अगलार घाटी के देवलसारी परिसर की पहली झलक उस समय दिखी, जब गाड़ी ने हमें वहां छोड़ा- अद्भुत, असाधारण और खूबसूरत. ऊंचे पहाड़ और लम्बे घास का हरा-भरा मैदान, सामने देवदार के शानदार कुहरेदार जंगल और नीचे कल-कल बहता स्वच्छ झरना. यह सब देख हमारा जोश बढ़ गया, क्योंकि अगले 5 दिन हमारे यहीं गुजरने वाले थे.
घाटी के नीचे सड़क पर हमें दो युवा लेने आए और उन्होंने हमारी मदद की. हमारे हाथ से सामान ले लिया और बांगसिल नाला और पहाड़ी पार कर गंतव्य स्थल तक सामान पहुंचाया. वे देवलसारी पर्यावरण सुरक्षा और तकनीकी विकास समिति के सदस्य थे. इस समूह का गठन स्थानीय युवाओं ने किया है. जैसे ही हम घास के मैदान में दाखिल हुए, तो हमें 5 दिन रहने के लिए साधारण से टेंटों में ठहरने का प्रस्ताव दिया गया. यह एक नया अनुभव था. हमारा अरुण प्रसाद द्वारा बहुत उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया, जो कि समिति के अध्यक्ष हैं और इस परिसर को बनाने में उनकी ही सोच है.
देहरादून से हम सुबह जल्दी निकले और यहां तक पहुंचने में हमें 3 घंटे लगे. यहां पहुंचने पर हमारा नींबू की चाय से गर्मजोशी से स्वागत किया गया. हमने बिस्कुट के साथ चाय की चुस्कियां लीं. अरूण ने हमें उनके काम का संक्षिप्त ब्यौरा दिया. और इसके साथ ही अगले 5 दिनों के लिए मोटा-मोटी जानकारी दी. जब वह बात कर रहे थे तब हमने पेड़ों पर कुछ हलचल देखी, जो घास के मैदान से ऊपर थे. जल्द ही हमने अपने दूरबीन निकाले और निरीक्षण करने निकल पड़े. हमें तीन पीले गले के मार्टिन (एक प्रकार का नेवला) दिखे, जो जंगली नाशपाती, मेहल के फल खा रहे थे. उन्हें देखकर हमारा दिल उत्साह से भर गया. शाम को सौंधी सर्दी में चाय पीते हुए हम लाल चोंच वाले बड़े मेगपाइ और भूरे गले का कठफोवड़ा की जंगल से आती हुई आवाज में मदहोश से हो गए.
हम यहां 4 दिनों के कार्यक्रम के लिए आए थे. और वह था पश्चिम हिमालय का विकल्प संगम. इसमें इस क्षेत्र के कई प्रतिभागी शामिल हुए, जो पारिस्थितिकीय और आजीविका संकट के मुद्दों से जुड़े थे, जिनका सामना पहाड़ों के लोग कर रहे हैं. सभी परेशानियों के बावजूद समुदायों के द्वारा टिकाऊ प्राकृतिक पारिस्थितिकीय तंत्र और आजीविका सृजन के प्रयास भी करने वाले लोग भी शामिल हुए. कई तरह के कठोर संदर्भों में एक था बड़े पैमाने पर पलायन, जो हिमालय के युवा गांव से शहरों में या भारत के अलग-अलग कोनों में कर रहे हैं. इन सबके मद्देनजर समिति का पर्यावरण पर्यटन (इको टूरिज्म) का काम साफ तौर से उम्मीद जगाता है. और यह इसका भी उदाहरण है कि क्या स्थानीय गांव में गरिमापूर्ण और उनकी रुचि की आजीविका का काम कर सकते हैं.
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जंगल के संरक्षण के लिए 2015 में बनी समिति
2015 में देवलसारी समिति की शुरुआत क्षेत्र के जंगल के देवदार, चीर, बलूत और बुरांस की सुरक्षा व संरक्षण से हुई. इसके साथ ही नदी घाटी और जंगलों में रहने वाले वन्य जीवों की रक्षा के मकसद से हुई. संरक्षण की पहल के साथ युवाओं ने स्थानीय आजीविका को प्रोत्साहित किया. जैसे मधुमक्खी पालन, होमस्टे, नेचर गाइडिंग और जैव उत्पादों की बिक्री इत्यादि. यह सभी आजीविकाएं स्थानीय संस्कृति व भाषा से जुड़ी हैं. और इनका जौनपुर की जीवनशैली और क्षेत्र की पारंपरिक बाशिन्दों से जुड़ाव है.
इस समिति की समुदाय आधारित जवाबदेह पर्यावरण पर्यटन प्रमुख गतिविधि है. इसमें तितली ट्रस्ट, जो एक गैर सरकारी संस्था है, का सहयोग है. इसकी मदद से परिसर बनाया गया है. प्रकृति जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए हैं. युवाओं के लिए निरीक्षण कार्यक्रम और प्रकृति मार्गदर्शक प्रशिक्षण दिए गए हैं. यहां भारत के पहले तितली मेला का भी आयोजन हुआ. साथ ही कई पक्षी दर्शन और प्रकृति शिविर आयोजित किए गए. इसके अलावा, स्कूली बच्चों के बीच प्रकृति जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए.
पहले तीन दिन हमारा दिन का समय संगम की चर्चा में लगा. लेकिन इसके बावजूद हमने निकट के जंगल में हर दिन सुबह-सवेरे पक्षी निरीक्षण किया. इस दौरान पीले गले का मार्टिन (जो दो के जोड़े में आते थे, लुभाते थे) और रात्रि में कई वन्य जीवों का गीत सुनाई देता था. हम चाहे झरने के किनारे घूमते या देवदार के जंगल से हुए पहाड़ की चोटी में स्थित वनविभाग के विश्राम गृह के पास होते या पास में सटे शिव मंदिर के अहाते में और या जंगल से लगे उदारसू गांव में, जहां भी जाते, वहां पक्षी चहक रहे होते. इस दौरान हमारे साथ पास के गांव के केसर सिंह होते, जो एक प्रशिक्षित पक्षी मार्गदर्शक हैं और उन्हें पक्षियों के बारे में अच्छा ज्ञान है.
संगम के चौथे दिन समिति के सदस्य हमें श्रीदेव सुमन पार्क ले गए, जिसका संरक्षण पांच ग्रामसभाओं की पहल से हो रहा है. पहले यहां तेंदुआ और काले भालू भी देखे गए हैं. इसके अलावा, यहां सांप, पक्षी और तितलियों की कई प्रजातियां हैं. हालांकि इस क्षेत्र में अवैध जंगल कटाई और अवैध शिकार युवाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती था. इसके लिए उन्होंने ग्रामसभाओं को लामबंद किया और उन्हें पूरे भूदृश्य को पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के लाभ समझाए. आखिर में ग्रामसभाएं एक साथ आईं और उन्होंने अवैध गतिविधियों पर रोक लगाई. वन पंचायतों के माध्यम से जंगल को पुनर्जीवित किया और प्राकृतिक वास को टिकाऊ बनाया. 2019 में देवलसारी समिति, वन्यप्राणी संरक्षण प्रोजेक्ट की शीर्ष तीन श्रेणी में आ गई. और आउटलुक रिस्पांन्स्बिल टूरिज्म अवार्ड के लिए चुनी गई. सेंचुरी मैगजीन के वाइल्ड लाइफ सर्विस अवार्ड से अरुण गौर को सम्मानित किया गया.
समिति और तितली ट्रस्ट ने जैव विविधता का किया है दस्तावेजीकरण
समिति के सदस्य और तितली ट्रस्ट के शोधकर्ताओं ने देवलसारी भूदृश्य में जैव विविधता का दस्तावेजीकरण किया है. जिसमें 150 प्रजातियां तितली की, 200 प्रजातियां पतंगों की और 175 प्रजातियां पक्षियों की शामिल हैं. स्तनधारियों के अलावा, तेंदुआ, हिमालयी काला भालू, बड़ी लाल गिलहरी, गोरल, वाटर श्रीऊ, लंगूर और कम से कम चमगादड़ की 13 प्रजातियां पाई गईं. इसके अलावा, एकेरिया, पतंगे की प्रजाति को पहचाना गया, जो 150 साल में पहली बार उत्तराखंड में देखी गई और वह भी गढ़वाल में पहली बार दर्ज की गई है.
इस क्षेत्र के पारिस्थतिकीय महत्व को देखते हुए समिति ने बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट के अंतर्गत बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साइट (बीएचएस) की मान्यता के लिए आवेदन किया है. विरासत का अर्थ यहां सिर्फ पारिस्थितिकीय ही नहीं है, बल्कि उनकी संस्कृति, इतिहास, भाषा, तीज-त्यौहार और आध्यात्मिकता से है. इसका उद्देश्य इस क्षेत्र में सामूहिक संरक्षत्व की वापसी करना है, और उनकी विरासत के आधार पर जैव विविधता की जिम्मेदारी को साझा करना है. दुर्भाग्यवश, यह आवेदन, वर्ष 2020 से राज्य विविधता बोर्ड के ऑफिस में धूल खा रहा है. विकल्प संगम ने इसके निराकरण के लिए बोर्ड में फिर से सामूहिक पत्र भेजा है, जिसमें बी.एच.एस. प्रस्ताव का समर्थन किया गया है और इसे जल्द स्वीकार करने का आग्रह किया है.
समिति के सदस्य हमें इस क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक झलक दिखाने के लिए उत्सुक थे. वे हमें ओनताड़ गांव के नागदेव मंदिर में ले गए, जो बहुत ही दिलचस्प ढांचा था. वह विशाल पत्थरों से बना था. स्थानीय लोग मानते हैं कि इन पत्थरों से मंदिर बनाने वाले काफी मजबूत व्यक्ति रहे होंगे. ओनताड़ गांव के कई घरों का वास्तुशिल्प आश्चर्यजनक था, जिनमें सुंदर नक्काशी और लकड़ियों की रंग-बिरंगी मेहराबें थी. वहां स्थानीय कोठार (अनाज भंडारण) भी था. संगम के दौरान विविध तरह के स्थानीय व्यंजन व भोजन भी बनाए गए थे, जिनमें से अधिकांश स्थानीय व जैविक थे.
हिमालयी युवाओं को गांव में ही रोकने की पहल हो
पांचवे दिन हमने केसर सिंह के गांव मौलधार का दौरा किया. इस गांव का रास्ता लम्बा और बेहद सुंदर था- हम घने देवदार, और बलूत और बुरांस के जंगलों से गुजरे. यहां लगभग 50 प्रजातियों के पक्षी हैं. इसमें लाफिंग थ्रश, ग्रोसबीक, यूहीनास, फ्लावरपेस्केर और बहुत सी तितलियां व पतंगे शामिल हैं. हमने ऊंची-नीची पहाड़ी पर हरे-भरे शानदार भूदृश्य देखें. खेत और गांव भी और नीचे तेजी से कल-कल बहते कई झरने. वे एक बहुत ही मनमोहक, अविस्मरणीय दृश्य थे.
हमारा देवलसारी छोड़ने का मन नहीं कर रहा था. हमने देवलसारी अनिच्छा से छोड़ा. लौटते समय अंतर्मन में देवलसारी की कुछ ऐसी तस्वीर थी कि अगर सरकार और नागरिक समाज के सहयोग से ऐसी पहल पूरे क्षेत्र में हो, जिससे हिमालयी युवा गांव में ही रुकें और जो बाहर गए हैं वे वापस गांव में लौट सकें. उनकी खुद की विरासत व ज्ञान के आधार पर ऐसी पहल से उन्हें गरिमापूर्ण आजीविका मिले, और टिकाऊ खुशहाली की राह बना सकें, जिसकी हिमालय में बहुत ज्यादा जरूरत है.
(बाबा मायाराम द्वारा अनुवादित)
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