बैंकिंग ऐसा क्षेत्र है जो अभी भी संकट में दिख रहा है, मगर सरकार है कि सरकारी बैंकों के निजीकरण से मुंह फेर रखा है.
आर्थिक वृद्धि की दर फिर 7.2 प्रतिशत पर पहुंच गई है, और अब यह अटकलें लगाने का वक्त आ गया है कि क्या आर्थिक सुधारों की खिड़की बंद हो गई है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने दहाई अंक वाली वृद्धि दर के वादे के साथ अपनी पारी शुरू की थी, इसलिए अब वह राहत की सांस ले सकती है कि उथलपुथल भरी चार तिमाहियों के बाद वृद्धि दर ने ‘7’ के जादुई अंक को फिर से पार कर लिया है. जो भी हो, इन चार तिमाहियों में जमीनी स्तर पर ऐसे महत्वपूर्ण सुधार हुए, जैसे इससे पिछले वर्षों में नहीं हुए थे जब सरकार के लिए हालात तुलनात्मक रूप से अच्छे थे. दिवालियेपन के लिए नए नियम लागू किए गए, जीएसटी लागू किया गया, बैंकों का बड़े पैमाने पर पुनः पूंजीकरण किया गया, और कोयले के खनन का राष्ट्रीयकरण खत्म किया गया. लेकिन जब संकट का एहसास फीका हो रहा है, ज्यादा से ज्यादा ध्यान अगले लोकसभा चुनाव पर केंद्रित होने लगा है, तब यह सवाल लाजिमी है कि क्या सुधारों के लिए जद्दोजहद भरा जोश ठंडा पड़ जाएगा. खासकर इस बात के मद्देनजर कि जो ताजा कदम (सरकार द्वारा अपने बटुए को ढीला करना, और सभी चीजों के आयात शुल्क में वृद्धि) उठाए गए हैं वे सुधारों की विपरीत दिशा में ले जाते हैं.
बैंकिंग ऐसा क्षेत्र है जो अभी भी संकट में दिख रहा है मगर सरकार है कि उसने सरकारी बैंकों के निजीकरण की ओर से मुंह फेर रखा है. बल्कि वह बैंकों की एक होल्डिंग कंपनी बनाने पर विचार कर रही है. अगर इसका मतलब यह है कि बैंक बोर्ड ब्यूरो ने जो किया है उसे ही ठोस स्वरूप दिया जाएगा, तो इससे समस्या का हल नहीं होने वाला है. भले ही वह टुकड़ों में किया जाए, ज्यादा प्रत्यक्ष सुधार यह होगा कि सरकार उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए घोषणा करे कि सबसे संकटग्रस्त बैंक की बोली लगाने वालों के लिए उपलब्ध कराया जाएगा. अगर इसे व्यापक नीतिगत परिवर्तन की बजाय एक अपवाद के तौर पर प्रस्तुत किया जाए तो इसे राजनीतिक विरोध का कम सामना करना पड़ सकता है. अगर बैंक नये स्वामित्व में अच्छा काम करता है और एक अवधारणा के तौर पर सबूत पेश करता है, तो यह और ज्यादा बैंकों के निजीकरण के अगले कदम का औचित्य प्रस्तुत करेगा.
वैसे, फिलहाल जो हालात है उनमें इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि ये बैंक कामकाज के कड़े मानदंडों के भीतर काम करें. इसका लक्ष्य यह हो कि उनकी दोषपूर्ण उधारी व्यवस्था में सुधार हो. इसलिए रिजर्व बैंक ने पिछले महीने इस नये फ्रेमवर्क की घोषणा करके अच्छा ही किया जिसके तहत जोर इस बात पर नहीं दिया जाएगा कि बैंक परिसंपत्ति के वर्गीकरण के साथ रचनात्मक खिलवाड़ करें बल्कि इस पर दिया जाएगा कि कर्जदारों की क्षमता का आकलन हो. यह आकलन दिवालियेपन के नए नियमों को कर्ज खातों के ज्यादा व्यापक वर्गों पर लागू करके किया जाएगा.
इसमें चार वर्ष लग सकते हैं. शुरू के दो साल नियमों को ज्यादा व्यापक तौर पर लागू करने में जा सकते हैं. फिलहाल 30 अरब रु. से ज्यादा के खातों को इसके दायरे में रखा गया है. इसकी जगह 20 अरब रु. वाले खातों को और फिर धीर-धीरे 1 अरब रु. तक के सभी क्रेडिट खातों को इनके दायरे में लाया जा सकता है. इसके अलावा, बैंक मैनेजमेंट को खराब खाते को दुरुस्त करने के लिए छह महीने का वक्त होता है, और तब भी बात नहीं बनी तो नीलामी की प्रक्रिया चलाने के लिए नौ महीने का वक्त दिया गया है जिसकी समाप्ति के साथ कंपनी को या तो दूसरे स्वामित्व में डाला जा सकता है या बंद कर दिया जा सकता है. इसका अर्थ यह होगा कि 2015 में जो प्रक्रिया शुरू हुई थी वह अपने अंतिम मुकाम पर पहुंचने में छह-सात लगा देगी. इस प्रक्रिया के तहत बैंकों को खराब कर्जों के बारे में ज्यादा पारदर्शिता बरतने पर मजबूर किया गया था, और दिवालियेपन के नियम लागू करने के लिए संसद में विधेयक पेश किया गया था. अगर यह प्रक्रिया अच्छी तरह आगे बढ़ती है, तो नयी समस्याओं का तुरंत समाधान किया जा सकेगा और अस्पष्ट समस्याओं को उभरने से रोका जा सकेगा, (उम्मीद है कि) व्यापारियों को आसानी से लूट कर बनाई गई संपत्ति के साथ विदेश भागे से रोका जा सकेगा.
पूरी प्रक्रिया सरकार के लिए यानी करदाताओं के लिए महंगी होगी. नीलामी के लिए पेश किए जाने वाले खातों की खातिर बैंकों को जिस पैमाने पर अपनी हजामत बनानी पड़ सकती है उसके कारण सरकार को अपने बैंकों को और ज्यादा पैसे देने पड़ सकते हैं. अगर चरणबद्ध निजीकरण नीति लागू की गई, तो विधेयक की जरूरत नहीं पड़ सकती है. ऐसा नहीं हुआ तब भी सरकार निजीकरण और सरकारीकरण के मिश्रण पर गौर करना पड़ सकता है, जो अर्थव्यवस्था के लिए कारगर हो सकता है. 70 प्रतिशत सरकारी स्वामित्व वाली बैंकिंग व्यवस्था को कोई भी समझदार आदमी आदर्श ढांचा नहीं बता सकता, खासकर तब जब सरकारी सस्कृति ऐसी हो जो दखलंदाजी करती रहती हो.