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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतफतवे और धर्मग्रंथ सिर्फ संग्रहालय में होने चाहिए, जिंदगी के रोज-रोज के मामलों में नहीं

फतवे और धर्मग्रंथ सिर्फ संग्रहालय में होने चाहिए, जिंदगी के रोज-रोज के मामलों में नहीं

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उदारवादियों की तरह मैं यह नहीं कहती कि फतवा गैर-इस्लामी चीज है. हकीकत तो यही है कि अब तक जो भी फतवे जारी किए गए हैं वे सब इस्लाम पर आधारित थे.

महिलावादी, मानवतावादी, प्रगतिशील, खुले विचार वाले उदारवादी मुस्लिम भी हैं इस दुनिया में. उनमें शायर भी हैं, लेखक भी, कलाकार और वैज्ञानिक भी, जो भेदभावों के खिलाफ लड़ते हैं. लेकिन गैरमुस्लिमों में बहुमत ऐसे लोगों का है, जो यह मानते हैं कि मुसलमान होने का मतलब है कट्टरपंथी, जुल्मी, इस्लाम की आलोचना करने वालों का हत्यारा, औरतों को जबरन बुर्का पहनाने वाला, और बेतुके फतवे जारी करने वाला होना. इस्लाम में फतवा दरअसल इस्लामी कानूनों से जुड़े मसले पर किसी काबिल कानूनदां या मुफ्ती द्वारा दिया गया प्रामाणिक कानूनी मत ह¨ता है, जिसे मानने की बाध्यता नहीं होती.

फतवा जारी करने का अधिकार गिनी-चुनी संस्थाओं को ही हासिल है. इनमें एक उल्लेखनीय संस्था है मिस्र की अल अजहर युनिवर्सिटी. यह एक काफी पुराना इस्लामी विश्वविद्यालय है. यह जो भी फतवा जारी करता है उसे काफी वजन और अहमियत दी जाती है. इसने एक बार यह फतवा जारी किया था कि महिलाओं को अपने सहकर्मियों को स्तनपान कराना चाहिए. तभी वे उस परिवार का सदस्य बन सकती हैं और एक ही कमरे में बिना बुर्का पहने साथ काम कर सकती हैं. इसी विश्वविद्यालय ने जाने-माने प्रोफेसर फराग फोदा के खिलाफ इसलिए फतवा जारी किया था कि उन्होंने एक इस्लामी कानून पर सवाल उठाया था. उन पर कुफ्र (‘ईशनिंदा’) का इल्जाम लगाया गया. इस फतवे के कारण फोदा को 1992 में इस्लामी कट्टरपंथियों ने मार डाला. अल अजहर युनिवर्सिटी के इस्लामी कानून विभाग ने महिलाओं की तैराकी पर प्रतिबंध लगा दिया और इसे तोड़ने की सजा भी तय कर दी. उसका कहना था कि तैराकी करके महिलाएं व्यभिचार करती हैं. ‘समुद्र’ शब्द पुलिंग है. महिला तैराकी करेगी तो उसके गुप्तांग पानी को छुएंगे और यह व्यभिचार ह¨गा. इसी तरह, प्यार करते हुए अगर औरत और मर्द नग्न हुए तो शादी टूट जाएगी. एक ‘प्रतिष्ठित’ संस्था द्वारा जारी किए गए फतवे की ये कुछ मिसाले हैं.

जाहिर है कि फतवे अब अनैतिक, अवैज्ञानिक, बेतुके होते जा रहे हैं.

फतवे के मामले् में अल अजहर के बाद भारत के देवबंद के दारुल उलूम को महत्वपूर्ण माना जाता है. दारुल उलूम दूसरी वजह से भी मशहूर है, वह यह कि भारत की आजादी की लड़ाई में उसने अंग्रेजों का नहीं बल्कि गांधी और कांग्रेस का साथ दिया था. लेकिन इस संस्था ने जो भी इज्जत कमाई थी उसे यह खुद गंवा रही है. इसने हाल में जो फतवे जारी किए हैं वे बेहद दमनकारी हैं और महिलाओं के अधिकारों पर चोट करते हैं. उदाहरण के लिए, इसका कहना है कि महिलाओं को देश का नेतृत्व करने या कामकाज करने या जज बनने का कोई अधिकार नहीं है. अगर किसी महिला का ससुर उससे बलात्कार करता है तो इसके लिए ससुर नहीं बल्कि वह खुद दोषी होगी. यही नहीं, इस कुकर्म के बाद उसका ससुर उसका पति बन जाएगा और जो पति है वह उसका बेटा बन जाएगा. ये लोग तीन तलाक और हलाला शादी का अभी भी समर्थन कर रहे हैं.

दारुल उलूम के अलावा दूसरी कई संस्थाओं द्वारा जारी फतवों को भी मुसलमान लोग जायज मानते हैं. इंडोनेशिया के विद्वान उलील आबसार अब्दाल्ला को एक लेख लिखने के लिए उलामा उमत इस्लाम ने सजा-ए-मौत का फतवा सुना दिया. कुर्द लेखक मारीवान हलबजई को भी इसी तरह का फतवा सुनाया गया. नाइजीरियाई पत्रकार इसियोमा डेनियल को यह लिखने पर सजा-ए-मौत का फतवा सुनाया गया कि “अगर पैगंबर मोहम्मद आज जिंदा होते तो उन्होंने मिस वल्र्ड प्रतियोगिता में भाग लेने वाली किसी लड़की से शादी करने का फैसला किया होता”.

मैंने आज तक नहीं सुना कि किसी देश ने ऐसे फतवे जारी करने वालों की निंदा की हो या उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की हो. उदारपंथी मुसलमानों ने भी अपनी आवाज नहीं उठाई है और इन फतवों को चुपचाप कबूल करते रहे हैं. केवल कुछ तर्कवादी लोगों ने ही विरोध जाहिर किया है.

मेरे खिलाफ भी भारत में कुछ फतवे जारी किए गए हैं. रजा अकादमी, ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड, मजलिस बचाओ तहरीक, मजलिस-ए-इत्तेहाद-ए-मुसलमीन सरीखे कुछ संगठनों ने मेरे सिर पर इनाम घोषित किए हैं.

सबसे कुख्यात, सजा-ए-मौत का फतवा ईरान के मजहबी नेता खुमैनी ने लेखक सलमान रश्दी के लिए जारी किया था. रश्दी आज जीवित हैं लेकिन उनके जापानी अनुवादक की हत्या कर दी गई है, नॉर्वे के उनके प्रकाशक पर गोली चलाई जा चुकी है और इतालवी अनुवादक को छुरा मारा गया है. उनके तुर्क अनुवादक जिस होटल में ठहरे थे उसे जलाया जा चुका है, जिसमें 36 लोगों की जान चली गई.

फतवे बेहद खतरनाक होते हैं. आपके धर्म की जो आलोचना करता है उसके लिए आप मौत का फतवा जारी करके मजे से लोगों की भीड़ से निकल जा सकते हैं. आप हत्या नहीं करते मगर कोई मूर्ख कट्टरपंथी बिना सोचे-समझे यह काम कर देता है. वे इसे अपना धार्मिक कर्तव्य मानते हैं. आप बच निकलते हैं क्योंकि आप किसी राजनीतिक नेता के दोस्त हैं. लेकिन असल में तो आप उस हत्यारे से ज्यादा दोषी हैं, जिसे आपने उकसाया है.

हैदराबाद की एक प्राचीन इस्लामी सेमिनरी जामिया निजामिया ने नया फतवा जारी किया है कि मुस्लिम औरतें बैंक में काम करने वालों से शादी न करें. इसने व्यंजनों के लिए भी फतवा जारी किया है. मुसलमान झींगा मछली न खाएं क्योंकि यह मछली नहीं बल्कि कीड़ा है. कीड़ा खाना इस्लाम विरोधी बात है. इस्लाम ने हेब्रू बाइबिल की कथाओं, यहूदी संस्कृति की कई रस्म-रिवाजों तथा अंधविश्वासों को भी अपनाया है. जामिया निजामिया शायद सीप वाली मछलियों को न खाने की आदत अपनाना चाहता है इसीलिए उसने यह फतवा जारी किया है.

सऊदी अरब में भी अजीबोगरीब फतवे जारी किए गए हैं- औरतें फुटबॉल मैच न देखें, क्योंकि वे खेल नहीं बल्कि खिलाड़ियों की जांघों देखकर चीखती हैं. यह फतवा भी जारी किया गया कि औरतें कार न चलाएं क्योंकि इससे उनका अंडाशय खराब होगा. सऊदी अरब अब नए कानून बनाकर इन फतवे को उलट रहा है.

फतवे प्राचीन काल में कुछ लोगों के लिए महत्वपूर्ण रहे होंगे लेकिन आज पढ़े-लिखे लोग मानते हैं कि ये बर्बरतापूर्ण तथा अमानवीय हैं और इस्लाम को बदनाम करते हैं, मुसलमानों के लिए लोगों के मन में नकारात्मक भावना पैदा करते हैं. शायद ही कोई ऐसा मुसलमान होगा, जो कहेगा कि सारे मुसलमान इस्लाम को अच्छी तरह जानते-समझते हैं. कई मुसलमानों को पता नहीं होगा कि इस्लाम उन्हें क्या करने या क्या न करने को कहता है, इसलिए वे अपने सवालों का जवाब पाने के लिए इस्लामी विद्वानों या मुफ्तियों के पास जाते हैं. मुफ्ती उन्हें जवाब और सलाह देते हैं. आदिम युग में भले लोग फतवे को मानते होंगे, आज के लोग नहीं मानते. लोग अब लोकतंत्र की परिभाषा जानते हैं, नारीवादियों से महिला अधिकारों के बारे में जान रहे हैं, और समझने लगे हैं कि मानवाधिकारों का उल्लंघन क्या होता है. फतवे समाज को बुद्धिहीन, महिला विरोधी, प्रतिगामी बना रहे हैं.

1400 साल पुराने ग्रंथ पर निर्भरता किसी समस्या का समाधान नहीं करेगी, बल्कि यह तो अमानवीय है. हम महिलाओं को प्राचीन, असभ्य अरबों के चश्मे से नहीं देख सकते. एक दिन आएगा जब लोग धर्म पर शक करना शुरू कर देंगे और आज नहीं तो कल फतवे को मानने से इनकार करने लगेंगे. लोग ऐस कानूनों को मानेंगे जो सभी को बराबरी का हक देते हैं, उनको नहीं जो नफरत फैलाते हैं या बेतुके आदेश जारी करते हैं.

मुफ्तियों को फतवे जारी करने से परहेज करना पड़ेगा. हरेक देश को फतवे के खिलाफ कानून बनाना चाहिए. उदारवादियों की तरह मैं यह नहीं कहती फतवे गैर-इस्लामिक हैं. हकीकत यह है कि अब तक जारी किए गए फतवे इस्लाम के मुताबिक ही हैं. फतवे जारी करने वाले अपने मन से कुछ नहीं करते. लेकिन हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अगर हम सातवीं सदी के मूल्यों और नियम-कायदों को आज लागू करेगे तो समाज का संतुलन बिगड़ जाएगा.

तरक्की करनी है तो धर्म को निजी आस्था के दायरे में सीमित करना पड़ेगा. धर्मग्रंथों की जगह संग्रहालयों में ही है. किसी भी धर्म के लोगों की रोज की जिंदगी में अराजकता फैलाने की इजाजत नहीं दी सकती.

तस्लीमा नसरीन एक जानी-मानी लेखिका तथा टिप्पणीकार हैं

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