अधिकांश राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने हरियाणा के मुख्यमंत्री, मनोहर लाल खट्टर, द्वारा दिए गए बयान को प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने कुछ ऐसा बोल दिया है जिसको अभी तक स्पष्ट हो जाना चाहिए था।
उन्होंने अपने बयान में कहा था कि, “हमारे हिसाब से नमाज को उनके निर्धारित स्थानों पर अदा किया जाना चाहिए। नमाज को मस्जिद और ईदगाह में अदा किया जाना चाहिए। यदि नमाज के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है तो इसे व्यक्तिगत स्थान पर अदा किया जाना चाहिए। इसमें कोई ऐसी बात नहीं है कि इसे सार्वजनिक स्थानों पर ही अदा किया जाना चाहिए।“
एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए खट्टर के इस बयान में कुछ भी गलत नहीं है। हालांकि, मीडिया के कुछ वर्गों ने इस पर अपनी नाराजगी जताने में बहुत जल्दी कर दी। मुख्यमंत्री ने जो कुछ भी कहा उसको यदि दूर से देखा जाए तो इसमें कुछ भी असंवैधानिक या मुस्लिम विरोधी नहीं है। कुल मिलाकर खट्टर की टिप्पणी का विरोध न होने से विपक्ष को राजनीतिक आवाज बुलंद करने का एक मौका भी मिल गया है।
हालांकि, इस तरह की तुष्टीकरण की राजनीति को देखते हुए भाजपा के अलावा सभी राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहे हैं। यह देखते हुए कि खट्टर हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में एक संवैधानिक कार्यालय धारक है, संवैधानिक रूप से इस मुद्दे की जाँच का निर्देश दिया जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि सार्वजनिक स्थान पर नमाज पढ़ने का संवैधानिक रूप से अधिकार है या नहीं, मुस्लिम समुदाय के लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं। हमें इस सवाल के जवाब की जरूरत है।
इस संबंध में, संवैधानिक प्रावधानों पर नजर डालने की आवश्यकता होगी जिसके अंतर्गत भारत के सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 25 (1) का प्रासंगिक भाग कुछ इस प्रकार हैः
“अनुच्छेद 25 सभी लोगों को विवेक की स्वतंत्रता तथा अपनी पसंद के धर्म के उपदेश, अभ्यास और प्रचार की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
1. लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी लोग विवेक की स्वतंत्रता तथा अपनी पसंद के धर्म के उपदेश, अभ्यास और प्रचार के लिए स्वतंत्र हैं।
2. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी विद्यमान कानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगी या राज्य को कोई ऐसा कानून बनाने से रोक देगी।
(अ) किसी भी प्रकार की आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनियमित करना या उस पर प्रतिबंध लगाना जो धार्मिक आचरण से संबंधित हो सकती है।
उपर्युक्त प्रावधान के जानकारी से यह पूर्णतयः स्पष्ट हो जाएगा कि सभी भारतीयों के लिए भारत के क्षेत्र में, धर्म की आजादी का अधिकार सार्वजनिक लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन है। इस वजह से, खुली जगहों पर नमाज पढ़ने से यातायात में व्यवधान उत्पन्न होता है, जो हमारे संविधान की योजना के तहत सुरक्षित नहीं है।
इसके अलावा, अनुच्छेद 25 (1) के तहत कोई भी धार्मिक प्रथा सुरक्षित है या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित परीक्षण काफी संक्षिप्त हैं। हाल ही में शायरा बानो (ट्रिपल तलाक) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुमोदन के साथ उद्धरण द्वारा इसकी भी सराहना की है,उसी अदालत के 1950 के दशक से एक और संविधान बेंच का अवलोकन सरदार सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहेब बनाम वी.स्टेट (एआईआर 1962 एससी 853) नामक मामले से उभरा था।
उपरोक्त अवलोकन इस प्रकार पढ़ा जाता हैः ‘इस संबंध में इसे ध्यान में रखना होगा कि सार्वजनिक आदेश, नैतिकता या स्वास्थ्य को पहले से ही अनुच्छेद 25 (1) के शुरुआती शब्दों में सरक्षित किया गया है और और यह संरक्षण विश्वास और प्रथाओं को शामिल करता है , भले ही यह धर्म का दावा करने वाले लोगों द्वारा आवश्यक या महत्वपूर्ण माना जाए। मैं मानता हूं कि संदर्भ जिसमें वाक्यांश होता है, इसका उद्देश्य केवल उन कानूनों की वैधता को बचाने के लिए होता है जो धर्म की बुनियादी और आवश्यक प्रथाओं पर हमला नहीं करते हैं, जिन्हें अनुच्छेद 25 (1) के कार्यकारी हिस्से द्वारा गारंटी दी जाती है।
उपर्युक्त मार्ग से दो समाधान (अ) प्रावधान का उद्देश्य किसी भी सांप्रदायिक धर्म के लिए बुनियादी और आवश्यक प्रथाओं की पवित्रता को सुरक्षित रखना और (बी) यहाँ तक किसी विशेष धर्म के लिए आवश्यक प्रथाओं को भी नियंत्रित किया जा सकता है, बशर्ते वे सार्वजनिक आदेश का उल्लंघन कर रहे हों या सार्वजनिक स्वास्थ्य और नैतिकता के लिए खतरा बन रहे हों।
इस्लामी मान्यता के अनुसार यह स्पष्ट है कि दिन में पांच बार प्रार्थना करना या ‘नमाज’ पढ़ना जरूरी है क्योंकि यह इसके पांच सिंद्धातों में से एक है, सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक जगहों पर ‘नमाज’ पढ़ना इस्लाम धर्म की मान्यता का एकआवश्यक घटक है।
मेरी समझ में ऐसा बिल्कुल नहीं है, क्योंकि कुरान और हदीस में ऐसा कुछ भी वर्णित नहीं किया गया है। इस स्वीकृति को न मानते हुए कि यह वास्तव में धर्म का एक आवश्यक घटक भी है, संविधान के तहत भी इस तरह के संरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है ,क्योंकि किसी भी परिस्थिति में सार्वजनिक आदेश का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिएऔर इसलिए, हम उचित प्रमाण के साथ कह सकते हैं कि मुख्यमंत्री का बयान संवैधानिक रूप से काफी कुछ मायने रखता है।
राघव अवस्थी वकील और एक आरएसएस सदस्य हैं।