नई दिल्ली: 35 वर्षीय नाविक गौरव शिंदे ने जब नागराज मंजुले की इसी माह रिलीज फिल्म झुंड देखी, तो उन्हें लगा कि इसकी कहानी एकदम जानी-पहचानी सी है. यह फिल्म एक सच्ची कहानी पर आधारित है, जिसमें अमिताभ बच्चन ने एक सामाजिक कार्यकर्ता विजय बर्से की भूमिका निभाई है. बर्से ने मुंबई में वंचित तबके के बच्चों को खेल के माध्यम से आगे बढ़ाने के लिए एनजीओ स्लम सॉकर की स्थापना की थी.
शिंदे अब एक कनाडाई नागरिक और प्रबंधन पेशेवर हैं, और एक ऐसे खेल- नौकायान- में माहिर हैं, जिसे वह ‘अमीरों का खेल’ कहते हैं. लेकिन एक समय था जब गौरव मुंबई का एक सामान्य-सा लड़का था, जो था तो एकदम खाली हाथ लेकिन लेकिन अपने दलित समाज के बीच रोल मॉडल बनने के लिए उसने असीम सपने पाल रखे थे. जैसा कि उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, ‘झुंड मेरी अपनी कहानी है.’
#jhund is my story and that of my friends. We all came from different parts of Mumbai without knowing what sailing is, into this rich man’s sport. It changed the trajectory of our lives and most of my friends are doing well. Without sailing we’d not gotten anywhere
— Gaurav Shindé (@sailorshinde) March 8, 2022
100 रुपये वार्षिक शुल्क चुकाकर कुछ नाविकों की तरफ मिली मदद के जरिये उन्होंने 11 साल की उम्र में नौकायन करना सीख लिया. लेकिन खुद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर स्थापित करना काफी दुरुह साबित हुआ, खासकर काफी खतरनाक मानी जाने वाली एक प्रतिस्पर्धा गोल्डन ग्लोब रेस के लिए क्वालीफाई करना.
शिंदे के पास जो भी था, वो सब वह इस प्रतियोगिता के लिए दांव पर लगा चुके हैं.
शिंदे ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘यह अमीरों का खेल है और जाहिर है कि मध्यमवर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखने वाले लोग एक मिलियन डॉलर लगाकर इसे खुद स्पांसर नहीं कर सकते. अपना घर बेचकर और अपनी सारी बचत मिलाकर मैं कुछ फंड जुटाने में कामयाब रहा हूं. मैं यह सब कुछ अपने समुदाय को एक पहचान देने के लिए कर रहा हूं.’
शिंदे इसी साल सितंबर में फ्रांस के लेस सैबल्स-डी’ओलोन से अपनी यात्रा शुरू करेंगे, लेकिन गोल्डन ग्लोब रेस किसी अन्य नौकायन प्रतिस्पर्द्धा की तरह नहीं है. इस प्रतियोगियों में न केवल अकेले दम पर पूरी दुनिया का चक्कर लगाना होना है, बल्कि किसी भी आधुनिक तकनीक का भी उपयोग नहीं किया जा सकता, खासकर ऐसा कोई उपकरण जिसका आविष्कार 1968 के बाद किया गया हो. यहां तक कि आप मोबाइल फोन या आईपॉड भी नहीं रख सकते. 30,000 मील (यानी करीब 48,000 किलोमीटर) की साहसिक यात्रा में 200 से 350 दिन तक समय लग सकता है.
यह रेस जितनी बताई जाती है, उससे कहीं ज्यादा कठिन है. 2018 की गोल्डन ग्लोब रेस में पूर्व नौसेना कमांडर अभिलाष टॉमी को लगभग 150 दिनों के समुद्र में रहने के बाद हिंद महासागर से सुरक्षित निकाला गया था, जब उनकी नौका का मस्तूल टूट गया था और उन्हें गंभीर चोट आई. 2018 में इस प्रतियोगिता में शामिल 18 नाविकों में से केवल पांच ही दौड़ पूरी कर पाए थे.
ऐसी घटनाओं से किसी तरह हताश हुए बिना शिंदे खुद को और अपनी नाव गुड होप को दौड़ के लिए तैयार करने में व्यस्त हैं लेकिन उन्हें पहले से ही तमाम तूफानों का सामना करना पड़ रहा है.
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गोल्डन ग्लोब रेस: भारी-भरकम खर्च के साथ रेट्रो-सेलिंग
गोल्डन ग्लोब प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेने के लिए न केवल बेहतरीन नौकायन कौशल बल्कि अच्छी-खासी रकम की भी जरूरत पड़ती है.
इसकी पात्रता हासिल करने के लिए नाविकों को यह साबित करना होता है कि उनके पास कम से कम 8,000 मील (करीब 13,000 किलोमीटर) का नौकायन अनुभव है. इसके अलावा, उनके पास कम से कम 2,000 मील (लगभग 3,200 किमी) एकल समुद्री यात्रा का अनुभव होना चाहिए, और अन्य 2,000 मील की दूरी उस नौका पर, केवल सेलेस्टियल नेविगेशन का उपयोग करके, पूरी करने का अनुभव होना चाहिए जिस पर सवार होकर वे इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहते हैं.
आवेदकों को इसके लिए 16,000 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर (करीब 8.96 लाख रुपये) का प्रवेश शुल्क चुकाना होता है और साथ ही 5 मिलियन पाउंड (50.04 करोड़ रुपये) का पब्लिक लाइबिलिटी इंश्योरेंस कराना होता है. हर साल इसमें अधिकतम 25 नाविक शामिल हो सकते हैं. हालांकि पांच अतिरिक्त प्रतिभागी विशेष आमंत्रण पर शामिल हो सकते हैं.
इस साल शिंदे समेत 24 नाविकों ने क्वालीफाई किया है. उन्होंने बताया, ‘जब तक हम रेस शुरू नहीं कर देते और सुरक्षा मानकों के लिहाज से नाव को मंजूरी नहीं मिल जाती है, हमारी एंट्री प्रोविजनल ही होगी.’
इस दौड़ में हिस्सा लेना काफी खर्चीला है, खासकर यह देखते हुए कि प्रतिभागी करीब एक साल तक नौकायन के अलावा कुछ भी नहीं कर सकते हैं. भारी-भरकम खर्चों को पूरा करने के लिए कई प्रतियोगी अपने लिए प्रायोजक तलाशते हैं, हालांकि यह हमेशा आसान नहीं होता है, जैसा शिंदे ने पहले ही साबित किया है.
अगली बाधा, निश्चित तौर पर खुद ये रेस ही है. गोल्डन ग्लोब रेस ब्रिटिश नाविक सर रॉबिन नॉक्स-जॉन्सटन के सम्मान में आयोजित की जाती है जो 1968 में प्रतियोगिता के पहले संस्करण में बिना रुके दुनियाभर में अकेले नौकायन करने वाले पहले व्यक्ति बने. मौजूद समय में भी यही अपेक्षा की जाती है कि इसमें हिस्सा लेने वाले प्रतिभागी लगभग उन्हीं परिस्थितियों में यह कमाल कर दिखाएं, जिसमें उन्होंने यह यात्रा पूरी की थी.
नेविगेट करने के लिए, नाविकों को देशांतर और अक्षांश निर्धारित करने और रेडियो के माध्यम से संवाद करने के लिए पुराने समय के सेक्स्टेंट का उपयोग करना पड़ता है. किसी भी कारण से किसी बंदरगाह पर रुकने का मतलब तत्काल अयोग्यता है. दौड़ के अंत में, प्रतियोगिता प्राधिकरण जहाजों के लॉग और आकाशीय नेविगेशन नोट्स की जांच करते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि प्रतिभागियों ने नियमों का पूरी तरह पालन किया है या नहीं.
शिंदे ने दिप्रिंट को बताया कि वह इन सभी नियमों और शर्तों का पालन करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं.
उन्होंने कहा, ‘महासागर में 20,000 समुद्री मील से अधिक रेसिंग अनुभव के साथ मुझे लगता है कि यह बतौर नाविक मेरी क्षमताओं की अंतिम परीक्षा होगी और मैं इसे किसी भी कीमत पर जीतना चाहता हूं.’
उनके अनुसार, इस दौड़ ने उन्हें आर्थिक रूप से एकदम खाली कर दिया, लेकिन यह अन्य प्रतियोगिताओं के तुलना में उनकी पहुंच के भीतर रही है.
उन्होंने आगे कहा, ‘यह एकमात्र ऐसी दौड़ है जिसमें मैं शामिल हो सकता था क्योंकि दूसरी प्रतियोगिताओं में खर्च और भी ज्यादा होता है. ज्यादा टेक्नोलॉजी का मतलब ज्यादा पैसा भी होता है. मैंने अपना घर बेचकर और अपनी सीमित बचत के जरिये इस दौड़ में हिस्सा लेने का इंतजाम किया है.’
पुरस्कार, संयोगवश केवल 5,000 पाउंड (करीब 5 लाख रुपये) ही है, जितना 1968 में था. महंगाई के लिहाज से इसमें कोई वृद्धि नहीं की गई है. नियम यह भी कहते हैं कि स्पांसरशिप के तहत प्रतिभागी कुछ भी पुरस्कार हासिल कर सकते हैं. बहरहाल, इस दौड़ में अव्वल आना एक प्रतिष्ठा का सवाल है और कई नाविकों के लिए अब भी यही अनमोल है.
‘बहुत कुछ दांव पर लगा है’
गौरव शिंदे फिलहाल तो निर्णायक दिन के लिए अपनी नौका को तैयार करने में जुटे हैं. उन्होंने बताया कि अपनी 34 फुट की ता शिंग फ्लाइंग डचमैन/बाबा 35 कटर उन्होंने न्यूयॉर्क में रहने वाले इसके मालिक से खरीदी थी, जिसने यह उसे लगभग आधी कीमत पर बेची. साथ ही उसने शिंदे को दौड़ में शामिल होने के लिए ब्याज मुक्त कर्ज मुहैया कराने में भी मदद की.
शिंदे ने बताया, ‘मुझे उन लोगों से कुछ मदद मिली जिन्होंने मुझ पर भरोसा जताया. नौकायन कोई लोकप्रिय खेल नहीं है, इसलिए विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों के माध्यम से धन जुटाना वास्तव में कोई विकल्प नहीं था क्योंकि वे पूरी तरह जानते ही नहीं है कि वास्तव में रेसिंग क्या है.’
अपनी उपलब्धियों को भारत में उचित पहचान मिलने के बावजूद भारत में भी स्पांसरशिप हासिल करना एक बड़ी समस्या थी.
शिंदे ने बताया “कई बार मुझे उन समारोहों के लिए भी आमंत्रित नहीं किया जाता था जहां मैंने पुरस्कार जीते थे. वे मेरे पुरस्कार चपरासियों के जरिये भेजते थे जो उन्हें रेलवे स्टेशनों पर छोड़ जाते थे. लेकिन मैं उन चुनौतियों को भूल जाना चाहता हूं…उनके बावजूद, मुझे लगता है कि मैं इस दौड़ के लिए सही व्यक्ति हूं, मैं सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड को तोड़ना चाहता हूं और अपनी एक छाप छोड़ना चाहता हूं.’
नासिक से कनाडा तक की एक लंबी यात्रा
गौरव शिंदे मूलत: तो महाराष्ट्र के नासिक से संबंध रखते हैं, लेकिन उनका अधिकांश बचपन मुंबई में बीता, जहां सी कैडेट कोर के ट्रेनिंग शिप जवाहर में ही उन्हें यह अहसास हुआ कि नौकायन को लेकर उनमें एक तरह का जुनून है. यहां ट्रेनिंग का खर्च केवल 100 रुपये प्रति वर्ष है.
शिंदे ने बताया, ‘जब मैं 11 साल का था तब पहली बार नौकायन की कोशिश की और मुझे इससे प्यार हो गया. एक दलित समुदाय से होने के कारण मैं हमेशा से दुनिया में अपनी एक पहचान बनाना चाहता था ताकि अपनी तरह बड़े होने वाले बच्चों के लिए एक रोल मॉडल बन सकूं.’
उनके प्रयासों, खासकर जोखिम वाले इवेंट में नजर आने वाले उनके धैर्य, ने नौकायन के क्षेत्र में उनके प्रदर्शन को पहचान दिलानी शुरू कर दी. उन्होंने 2013-14 में क्लिपर राउंड द वर्ल्ड यॉच रेस पूरी की और 2014 में ‘ऑफशोर एडवेंचरर ऑफ द ईयर’ के लिए यॉचिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एडमिरल रामदास ट्रॉफी जीती. वह ये पुरस्कार जीतने वाले पहले सिविलियन बने, जिसे पूर्व में अभिलाष टॉमी और दिलीप डोंडे जैसे नामचीन नाविक जीत चुके हैं.
हालांकि, कुछ समय के लिए उन्होंने नौकायन के शौक को पीछा छोड़ा और अपने पेशेवर करियर पर फोकस किया. 2015 में
शिंदे ने कनाडा के आइवे बिजनेस स्कूल से एमबीए पूरा किया और गूगल और 3एम जैसी कंपनियों से जुड़े.
हालांकि, नौकायन ही शिंदे का पहला प्यार है और उन्हें उम्मीद है कि गोल्डन ग्लोब रेस जीतकर अंतरराष्ट्रीय स्तर की एक बड़ी लीग में अपना मुकाम बनाने का सपना पूरा कर पाएंगे.
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