रक्षा बजट का छोटा आकार खासतौर से इसलिए समझ से परे है क्योंकि सैन्य तैयारियों को लेकर भाजपा दूसरे दलों से ज्यादा फिक्र जताती रही है.
नरेंद्र मोदी सरकार के साथ जुड़ा एक स्थायी रहस्य यह है कि वह देश की सुरक्षा के लिए बाहर उभर रहे खतरों की अनदेखी करती रही है और रक्षा बजट को साल दर साल छोटा करती रही है. अगले साल के रक्षा बजट में भी यही किया गया है. इस बजट में चालू बजट के मुकाबले 6 प्रतिशत से भी कम की बढ़ोतरी की गई है. मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में जो पांच बजट पेश किए गए हैं उनमें रक्षा बजट में कुल 38 प्रतिशत की वृद्धि होगी यानी हर साल औसतन करीब 7 प्रतिशत की वृद्धि है.
यह मुद्रास्फीति दर की बमुश्किल बराबरी करती है. चूंकि वेतन आयोग के चलते वेतनमानों में बड़ा इजाफा हुआ है, हथियारों की खरीद के लिए उपलब्ध पूंजीगत बजट में वास्तविक कमी आई है. पिछली सरकार ने अपने अंतिम वर्ष में रक्षा पर जीडीपी का 1.8 प्रतिशत खर्च किया था, तो अब यह खर्च 1.5 प्रतिशत पर आ गया है. इसमें सैन्यकर्मियों को दिए जाने वाले पेंशन को नहीं जोड़ा गया है, जो कि जीडीपी का 0.6 प्रतिशत है. यह भारी-भरकम अनुपात है और रक्षा पूंजी बजट से कहीं ज्यादा है. यह ‘समान रैंक के लिए समान पेंशन’ के मसले पर किए गए अतर्कपूर्ण फैसले का नतीजा है.
इस मामले के जानकारों का कहना है कि आज पेंशन से इतर खर्चे 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के दौर के बाद अब तक के न्यूनतम स्तर पर हैं. इन खर्चों को जीडीपी के 1.8 प्रतिशत के स्तर पर बनाए रखने के लिए अगले वर्ष 500 अरब रुपये अतिरिक्त देने पड़ते और पूरे पांच वर्ष में कुल 1.5 खरब रु. देने पड़ते. इतनी रकम उन साजोसामान की खरीद में काम आते जिनकी सेना को बेहद जरूरत है- लड़ाकू विमानों के 10 स्क्वाड्रनों, आधा दर्जन पनडुब्बियों, सैकड़ों हेलिकॉप्टरों, बारूदी सुरंगों को नाकाम करने वाले माइनस्वीपरों, मिसाइलों, तोपों आदि की.
रक्षा बजट का छोटा आकार खासतौर से इसलिए समझ से परे है क्योंकि सैन्य तैयारियों को लेकर भाजपा दूसरे दलों से ज्यादा फिक्र जताती रही है. अपने जन्म के साथ ही वह देश को परमाणु शक्ति से लैस बनाने की वकालत करती रही है. सेना के अधिकारी रिटायर होने के बाद भाजपा में शामिल होते रहे हैं और कुछ तो इसकी सरकार में मंत्री तक बने हैं. और तो और, वित्त मंत्री खुद दो बार रक्षा मंत्रालय का भार संभाल चुके हैं. फिर भी जब पैसे देने की बात आती रही है, रक्षा मंत्रालय के साथ सौतेला-सा व्यवहार किया जाता रहा है.
संदर्भ महत्वपूर्ण हैं. देश का अपनी उत्तरी सीमा पर ज्यादा आक्रामक हो रहे चीन से सामना है. पाकिस्तान के मुकाबले हमारी बढ़त लगातार घटती जा रही है. वायुसेना ने मिग-21 की जगह नए लड़ाकू विमानों की तलाश करीब दो दशक पहले शुरू की थी लेकिन उसे आज तक एक भी नया विमान नहीं मिला है. चीनी नौसेना का पहला पोत हिंद महासागर में एक दशक से भी पहले घुसा था और आज किसी भी समय उसके आठ पोत तो इस क्षेत्रों में रहते ही हैं, कभी-कभी उनकी संख्या 14 तक पहुंच जाती है. इन तथ्यों को खुद भारतीय नौसेनाध्यक्ष सार्वजनिक तौर पर बता चुके हैं. चीन हिंद महासागर की सीमाओं पर नौसैनिक अड्डे भी बना रहा है. पिछले एक दशक में भारतीय नौसैनिक पोतों की संख्या में लगभग कोई वृद्धि नहीं हुई है, शामिल किए गए नए पोत महत्वपूर्ण उपकरणों से वंचित पड़े हैं. यही हाल रहा तो नौसेना की यह पारंपरिक मान्यता बेमानी हो जाएगी कि वह चीनी युद्धपोतो को मलक्का स्ट्रेट्स के मुहाने पर आने से रोक कर चीन को चुनौती दे सकती है.
प्रतिरक्षा संबंधी खर्चों के प्रति इस कंजूसी भरे रवैये की एक ही वजह यह दिखती है कि सरकार को किसी युद्ध की आशंका नहीं है इसलिए उसने बुनियादी सुविधाओं और लोगों की दूसरी जरूरतों पर खर्चों को प्राथमिकता देने का फैसला किया है. लेकिन युद्ध अनपेक्षित रूप से भी लड़ने पड़ जाते हैं, तब अंतिम समय में हथियारबंद होना संभव नहीं होता. हमें याद होगा कि 2001 में संसद पर और 2008 में मुंबई में आतंकवादी हमले के बाद सेना राजनीतिक नेतृत्व को सैन्य विकल्प नहीं उपलब्ध करा पाई थी. उदाहरण के लिए, ऑपरेशन पराक्रम सीमा पर बेमानी जमावड़े तक सीमित होकर रह गया था. आज अगर वैसी घटनाएं फिर हो जाएं तो कहानी कुछ अलग नहीं होगी. सवाल यह है कि क्या देश को इस स्थिति के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए, और क्या सरकार को रक्षा बजट के आकार पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए.
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