नई दिल्ली: उत्तराखंड में बीजेपी ने पिछले साल चार महीने के अंतराल पर दो मुख्यमंत्रियों को बदलने का जो जोखिम लिया था उसका फायदा पार्टी को मिला है.
चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जारी शुरुआती रुझानों से लग रहा है कि पार्टी एंटी इनकम्बेंसी की लहर को पार करते हुए सत्ता बचा पाने में कामयाब रही है. ईसीआई की वेबसाइट के मुताबिक, बीजेपी 37 सीटों पर, कांग्रेस 18 सीटों पर और बीएसपी दो सीटों पर आगे चल रही है.
साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 70 में से 57 सीटों के साथ चुनाव जीता था. कांग्रेस के 33.5 फीसदी वोट के मुकाबले बीजेपी को 46.51 फीसदी वोट मिले थे.
लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी 2017 से भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए उत्तराखंड की सभी पांच लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही थी. मोदी लहर की वजह से बीजेपी अपनी स्थिति बेहतर करने में कामयाब रही और पार्टी को करीब 61 फीसदी वोट मिले थे. उस साल कांग्रेस की स्थिति खराब हुई और उसका वोट शेयर घटकर 31.4 फीसदी रह गया.
बीजेपी को किससे फायदा मिला?
बीजेपी का ‘अबकी बार 60 पार’ का नारा दिया था जो कामयाब होता दिख रहा है.
बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो रैलियां की हैं खास कर वोटिंग से पहले वह बीजेपी के लिए ‘जादू’ की तरह है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में 148 वर्चुअल रैलियों सहित तीन पारंपरिक रैलियां की हैं.
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पार्टी का पूरा जोर ‘डबल इंजन’ की बीजेपी सरकार और उत्तराखंड में केंद्र सरकार की ओर से किए गए कामों मसलन, मुफ्त राशन, कोविड वैक्सीनेशन और दूसरी कल्याणकारी योजनाओं पर था.
मुख्यमंत्रियों का बदलना
बीजेपी में नेतृत्व संकट था. पिछले चार महीने के अंतराल में दो बार मुख्यमंत्री को बदलना चुनावी मुद्दा बन गया. मार्च 2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चार साल मुख्यमंत्री रहने के बाद इस्तीफा दे दिया. बीजेपी नेतृत्व पर उन्हें हटाने के लिए लगातार बढ़ रहा था. उन पर राज्य प्रशासन पर नियंत्रण नहीं होने और ‘प्रेरणाहीन नेतृत्व’ के आरोप लग रहे थे.
उस समय कई लोगों ने कहा था कि विधानसभा चुनाव 2022 में इसका असर बीजेपी पर हो सकता है.
त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन, वह भी सिर्फ चार महीने से कम का कार्यकाल पूरा कर पाए. इसके बाद पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया. वे 20 साल पहले गठित इस राज्य के 10वें मुख्यमंत्री बने.
कांग्रेस के साथ क्या ठीक नहीं रहा
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, साल 2017 में राज्य में पार्टी के खराब प्रदर्शन की मुख्य वजह पार्टी की अंदरूनी गुटबंदी रही, लेकिन इस बार राज्य यूनिट में मतभेद के बावजूद भी पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता हरीश रावत के नेतृत्व में ‘साथ मिलकर’ चुनाव लड़ा.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के प्रचार में शामिल होने बावजूद वोटर बीजेपी के साथ चले गए.
कांग्रेस नेता ने कहा, ‘सभी उम्मीदवारों और नेताओं ने इस बात को अच्छी तरह से समझा कि अगर हमें जीतना है, तो आपसी मतभेद को भुलाकर एक साथ आना होगा. यह संदेश साफ था और हर किसी ने जीत पर ध्यान केंद्रित किया, चाहे उन्हें कोई समस्या ही क्यों न हो.’
कांग्रेस ने स्थानीय स्तर पर बेरोजगारी की समस्या, सरकारी नौकरियों में भर्ती और महंगाई का मुद्दे को बनाए रखा और बीजेपी को ‘मंदिर और तुष्टिकरण की राजनीति’ पर बात करने का मौका नहीं दिया. गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव से एक दिन पहले ‘मुस्लिम यूनिवर्सिटी खोलने’ की चर्चा हो रही थी.
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘वोटों का ध्रुवीकरण एक बड़ा मुद्दा हो सकता था, भले ही हमने वास्तविक मुद्दों को उठाने की कोशिश की, बीजेपी ने इसे हिंदू-मुस्लिम चुनाव में बनाने की कोशिश की.’
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