पूरी दुनिया इस बहस में उलझी है कि रूस, यूक्रेन पर आक्रमण करेगा या नहीं. हालांकि, रूस ने सीमा के इलाकों से अपनी सेना वापस बुलाने की घोषणा की है. लेकिन, इस संकट ने यूनाइटेड नेशन (यूएन) जैसी कई मोर्चों पर काम करने वाली संस्थाओं और दुनिया के देशों की असलियत को सामने ला दिया है. वहीं, ज़्यादातर देश अपनी स्थिति स्पष्ट करने से बच रहे हैं. पूरी दुनिया अब भी महामारी के असर से उबर नहीं पाई है. इस बीच यूक्रेन संकट, एक नई वैश्विक चुनौती बनकर उभरा है. इस संकट के सभी पहलुओं पर विचार करने और सावधानी से निदान करने की ज़रूरत है.
अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, यूनाइटेड नेशन या फिर भारत, हर कोई यह चाहता है कि उसके बदले कोई और इस मामले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे और रूस से सार्वजनिक दुश्मनी की घोषणा कर दे (और यूक्रेन की तरह ही रूस की दुश्मनी मोल ले ले). यूक्रेन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही लड़ाई का मैदान बना रहा है. शीत युद्ध में के दौरान भी यही स्थिति बनी रही.
दुनिया के देशों को इस संकट की अनदेखी नहीं करनी चाहिए. यह सच है कि महामारी के बाद सभी देश अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में व्यस्त है. इसके बावजूद, यह ऐसा संकट है जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. अगर इस मामले का समाधान कूटनीतिक बातचीत से नहीं निकाला गया तो यूक्रेन की स्वायत्तता का संकट और उसके नाटो (NATO) में शामिल होने की संभावनाओं के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि दुनिया फिर से एक और युद्ध के मुहाने पर खड़ी हो जाएगी. नाटो, अमेरिका के नेतृत्व वाला उत्तरी अमेरिका और यूरोप का एक साझा राजनैतिक और सैन्य संगठन है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह संगठन बनाया गया था.
युद्ध नहीं होने की स्थिति में भी, यूक्रेन संकट की वजह से निश्चित तौर पर गठबंधन में शामिल देशों को उनके भू-राजनैतिक क्षेत्रों में सहयोगी के रूप में अपनी विश्वसनीयता साबित करने का दबाव होगा. यही वजह है कि यूक्रेन को इस हफ्ते का ‘दप्रिंट न्यूजमेकर’ चुना गया है.
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यूक्रेन और द्वितीय विश्वयुद्ध की छाप
द्वितीय विश्वयुद्ध में यूक्रेन के 8 से 10 मिलियन लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी. यह आज के ऑस्ट्रिया की कुल आबादी के बराबर है. विश्व युद्ध में यूक्रेन को दोनों ही पक्षों के लिए लड़ना पड़ा था. युक्रेन के लोग युद्ध में हिटलर और स्टालिन दोनों के लिए मारे गए. आज यूक्रेन उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है.
यूक्रेन द्वितीय विश्व युद्ध की उस स्थिति से बाहर आना चाहता है. इसके लिए वह नाटो की सदस्यता लेने की पूरी कोशिश कर रहा है. अगर यूक्रेन अपने प्रयास में सफल रहता है, तो इससे उसकी रक्षा क्षमता काफी बढ़ जाएगी. रूस ऐसा कभी नहीं चाहेगा.
नाटो की स्थापना संधि के अनुसार, इस गठन का राजनीतिक संदर्भ मोटे तौर पर, ‘1917 के बाद से सोवियत यूनियन और पश्चिमी देशों के बीच के संबंध जो मुख्य तौर पर युद्ध जैसी स्थिति वाली थी और द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद यह फिर से तल्ख हो गई’ है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं. यही वजह है कि वह अपने पड़ोस में नाटों के दबदबे को किसी कीमत पर रोकना चाहते हैं.
पुतिन ने स्पष्ट कर दिया है कि वह यूक्रेन को किसी भी हाल में नाटो का सदस्य बनने नहीं देंगे. मामले में पिछले सप्ताह व्हाइट हाउस से अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘रूस की जनता‘ को संबोधित करते हुए कहा, ‘आप हमारे दुश्मन नहीं हैं और मुझे नहीं लगता कि आप यूक्रेन के खिलाफ एक खूनी, विनाशकारी युद्ध चाहते हैं. एक ऐसे देश और वहां के लोगों, जिनसे आप पारिवारिक, अतीत और सांस्कृतिक तौर पर जुड़े हैं.’
बाइडेन ने कहा, ‘77 साल पहले, हमारे लोगों ने इतिहास के सबसे खराब युद्ध को खत्म करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया और बलिदान दिया. द्वितीय विश्व युद्ध हमले के बाद की कर्रवाई का परिणाम था. लेकिन, अगर रूस यूक्रेन पर हमला करता है, तो यह आक्रमण होगा या बेवजह लड़ी गई लड़ाई होगी.’
नाटो के सदस्य देश भी यूक्रेन को अपना सदस्य बनाना नहीं चाहते. यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देने का मतलब, रूस के साथ स्थायी टकराव मोल लेना होगा. रूस अपने पड़ोसी देशों पर कभी भी हमला कर सकता है. ऐसे में नाटो के ‘सबको सुरक्षित रखने के सिद्धांत’ के तहत, सभी सदस्य देशों को लड़ाई में उतरना पड़ेगा. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि कोई देश युद्ध में शामिल होना चाहता है या नहीं. ऐसा होने पर यह युद्ध साल भर तक न सही महीनों तक ज़रूर चल सकता है. इसके अलावा, यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए, इसके सभी 30 सदस्य देशों की सहमति आसान नहीं है.
साल 2008 में नाटो ने यूक्रेन को सदस्यता देने की बात कही थी. लेकिन, किसी भी सदस्य देश ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसकी वजह साफ है.
कोई भी देश रूस की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते. अब हर कोई मिन्स्क समझौते और नॉरमैंडी प्रारूप के तहत कूटनीतिक समाधान चाहते हैं.
इस महीने की शुरुआत में, यूक्रेन के राष्ट्रपति वलोदिमिर ज़ेलेंस्की से मुलाकात के दौरान जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ ने स्पष्ट किया कि यूक्रेन को नाटो में शामिल करना मीटिंग के ‘एजेंडे में नहीं’ था. ज़ेलेंस्की ने यूक्रेन के संदर्भ में कहा कि नाटो की सदस्यता पाना एक दूर ‘सपना’ है.
पुतिन यूक्रेन संकट को यह कहकर कमतर बताने की कोशिश करते रहे हैं कि वे युद्ध नहीं चाहते. यूक्रेन की सीमाओं पर 1,30,000 रूसी सैनिकों के जमा होने से यूक्रेन संकट और गहरा गया है. पुतिन ने कहा है कि वह नाटो के विस्तार के खिलाफ हैं. उन्होंने अमेरिका से सुरक्षा की गारंटी की मांग की है. रूस ने अमेरिका को दो संधियों के ड्राफ्ट भी भेजे हैं.
मिन्स्क समझौते को लागू करने पर जोर देते हुए कहा कि पुतिन ने कहा था कि वह ‘डोनेट्स्क और लुहान्स्क (के प्रतिनिधियों) से सीधी बात करना चाहते हैं और डोनबास के विशेष दर्जे के लिए कानूनी प्रक्रिया शुरू करना चाहते हैं.’
ये तीनो यूक्रेन के शहर हैं.
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देशों के लिए परीक्षा की घड़ी
अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कहा है कि यूक्रेन पर रूस के हमले के ‘खतरनाक परिणाम’ होंगे और उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. वहीं, जर्मनी की अब तक की भूमिका सवालों के घेरे में रही है. माना जाता है कि जर्मनी यूरोप की कमजोर कड़ी साबित हो सकता है.
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘जर्मनी स्पष्ट रूप से कोई भी ठोस कदम उठाने से बच रहा है. इससे सहयोगी के रूप में इसकी विश्वसनीयता सवाल के घेरे में है. हाल के वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ उसके संबंध में बदलाव देखने को मिले हैं.’ रिपोर्ट के मुताबिक रूस, जर्मनी की ढुलमुल रवैये का फायदा यूरोपियन यूनियन तोड़ने में कर सकता है और हो सकता है कि रूस के आक्रमण की स्थिति में ईयू एकमत होकर फैसला न ले पाए.
ईयू ने कहा है कि भारत सहित हिंद-प्रशांत क्षेत्र के समान विचारधारा वाले साझेदार देशों को साथ मिलकर रूस को (यूक्रेन) से बाहर करना चाहिए.
य़ूएन की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं. रूस, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से एक है. कुछ विश्लेषकों ने यूक्रेन संकट की वजह से तुर्की की भू-राजनीतिक महत्व बढ़ने की संभावनाओं का भी जिक्र किया है.
अमेरिका ने कहा है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की स्थिति में भारत, वाशिंगटन का पक्ष लेगा और उसका समर्थन करेगा, क्योंकि भारत अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करता है. दूसरी ओर, संयुक्त राष्ट्र में भारत का रुख तटस्थ रहा है. भारत ने कई बार कहा है कि वह इस मामले में ‘शांत और रचनात्मक कूटनीति’ का समर्थन करता है.
भारत इंडो-पैसिफिक फ्रेमवर्क का अहम हिस्सा होने के साथ ही क्वाड का भी सदस्य है. ऐसे में उसके लिए इस मामले में कोई भी फैसला लेना आसान नहीं होगा. विदेश मंत्री एस जयशंकर म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में भारत का रुख स्पष्ट कर सकते हैं. यह आने वाला समय ही बतायेगा कि यूक्रेन संकट गहराने पर विदेश मंत्री संतुलन बनाने में कामयाब रह पाते हैं या नहीं.
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