस्त्र बलों के युद्ध लड़ने के तरीक़ों के अनुकूल बनाया जा सके, ना कि तुरंत खाने के लिए तैयार भोजन, कपड़े, लेह बेरी जूस और अब महामारी के बीच निजी सुरक्षा उपकरण और हैंड सैनिटाइज़र्स बनाए जाएं.
डीआरडीओ के पास फिलहाल 52 लैब्स, 26,000 कर्मी और 3,000 करोड़ रुपए से अधिक का बजट है. डीआरडीओ की फंडिंग रक्षा बजट का 6 प्रतिशत और देश के भीतर पूरे आरएंडडी ख़र्च का 20 प्रतिशत है. इसके बाद भी, संस्थान नियमित रूप से फंडिंग की कमी की दुहाई देता रहता है और अनुचित रूप से अपनी स्थित की तुलना अमेरिका की डिफेंस अडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (डीएआरपीए) से करता है जिसके पास न तो कोई बंधक बाज़ार है और ना ही भारी श्रम शक्ति वाले सरकारी प्रतिष्ठान हैं.
अपनी ताज़ा रिपोर्ट में रक्षा पर संसदीय स्थायी समिति ने कहा है कि अमेरिका, रूस, और चीन जैसे देशों की डिफेंस फंडिंग की तुलना में, ‘हमारा रक्षा (आरएंडडी) व्यय बहुत कम है’. इसमें कोई शक नहीं कि रणनीतिक रक्षा प्रणालियों में डीआरडीओ काफी सफल रहा है लेकिन सामरिक रक्षा प्रणालियां डिज़ाइन करने में वो बुरी तरह नाकाम रहा है- जो सशस्त्र बलों का एक मुख्य आधार हैं.
सशस्त्र बलों में बहुत से लोग तर्क देते हैं कि हमारी स्वदेशी रक्षा प्रणालियों ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के कार्यक्रम की पीठ पर सवारी की है.
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बलों तथा DRDO के बीच भरोसे की कमी
डीआरडीओ परियोजनाएं समय और लागत दोनों की बढ़ोतरी का शिकार हैं, अत्यधिक देरी गुणवत्ता, दूसरे मुद्दों को लेकर उनके और सशस्त्र बलों के बीच भरोसे की भी कमी है.
डीआरडीओ जीएसक्यूआर्स (सामान्य स्टाफ गुणवत्ता आवश्यकताओं) में बार बार बदलाव के लिए सेवाओं को दोष देता है लेकिन दरअसल समय की देरी इतनी अधिक होती है कि डीआरडीओ के प्रोटोटाइप तैयार करने से पहले ही उपकरण की तकनीक पुरानी पड़ चुकी होती है जिससे मजबूरन जीएसक्यूआर में बदलाव करने पड़ते हैं. सूत्रों ने समझाया कि ये फिर एक दुष्चक्र बन जाता है.
डीआरडीओ पर आरोप हैं कि व्यवहारिकता का उचित अध्ययन किए बिना वो परियोजनाओं को आसानी से स्वीकार और लॉन्च करता रहता है. बहुत सी परियोजनाओं के लिए तो डीआरडीओ के पास फंड्स, मानव संसाधन या ऐसी स्टडीज़ करने की तकनीकी क्षमता तक नहीं होती.
एक बार शुरू हो जाने के बाद, परियोजनाओं को जल्द पूरा करने के लिए कोई संरचनात्मक पियर रिव्यूज़ या पर्याप्त प्रणालियां नहीं होतीं. भले ही, सभी पेशेवर पर्यवेक्षकों को उनकी ग़ैर-व्यवहार्यता साफ नज़र आती हो. सूत्रों का कहना है कि ‘कहीं नहीं जा रहीं’ ये परियोजनाएं, बहुत से मामलों में इसी तरह की प्रणालियों के आयात की संभावना को ख़त्म कर देती हैं जिसके नतीजे में सशस्त्र सेवाओं की इनवेंट्री में गंभीर परिचालन अंतराल पैदा हो जाते हैं.
आरोप ये है कि डीआरडीओ बहुत सारी परियोजनाओं की पहल सेवाओं को सूचित किए बिना ही कर देता है जो उसकी अंतिम उपयोग कर्ता होती हैं. बहुत सारी परियोजनाओं में उसने यूज़र्स को शामिल किए बिना ही समय सीमा तथा वित्तीय सीमा दोनों को विस्तारित कर दिया है.
सूत्रों ने बताया कि 7.62 एमएम एलएमजी, माउंटेड गन सिस्टम, 600 एचपी इंजिन, पैरिमीटर सर्वेंलेंस और रेस्पॉन्स सिस्टम, वो प्रौद्योगिकी प्रदर्शक हैं, जो सेवाओं को शामिल किए बिना शुरू किए गए.
रक्षा और अनुसंधान के लिए आगे का रास्ता
डीआरडीओ को हर समय तेज़ी से बढ़ती जा रही प्रतिष्ठानों की संख्या को सुव्यवस्थित करना होगा और ग़ैर-वैज्ञानिक श्रमबल को कम करने के लिए प्रशासनिक कार्यों को आउटसोर्स करना होगा. डीआरडीओ में सशस्त्र बलों की भूमिका बढ़ाने और अंतिम उपयोगकर्त्ता की ज़रूरतों को ध्यान में रखने के लिए, विज्ञान व प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी प्रदर्शक परियोजनाओं के लिए चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष या चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की मंज़ूरी होनी चाहिए.
ऐसी तमाम डीआरडीओ लैब्स को बंद कर दिया जाना चाहिए, जो कपड़े, कृषि उत्पाद और अब हैंड-सैनिटाइज़र्स जैसी, बाज़ार में उपलब्ध वस्तुएं बनाने में लगी हैं. प्रमुख परियोजनाओं के मामले में, आपसी परामर्श के ज़रिए सशस्त्र बलों के एक या दो सितारा वरिष्ठ जनरल ऑफिसर्स को सलाहकार और वार्त्ताकार दोनों हैसियतों से डीआरडीओ में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाना चाहिए.
सफलता पाने वालों के लिए इनाम और बोनस का सिस्टम शुरू किया जाना चाहिए, और काम न कर पाने वालों को, क़ानूनी उपायों के ज़रिए बाहर कर दिया जाना चाहिए.
व्यक्त विचार निजी हैं.
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