युद्ध की जड़ें मनुष्य के दिमाग में जमी हुई हैं और युद्ध विश्व शांति को भंग करते रहते हैं. यूक्रेन युद्ध इस अभिशाप का सबसे ताजा उदाहरण है. यह दूसरे युद्धों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह यूरोप में हो रहा है. पूरब से पश्चिम तक यूरोप का भू-राजनीतिक विस्तार कल्पना की उड़ान है, जिसके मुताबिक वह ब्रिटेन से लेकर रूस के प्रमुख हिस्सों तक फैला है. इतिहास पर नज़र डालें तो दोनों विश्व युद्ध और दूसरी कई लड़ाइयां यूरोप से शुरू हुईं. जिन दुश्मनियों की वजह से पहले के युद्ध हुए, वे और मजबूत होकर फिर से उभर सकती हैं.
इसलिए, यूक्रेन में जो हो रहा है वह किसी के लिए भी चिंता का कारण होना चाहिए, बशर्ते वह यह न मानता हो कि यह युद्ध नहीं है. अब जो सवाल उभरता है वह भू-राजनीतिक और ऐतिहासिक सवाल है कि क्या युद्ध को स्थान और समय में सीमित किया जा सकता है?
यह भी पढ़ें: ‘सूचना के मैदान-ए-जंग’ के बारे में सेनाध्यक्ष की चेतावनी की अनदेखी नहीं की जा सकती
वीटो और वोट देने से परहेज
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 26 फरवरी की बैठक में जिस प्रस्ताव का मसौदा पेश किया गया उसका मकसद रूस के सैन्य आक्रमण को खत्म करना था मगर उसे खारिज कर दिया गया. इसे 11 सदस्य देशों का समर्थन मिला मगर रूस, इसे वीटो कर दिया और भारत, चीन और यूएई इससे अलग रहे. अमेरिकी प्रतिनिधि ने कहा कि यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन करने के लिए रूसी संघ को जवाबदेह बनाया जाए.
रूस का वीटो इस मान्यता पर आधारित था कि यह प्रस्ताव यूक्रेन की जनता के हितों के खिलाफ है. उसने कहा कि मुख्य मसलों पर विचार नहीं किया गया है, हालांकि मसौदे में मिंस्क समझौतों का पालन करने की बात शामिल की गई है और नॉर्मेंडी फॉर्मैट (फ्रांस, जर्मनी, रूसी संघ) तथा त्रिपक्षीय संपर्क समूह (यूक्रेन, रूसी संघ, यूरोप में सुरक्षा तथा सहयोग के संगठन, ओएससीई) जैसे प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय फ्रेमवर्क के दायरे के अंदर रचनात्मक काम करने की बात की गई है. रूस ने सुरक्षा परिषद को आश्वासन दिया कि उसकी सेना शहरों या नागरिकों को निशाना नहीं बना रही है.
चीन के प्रतिनिधि ने कहा की उसने वोट इसलिए नहीं दिया क्योंकि ‘सुरक्षा परिषद की प्रतिक्रिया को काफी सावधानी से लेना चाहिए, जिसके साथ कार्रवाई ऐसी हो कि आग और भड़के नहीं बल्कि शांत हो. यूक्रेन को पूरब और पश्चिम के बीच पुल बनना चाहिए, न कि महाशक्तियों के लिए कोई चौकी’.
भारत ने भी वोट नहीं दिया और मतदान के बाद उसके प्रतिनिधि ने हमलों को तुरंत रोकने की अपील की और यूक्रेन में फंसे भारतीय समुदाय को लेकर चिंता जाहिर की. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि विवादों के निपटारे के लिए बातचीत ही एकमात्र रास्ता है. उन्होंने अफसोस जाहिर किया कि कूटनीति को छोड़ दिया गया है और उस रास्ते पर फौरन वापस आने की जरूरत है.
सुरक्षा परिषद इस प्रस्ताव को पास करने में विफल रही, तो इसके 24 घंटे के अंदर ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के 11वें इमरजेंसी विशेष अधिवेशन में 28 फरवरी को इसी तरह का मसौदा पेश किया गया. काफी जोरदार बहस के बाद यह प्रस्ताव 141 मतों के बहुमत से पारित किया गया, जिनमें से पांच देशों— रूस, बेलारूस, उत्तरी कोरिया, इरिट्रिया और सीरिया ने इसका विरोध किया. भारत और चीन उन 35 देशों में शामिल थे जिन्होंने वोट नहीं दिया.
यह भी पढ़ें: जनरल बिपिन रावत के बाद नए CDS की नियुक्ति में देरी – क्या ये वफादारी की जांच का पैमाना है?
संयुक्त राष्ट्र
रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है, इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता. इस तरह की कार्रवाई में यह संभावना जुड़ी है कि कमजोर पक्ष यूक्रेन कितना समर्थन जुटा सकता है. यूक्रेन संबंधी प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुई बहस में अमेरिकी प्रतिनिधि ने कहा, ‘संयुक्त राष्ट्र का अगर कोई मकसद है तो वह है युद्ध न होने देना, उसकी निंदा करना, उसको रोकना. आज हमारा यही काम है. आप सबको यह काम आपकी अपनी ताकत के बूते ही नहीं बल्कि मानवता के नाते भी करने के लिए यहां भेजा गया है.’
हकीकत यह है कि संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था में महासभा द्वारा किसी प्रस्ताव का पारित होना सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के वीटो का बंधक होता है. यह याद दिलाता है कि संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है. भारत काफी समय से इसकी जोरदार मांग करता रहा है.
रूसी प्रतिनिधि ने विरोध करते हुए कहा, ‘यह दस्तावेज़ हमें सैन्य कार्रवाई खत्म करने की इजाजत नहीं देगा. इसके विपरीत यह कीव के उग्रपंथियों और राष्ट्रवादियों को किसी भी कीमत पर अपने देश की नीति तय करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.’
उन्होंने रूस के कदम को पहले से जारी गृहयुद्ध में रूसी संघ का ‘स्पेशल मिलिटरी ऑपरेशन’ नाम दिया. उन्होंने आश्वासन दिया कि रूस नागरिकों और नागरिक ठिकानों पर हमला नहीं करेगा. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से ‘इंटरनेट पर बड़ी संख्या में फैलाए जा रहे झूठ’ पर विश्वास न करे. उन्होंने यह भी कहा कि प्रस्ताव में इस बात का जिक्र नहीं है कि ‘फरवरी 2014 में जर्मनी, फ्रांस, और पोलैंड की सांठगांठ और अमेरिका के समर्थन से उस देश में वैध रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति का अवैध तख्तापलट किया गया था.’
भारत ने काफी लंबा बयान दिया जिसका बड़ा हिस्सा इस बात पर केंद्रित था कि उसने भारतीय लोगों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए क्या प्रयास किए और इनमें उसे क्या मदद मिली और इस काम के लिए भारत के मंत्रियों को भेजे जाने का भी जिक्र किया गया. बयान में यूक्रेन को दी गई मानवीय सहायता के तहत दवाएं, मेडिकल साजोसामान और अन्य राहत सामग्री भेजे जाने का भी उल्लेख किया गया. भारत ने अविलंब युद्ध विराम का समर्थन किया और ज़ोर दिया कि विवादों को बातचीत और कूटनीति के जरिए ही सुलझाया जा सकता है. उसने ‘उभरते हालात की समग्रता’ का जिक्र करते हुए वोट देने से इनकार किया.
चीन ने भी मतदान में भाग नहीं लिया और कहा कि संकट खत्म करने के लिए शीत युद्ध वाले तर्कों और सैन्य खेमों का विस्तार करने की मानसिकता को खारिज करने की जरूरत है. उसने दोनों पक्षों के बीच बातचीत शुरू कराने के प्रयासों पर ज़ोर देने की बात की और कहा कि प्रस्ताव पर पूरा विचार-विमर्श नहीं किया गया और न ही सभी मसलों को शामिल किया गया है.
यह भी पढ़ें: CWC के बयान के 7 वाक्य, जो सोनिया-राहुल नेतृत्व की कमजोरियां उजागर करते हैं
प्रयासों में तेजी
महासभा में मतदान के बाद तुर्की ने रूस और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों की वार्ता की मेजबानी की लेकिन बातचीत सफल नहीं हुई. इस बीच युद्ध का दायरा और उसकी भीषणता बढ़ी है. सामरिक दृष्टि से, रूस कीव, खारकीव, मारीउपोल और निपरो आदि कई यूक्रेनी शहरों पर कब्जा करने की तैयारी में है. अस्पतालों समेत नागरिक ठिकानों और नागरिकों पर हमले के आरोपों का रूस खंडन कर रहा है. शरणार्थियों का संकट गहराता जा रहा है. करीब 20 लाख लोग पड़ोसी देशों में पलायन कर चुके हैं, पोलैंड में सबसे ज्यादा शरणार्थी पहुंचे हैं.
रूस और यूक्रेन के बीच मानवीय ‘कॉरीडोर’ बनाने का समझौता आंशिक रूप से ही लागू हुआ है और दोनों पक्ष गोलीबारी के लिए एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं.
सामरिक दृष्टि से युद्ध यूक्रेन के अंदर ही सीमित है लेकिन नाटो के सदस्य देशों से हथियारों आदि की आमद तेज हो रही है. ऐसी सहायता में युद्ध को यूक्रेन से बाहर फैलाने के बीज छिपे हैं. यह एक खतरनाक संभावना है. इसके अलावा युद्ध आर्थिक और तकनीक के क्षेत्रों को भी प्रभावित करने लगा है. रूस के खिलाफ प्रतिबंधों का सिलसिला जारी है. इसका असर पूरी दुनिया में फैल रहा है.
यह भी पढ़ें: PM नरेंद्र मोदी का फौजी वर्दी पहनना भारत के वास्तविक लक्ष्यों से ध्यान भटकाने जैसा क्यों है
भारत का रुख
भारत संयुक्त राष्ट्र में मतदान करने से परहेज करता रहा है, जिनमें तीन मतदान सुरक्षा परिषद के और दो मतदान महासभा के और दो मतदान मानवाधिकार परिषद के और एक मतदान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी का शामिल है. सवाल यह है कि क्या भारत को ऐसा करते रहना चाहिए? उसे क्या रुख अपनाना चाहिए?
शायद समय आ गया है कि भारत यह समझे कि यूक्रेन युद्ध तीसरे विश्व युद्ध में बदल सकता है. अगर भारत यह रुख अपनाता है तो वह अपने राजनीतिक तथा कूटनीतिक प्रयासों को आज की वास्तविक चिंता पर केंद्रित कर सकेगा. वह चिंता यह है कि युद्ध यूक्रेन से बाहर न भड़के. इस चिंता का समाधान करने के लिए वह पहले उन देशों का समर्थन जुटा सकता है जो यूरोप और पश्चिमी खेमे के नहीं हैं.
संयुक्त राष्ट्र में थोड़े अंतर से मतदान के इसी रुझान के साथ चीन-भारत पहल की कोशिश की जा सकती है जबकि ये दोनों सैन्य ताकते हिमालय के क्षेत्र में एक-दूसरे के आमने-सामने तन कर खड़ी हैं. इस तरह की पहल के विफल होने की आशंका से भारत को कदम पीछे नहीं खींचना चाहिए. सफलता की संभावना सभी पक्षों के अपने हितों में छिपी है. यह तब जाहिर हो सकती है जब यूरोप में युद्ध के वैश्विक खतरे को यूरोपीय ताकतें और अमेरिका महसूस करने लगेगा.
(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: चीन में कोविड के मामले बढ़ रहे लेकिन शी की नजर अमेरिका के खिलाफ रूस के साथ जुटने और ताइवान पर