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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतअखिलेश यादव की चुनौती: आजतक कोई भी रीजनल पार्टी BJP सरकार को कभी भी चुनाव में कुर्सी से उतार नहीं पाई

अखिलेश यादव की चुनौती: आजतक कोई भी रीजनल पार्टी BJP सरकार को कभी भी चुनाव में कुर्सी से उतार नहीं पाई

भाजपा 2017 में यूपी में सपा को गद्दी से उतारने के सिवा किसी और क्षेत्रीय दल को कभी अपने बूते सत्ता से नहीं हटा सकी है लेकिन वर्तमान चुनाव के संदर्भ में यह तथ्य भी गौरतलब है कि कोई भी क्षेत्रीय दल भाजपा को भी सत्ता से कभी हटा नहीं पाया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह जब चुनाव वाले राज्यों में प्रचार करने में व्यस्त थे, तब पिछले पखवाड़े देश के दूसरे हिस्सों से बुरी खबरें आ रही थीं. पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा को अपने सफाये का सामना करना पड़ा था. यह पिछले साल वहां के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को कड़ी टक्कर देने के बाद भाजपा की गिरावट की ओर इशारा कर रहा है.

ओड़ीशा में भी, एक समय भाजपा ने नवीन पटनायक को कड़ी चुनौती दी थी मगर आज वहां ग्रामीण चुनावों में शासक बीजू जनता दल (बीजद) ने सभी ज़िला परिषदों पर कब्जा कर लिया है. 2017 में भाजपा को 297 सीटें मिली थीं और उसने आठ जिला परिषदों पर कब्जा किया था, मगर आज वह 42 सीटों पर सिकुड़ गई है.

तमिलनाडु में भाजपा शहरी निकायों के चुनाव अकेले लड़ी और जिन 5,600 सीटों पर वह लड़ी उनमें करीब 5 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के. अन्नामलै का दावा था कि उनकी पार्टी राज्य के ‘कोने-कोने में कमल के फूल खिला रही है.’ नगरनिगमों, नगरपालिकाओं, नगर पंचायतों की करीब 13,000 सीटों में से 308 जीत लेना उत्साह बढ़ाने वाली बात हो सकती है मगर कोई बड़ा दावा करने वाली बात नहीं है. भाजपा को मिली सीटों में से 65 फीसदी तो अकेले कन्याकुमारी में मिलीं. बाकी 37 में से 10 जिलों में तो उसका खाता तक नहीं खुला.

2019 के बाद से ओड़ीशा, दिल्ली, पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी दलों को हरा पाने में भाजपा की विफलता ताकतवर क्षेत्रीय खिलाड़ियों का मुकाबला करने में उसकी क्षमता पर सवाल खड़े करती है. (वैसे, सच तो यह है कि तृणमूल कांग्रेस तकनीकी तौर पर एक राष्ट्रीय दल है). भाजपा के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा कांग्रेस के कब्जे वाले इलाकों से भले बिना चुनौती के गुजर गया हो मगर ऐसा लगता है कि गैर-कांग्रेस मैदान पर उसकी गति ढीली पड़ जाती है.


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क्या अखिलेश इतिहास बनाएंगे?

1980 में गठन के बाद से भाजपा 2017 में यूपी में सपा को गद्दी से उतारने के सिवा किसी और क्षेत्रीय दल को अपने बूते सत्ता से नहीं हटा सकी है. लेकिन वर्तमान चुनाव के संदर्भ में यह तथ्य भी गौरतलब है कि कोई भी क्षेत्रीय दल भाजपा को सत्ता से कभी हटा नहीं पाया है.

तकनीकी रूप से देखें तो न अखिलेश यादव अकेले चुनाव लड़ रहे हैं और न भाजपा अपने बूते चुनाव लड़ रही है. फिर भी, यह योगी बनाम अखिलेश की सीधी टक्कर वाला चुनाव है, जिसमें सपा कुल 403 सीटों में से 340 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इसलिए 10 मार्च को अगर वह यूपी विधानसभा में बहुमत के आंकड़े को पार करके भाजपा सरकार को अपदस्थ कर देती है तो वह भारत में ऐसा करने वाली पहली क्षेत्रीय पार्टी बन जाएगी. इस तरह अखिलेश एक इतिहास रच सकते हैं. बसपा के नेता बेशक इस पर नाराज हो सकते हैं, क्योंकि मायावती भी इसकी कोशिश कर सकती हैं.

भाजपा और क्षेत्रीय दलों के इस दिलचस्प इतिहास की क्या वजहें हैं, इस पर हम इस लेख में चर्चा नहीं करेंगे. इसकी व्यापक तौर पर वजह यह बताई जा सकती है कि लंबे समय तक कांग्रेस इन दोनों की साझा प्रतिद्वंद्वी रही और वे उसके खिलाफ अक्सर एकजुट भी हुए. यूपी जैसे राज्य में, जिसमें 1990 के बाद कांग्रेस बड़ी खिलाड़ी नहीं रह गई, भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल में लगी रही मगर उपरोक्त चुनावी रेकॉर्ड कायम रहा. मुलायम सिंह यादव हों या मायावती, अपने बूते कोई भी भाजपा को कभी हरा नहीं पाया. 1993 का यह चुनावी नारा शायद आपको याद हो— ‘मिले मुलायम, कांशीराम; हवा में उड़ गए जय श्रीराम’. लेकिन तब भी सपा-बसपा मिलकर भाजपा की 177 सीटों से एक सीट कम हीनिकाल पाईं.


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कई राज्यों में, भाजपा ने अपनी मजबूती और अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय दलों से रणनीतिक तालमेल किए और उन्हें अंततः नुकसान पहुंचाया. इनके अलावा दक्षिण (1990 तक कर्नाटक समेत) और उत्तर-पूर्व में ऐसे कई राज्य थे जहां मोदी-शाह का विस्तारवादी एजेंडा लागू होने से पहले तक भाजपा का कोई असर नहीं था. जहां तक क्षेत्रीय दलों की बात है, जब तक अमित शाह ने भाजपा को पुरानी कांग्रेस की तरह अखिल भारतीय राजनीतिक वर्चस्व वाली पार्टी बनाने के मकसद से इन दलों के लिए मुश्किलें नहीं बधाई थीं तब तक ये निश्चिंत बैठे थे.

क्या योगी इतिहास बनाएंगे?

अगर योगी 10 मार्च को अपनी पार्टी को जिताकर मुख्यमंत्री की अपनी गद्दी बरकरार रखते हैं तो वे भी इतिहास रच सकते हैं. यूपी में किसी मुख्यमंत्री ने पांच साल का कार्यकाल पूरा करने और लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का रेकॉर्ड नहीं बनाया है. ऐसे मुख्यमंत्री हुए हैं जिन्हें दोबारा जनादेश मिला है, मगर कुर्सी पर कम समय रहने के बाद. 2012 में मायावती यूपी में कार्यकाल पूरा करने वाली पहली मुख्यमंत्री बनीं. उनसे पहले, 1952 के पहले आम चुनाव के बाद राज्य में 29 मुख्यमंत्री हुए, जो कई बार मुख्यमंत्री बनीं लेकिन एक ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया था. यह रेकॉर्ड बनाने वाले अखिलेश दूसरे, और योगी आदित्यनाथ तीसरे मुख्यमंत्री बने.

यूपी के 21 मुख्यमंत्रियों (उनके कई कार्यकालों को एक गिनते हुए) में से केवल चार ऐसे हैं जो कुल पांच साल से ज्यादा गद्दी पर रहे. मायावती चार कार्यकालों में कुल सात साल और 16 दिन सत्ता में रहीं. मुलायम तीन कार्यकालों में कुल छह साल और 274 दिन सत्ता में रहे; संपूर्णानंद दो कार्यकालों में कुल पांच साल और 344 दिन सत्ता में रहे और अखिलेश एक कार्यकाल में कुल पांच साल और 4 दिन सत्ता में रहे. योगी 19 मार्च को सत्ता में अपने पांच साल पूरे करेंगे. योगी और अखिलेश में जो भी जीतेगा वह यूपी का सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का मायावती का रेकॉर्ड तोड़ देगा, बशर्ते बसपा 10 मार्च को कोई आश्चर्यजनक नतीजा न पेश कर दे.

भारतीय राजनीति तो बदलेगी

वैसे तो अमित शाह को मोदी का उत्तराधिकारी बताया जाता है लेकिन योगी को लेकर भी काफी अटकलें चल रही हैं कि वे दोबारा जीत गए तब वे भी दावेदार हो सकते हैं. हालांकि अभी तक उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में कुछ नहीं कहा है मगर भाजपा के तमाम नेता 10 मार्च तक इंतजार करना ही सुरक्षित मान रहे हैं. गैर-हिंदीभाषी राज्यों के अखबारों में भी यूपी सरकार के विज्ञापन पार्टी के हलक़ों में अनदेखे नहीं रहे हैं. न ही आरएसएस योगी के लिए दूसरे कार्यकाल के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास कर रहा है.

विपक्षी खेमे में कांग्रेस को जोड़ें या न जोड़ें की बहस से अखिलेश अभी तक अलग रहे हैं. वे ‘अच्छे लड़के’ की भूमिका निभाते हुए बंगाल के चुनाव में दीदी का खुशी-खुशी समर्थन कर चुके हैं और इस चुनाव के दौरान वाराणसी में दीदी का खुशी-खुशी स्वागत कर चुके हैं. लेकिन कांग्रेस से दीदी की लड़ाई में उन्होंने किसी का पक्ष नहीं लिया है. वे आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह के प्रति गर्मजोशी तो दिखाते हैं मगर यूपी में पैर फैलाने में अरविंद केजरीवाल की मदद नहीं करते. वे विपक्ष में हर किसी के साथ खेलने को तैयार होते हैं और अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं दर्शाते या कोई दावा नहीं करते. 10 मार्च को अगर वे सचमुच इतिहास रच देते हैं तो गैर-भाजपा खेमे में अहम खिलाड़ी के रूप में उभरेंगे और जल्दी ही एक निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे.

योगी आएं या अखिलेश, 10 मार्च के बाद भारतीय राजनीति में उथलपुथल होनी ही है.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी मेंं पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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