नई दिल्ली: प्रकाश सिंह बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह और चरणजीत सिंह चन्नी के बीच इस बात के अलावा क्या समानता है कि वे सभी पंजाब के मुख्यमंत्री रहे हैं?
इसका जवाब है कि ये सभी पंजाब के मालवा बेल्ट के रहने वाले हैं.
और क्या आप जानते हैं कि मालवा से सिर्फ एक नदी की धारा द्वारा अलग किया जाने वाला दोआबा, राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से केवल 23 की हिस्सेदारी के बाद भी चुनावी रूप से इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
जब हम इस बारे में बात कर ही रहे हैं तो जान लें कि दोआबा के पश्चिम में माझा स्थित है, जहां मतदान आमतौर पर एक अलग तरह के पैटर्न (तरीके) का अनुपालन करने के लिए जाना जाता है. क्या आपको कोई अनुमान है कि यह क्या है?
जैसा कि हम सभी ने अपने स्कूलों की भूगोल वाली किताबों से जाना है, पंजाब का शाब्दिक अर्थ ‘पंज’ (पांच) और ‘आब’ (पानी के स्रोत) से मिलकर बना है, और इसे सतलुज, ब्यास, रावी, चेनाब और झेलम; इन ‘पांच नदियों की भूमि’ के रूप में जाना जाता है.
मगर, इस राज्य की राजनीति को सही मायने में समझने के लिए, हमें राज्य के तीन प्रमुख क्षेत्रों – माझा, मालवा और दोआबा – के महत्व में और गहराई से जाना चाहिए, जो मोटे तौर पर इनमें से तीन नदियों द्वारा बांटें जाने के साथ- साथ अपनी अलग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहचान से भी जुड़े हुए हैं.
पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ने पर, वर्तमान पंजाब का माझा क्षेत्र रावी और ब्यास नदियों के बीच में पड़ता है. फिर दोआबा, दो नदियों (दो आब) के बीच की भूमि, का इलाका शुरू होता है, जो ब्यास नदी से शुरू होकर सतलुज नदी तक जाता है. सतलुज से परे का क्षेत्र मालवा कहलाता है.
20 फरवरी को होने वाले आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव में इनमें से हर क्षेत्र अपनी व्यक्तिगत पहचान के हिसाब से अहम भूमिका निभाएगा. हालांकि, मालवा किसान आंदोलन के नेतृत्व में था और इसे ‘जमींदारी बेल्ट’ के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यहां समृद्ध किसानों और जमींदारों के घर है, लेकिन फिर भी यह किसानों की आत्महत्याओं के लिए बदनाम है.
सिख धर्म के ‘पंथिक’ (धार्मिक) बेल्ट माने जाने वाले माझा इलाके में कई प्राचीन गुरुद्वारे और एक बहुत ही धार्मिक प्रवृति वाली आबादी रहती है, जो चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक है, जबकि दोआबा दलित राजनीति का केंद्र है, और इसे पंजाब के ‘एनआरआई बेल्ट’ के रूप में भी जाना जाता है.
जमींदारों और सामाजिक सक्रियता की भूमि है मालवा
भौगोलिक और राजनीतिक दोनों दृष्टि से मालवा पंजाब का सबसे बड़ा इलाका है. राज्य की लगभग 58 प्रतिशत विधानसभा सीटें (117 में से 69) इसी क्षेत्र में आती हैं. राजनीतिक चहल-पहल का केंद्र माने जाने वाली इसी इलाके में इस राज्य का सबसे बड़ा और सबसे अधिक आबादी वाला शहर लुधियाना भी स्थित है.
पंजाब की राजनीति पर इस क्षेत्र का दबदबा इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि 1966 (जब पंजाब का पुनर्गठन हुआ और हरियाणा एक अलग राज्य बना) के बाद से चुने गए राज्य के 83 प्रतिशत मुख्यमंत्री यहीं से आए हैं. इन्हीं में वर्तमान सीएम चरणजीत सिंह चन्नी का नाम भी शामिल है जो चमकौर साहिब – पंजाब के रूपनगर जिले में स्थित एक उप-मंडलीय शहर – से हैं, जो मालवा का ही एक हिस्सा है.
चन्नी के पूर्ववर्ती कैप्टन अमरिंदर सिंह, जिन्होंने पिछले साल मुख्यमंत्री के रूप में अपना पद छोड़ने के लिए विवश किये जाने के बाद कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी और अब अपनी नई पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस का गठन किया है, पटियाला से सम्बन्ध रखते हैं. उनसे पहले, बादल परिवार के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्रित्व काल के तहत 19 वर्षों (हालांकि लगातार नहीं) तक राज्य में शासन किया और बठिंडा लोकसभा सीट उनका अपना गढ़ है.
पिछले कुछ वर्षों में, मालवा ‘परिवर्तन की भूमि’ भी बन गया है, जहां नवागंतुकों ने राजनीतिक क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया है. 2017 में, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी (आप) ने इस क्षेत्र में 18 सीटें जीती थीं, जो इस वजह से महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पार्टी ने दोआबा में केवल दो सीटें जीतीं थी और माझा क्षेत्र में यह कोई सीट नहीं जीता पाई थी. कॉमेडियन (हास्य कलाकार) से नेता बने भगवंत मान, जो आगामी चुनावों के लिए आप के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, उस संगरूर जिले के रहने वाले हैं, जो पिछले मई में मलेरकोटला के जिला बनने तक इस क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा जिला (लुधियाना के बाद) था.
आप द्वारा मालवा में राजनैतिक बढ़त हासिल करने के साथ ही अकाली दल के प्रदर्शन में गिरावट आई है.
2012 में, अकालियों ने पंजाब में एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी क्योंकि वे फिर से चुन कर सत्ता में आये थे. यह एक दुर्लभ घटना थी क्योंकि यह राज्य हर चुनाव में एक पार्टी से दूसरी पार्टी के पक्ष में स्विंग (झूलता) करता रहता है. चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रो. रोंकी राम ने दिप्रिंट को बताया, ‘2012 तक, राज्य की पंथिक राजनीति में गिरावट आ गई थी. साथ ही अकाली दल ने राज्य की सड़कों, पुलिस बल से सम्बंधित सुधारों और आर्थिक विकास पर काम किया था, जिससे उन्हें एक बार फिर से सत्ता मिली थी.’
उन्होंने आगे कहा, ‘परन्तु, 2017 में, अकालियों की यह धारणा गलत साबित हुई थी कि धार्मिक नेता उनकी मदद करेंगे, क्योंकि आर्थिक विकास पंजाब के चुनावी परिणामों में धर्म से अधिक मजबूत कारक बन गया था.’
प्रो. राम के अनुसार, 2012 में अकालियों द्वारा एक बार फिर से सत्ता में आने के मुख्य रूप से तीन कारण थे, ‘सबसे पहले, उन्होंने शासन व्यवस्था में सुधार लाया, सुविधा केंद्र खोले और समय पर कार्रवाई नहीं करने पर पुलिस को दंडित करने का प्रावधान किया. इससे सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में आसानी हुई और कागजी कार्रवाई का दंश झेल रहे लोगों को बड़ी राहत मिली. दूसरा, उन्होंने पंजाब में सड़कों के जंजाल (नेटवर्क) का पूरी बारीकी के साथ विस्तार किया, और अंत में, उन्होंने पंजाब को एक खपत से आशिक बिजली वाला राज्य बना दिया जिससे बिजली की कटौती कम हो गई – इन सभी कारकों की बदौलत उनकी ऐतिहासिक जीत हुई.’
राज्य की राजनीति पर इस क्षेत्र का मजबूत प्रभाव होने का एक और कारण ‘जमींदारी वर्ग’ का प्रभुत्व है. समृद्ध जमींदारों का अस्तित्व में होना यहां एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यहां की औसत जोत अन्य दो इलाकों की तुलना में अधिक है, जिससे ‘अमीर उम्मीदवारों’ के लिए खासी गुंजाइश बन जाती है.
पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के प्रोफेसरों, आर.एस. घुमन, इंद्रजीत सिंह और लखविंदर सिंह, के द्वारा तैयार किये गए एक शोध पत्र के अनुसार यहां 10 एकड़ से ज्यादा जमीन वाले किसानों की हिस्सेदारी करीब 27.5 फीसदी थी, जबकि दोआबा में 23 फीसदी ऐसे किसान थे और माझा में इनकी हिस्सेदारी सिर्फ 17 फीसदी थी.
पंजाबी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस लखविंदर सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘बड़ी जोत होने से मालवा क्षेत्र को ज्यादा लाभ हुआ है, जिससे यह पंजाब का ‘जमींदारी बेल्ट’ बन गया है. यहां के किसान धनी हैं और इसके परिणामस्वरूप, चुनावी लड़ाई के महंगे होते जाने के साथ, वित्तीय शक्ति राजनीतिक सत्ता के बराबर हो गयी. नतीजतन, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि (राज्य के) ज्यादातर मुख्यमंत्री इसी क्षेत्र से आए हैं. ‘
उन्होंने आगे यह भी कहा कि बड़ी कृषि भूमि और ज्यादा आय के बाद भी माझा और दोआबा की तुलना में मालवा में शिक्षित आबादी कम है. एक बड़ा इलाका होने के बावजूद, इसमें केवल एक ही बड़ा शहर – लुधियाना – है, जो इस क्षेत्र के अधिकांश अन्य हिस्सों से दूर स्थित है, जिसके परिणामस्वरूप यहां के लोगों के लिए अवसर की कमी हैं.
लखविंदर सिंह कहते हैं, ‘हमें यह भी समझना होगा कि इस क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसान भी बड़ी संख्या में रहते हैं, जिनमें से कई ने धीमी आर्थिक वृद्धि और अन्य उद्योगों में जाने में असमर्थता की वजह से आत्महत्या कर ली है. इसी वजह से मालवा पंजाब में किसानों की ‘सुसाइड बेल्ट’ भी बना हुआ है.’
पंजाबी विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय (जीएनडीयू) के साथ मिलकर किये गए एक संयुक्त अध्ययन से पता चलता है कि पंजाब में 1990 के बाद से वित्तीय दबावों के कारण होने वाले किसानों की आत्महत्याओं में से 97 प्रतिशत से अधिक की सूचना मालवा क्षेत्र से ही प्राप्त हुई थी.
केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में निरस्त किए गए कृषि कानूनों को लेकर साल भर तक चले किसान आंदोलन के दौरान भी मालवा ही इसके केन्दीय भूमिका में था. पंजाबी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लखविंदर सिंह और बलदेव सिंह शेरगिल द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, इन विरोध-प्रदर्शनों के दौरान मारे गए किसानों में से लगभग 80 प्रतिशत मालवा क्षेत्र के थे. इस अध्ययन में आगे कहा गया है कि हरेक मृत किसान औसतन रूप से 2.94 एकड़ भूमि पर खेती करता था’.
इस बारे में बताते हुए लखविंदर सिंह ने कहा कि इस क्षेत्र के किसानों का विरोध करने वाले क्षेत्र के रूप में होने की वजहें इस क्षेत्र के इतिहास और यहां लंबे समय से चली आ रही समाजिका सक्रियता से जुडी हैं.
उन्होंने कहा, ‘भारत को स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद शुरू हुआ और दशकों तक चला पेप्सू-मुज़रा आंदोलन भूमिहीन कृषि किरायेदारों (खेत को जोतने वालों) को जमीन का मालिकाना हक़ दिलवाने में सफल रहा था. यह लड़ाई वामपंथी विचारधारा के साथ लड़ी गई थी, और इसलिए, इस क्षेत्र के लोगों पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव है. यही कारण है कि इस क्षेत्र के लोग वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हैं और विद्रोह में भाग लेते रहते हैं.’
लखविंदर ने आगे कहा कि मालवा क्षेत्र में किसान संगठन भारतीय किसान संघ (उगराहन) की सघन उपस्थिति भी कृषि कानूनों के विरोध में उसकी सक्रिय भागीदारी की व्याख्या कर सकती है.
उन्होंने कहा, ‘बीकेयू का उगराहन समूह मुख्य रूप से मालवा क्षेत्र में केंद्रित है. यह समूह किसानों को बैठकों के माध्यम से जोड़ता है और बहुत लंबे समय से उनके अधिकारों के लिए लड़ रहा है. यह गैर-राजनीतिक समूह हर एक गांव का दौरा करता है और किसानों को सदस्यता के माध्यम से जोड़ता है. उनका लंबा संघर्ष और किसानों के अधिकारों के लिए उनके द्वारा लड़ी गई लड़ाई ही वे कारण है जिनकी वजह से इतने सारे लोग किसानों के विरोध के तहत एकजुट हुए.’
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माझा, वह इलाका जहां धर्म और राजनीति के तार आपस में जुड़े हुए हैं
माझा में 25 विधानसभा सीटें हैं, जो इसे चुनावी रूप से राज्य का दूसरा सबसे प्रभावशाली क्षेत्र बनाती है, हालांकि संख्या के मामले में यह मालवा से काफी पीछे है.
इसे राज्य के ‘पंथिक’ बेल्ट के रूप में भी जाना जाता है. ‘पंथ’ का पंजाबी में अर्थ है पथ और एक धार्मिक अर्थ में इसे ‘गुरु का मार्ग’ माना जाता है. प्राचीन गुरुद्वारों के ऐतिहासिक महत्व और व्यापकता के कारण, माझा क्षेत्र को प्रारंभिक सिख धर्म के जन्मस्थली की रूप में भी जाना जाता है. अमृतसर, पठानकोट, गुरदासपुर और तरनतारन जैसे जिले इसी क्षेत्र में आते हैं. माझा में ही अमृतसर का स्वर्ण मंदिर और करतारपुर कॉरिडोर – जो राज्य को पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब से जोड़ता है – स्थित हैं. ये दोनों गुरूद्वारे सिख समुदाय के लिए अति-महत्वपूर्ण आराधना स्थल हैं.
पंजाबी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के शोध पत्र के मुताबिक, माझा में औसत जोत छोटी है और यहां के 58 फीसदी से ज्यादा किसानों के पास पांच एकड़ से भी कम जमीन है.
प्रो. लखविंदर सिंह ने कहा, ‘पहले, जत्थेदारी प्रणाली के तहत धर्म और राजनीति दोनों परस्पर जुड़े हुए थे. हालांकि, यह माझा और दोआबा क्षेत्रों में अधिक प्रचलित था, ‘
इस बारे में समझाते हुए उन्होंने कहा, ‘जत्थेदारी प्रणाली वह व्यवस्था थी जिसमें गुरुद्वारा या धार्मिक नेता (जत्थेदार) यह तय करते थे कि उस क्षेत्र के लोग किस उम्मीदवार का समर्थन करेंगे, और इसलिए, व्यक्तिगत स्तर पर पैसा ज्यादा मायने नहीं रखता था.’
लखविंदर सिंह ने कहा, ‘लेकिन वह सब अब ख़त्म हो गया है. जत्थेदारी के कमजोर पड़ने के बाद से ज़मींदारों ने उस क्षेत्र की राजनीति पर पकड़ बना ली है, जिसकी वजह से राज्य में उस माफिया राज में एक बड़ी वृद्धि देखी गयी है जिसका हम आज सामना कर रहे हैं.’
माझा की एक और अपनी अलग विशेषता यह भी है कि यहां चुनाव एकतरफा होते हैं. जिसका अर्थ है कि मालवा और दोआबा के विपरीत, माझा के लोग चुनाव के दौरान मोटे तौर पर एक ही पार्टी, जिसके बारे में पसंद हर बार बदलती रहती है, का समर्थन करते हैं. हालांकि 2012 इसका एक अपवाद है).
पिछले चुनाव में, कांग्रेस ने इस क्षेत्र में 88 प्रतिशत सीटें जीती थी और 2002 में इसे 63 प्रतिशत सीटें मिली थीं. 2012 में, अकाली दल ने 46 प्रतिशत सीटें (अपवाद के तौर पर) प्राप्त की थीं, पर 2007 में इसे यहां से 61 प्रतिशत सीटें मिली थीं और 1997 में इसने लगभग 67 प्रतिशत सीटें जीती थीं.
लेकिन प्रो. रोंकी राम का मानना है कि आगामी चुनावों में शायद ऐसा न हो.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘माझा में करीब 18-20 फीसदी वोट बदलाव के पक्ष में जाने वाला वोट हैं. हालांकि, इस बार इन ‘परिवर्तनकारी वोटों’ का एक बड़ा हिस्सा संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) को जा सकता है, जो चुनाव लड़ रहा एक किसान संगठन है. बेशक, बदलाव का मतलब यह भी है कि कुछ लोग आप के पक्ष में होंगे, लेकिन कई लोगों का मानना है कि लोग स्थानीय विकल्प चुन सकते हैं क्योंकि आप को अभी भी एक बाहरी पार्टी माना जाता है.‘
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दोआबा और उसका दलित वोटबैंक
23 विधानसभा सीटों के साथ दोआबा राजनीतिक रूप से पंजाब का सबसे छोटा क्षेत्र है. बहरहाल, यह क्षेत्र दलित वोटों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है.
सतलुज और ब्यास नदी के किनारों से घिरा दोआबा – जहां की सिंचाई प्रणाली ने हरित क्रांति का काफी फायदा उठाया था – को सबसे उपजाऊ भूमि के रूप में जाना जाता है.
2011 की जनगणना के अनुसार, पंजाब की आबादी में अनुसूचित जाति (एससी) का हिस्सा लगभग 32 प्रतिशत है, जो देश में सबसे अधिक है. मगर, माझा (29.3 फीसदी) और मालवा (31.3 फीसदी) की तुलना में, दोआबा में दलितों का अनुपात सबसे ज्यादा (37.4 फीसदी) है.
यह तथ्य दोआबा को पंजाब में दलित राजनीति का केंद्रबिंदु बनाता है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, इस क्षेत्र में करीब 40 फीसदी सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं, जबकि मालवा में 27 फीसदी और माझा में 24 फीसदी ऐसी सीटें हैं.
अकाली दल अपने जातिगत समीकरण को दुरुस्त करने के लिए मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन कर यह चुनाव लड़ रहा है.
इस क्षेत्र को पंजाब के ‘एनआरआई बेल्ट’ के रूप में भी जाना जाता है. हालांकि इस क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसानों का एक अच्छा-खासा हिस्सा है, फिर भी शिक्षित लोगों की हिस्सेदारी इस क्षेत्र में माझा और मालवा की तुलना में अधिक है.
लखविंदर सिंह ने कहा, ‘विकसित देशों में प्रवास का प्रचलन दोआबा से ही शुरू हुआ था. दोआबा का विदेशों से ऐतिहासिक संबंध है और यह पंजाब का पहला वह क्षेत्र था जहां से लोग दुनिया के अन्य हिस्सों में बसने के लिए गए थे. आतंकवाद के बाद, पंजाब के सभी हिस्सों से युवाओं ने विदेशों में पलायन करना शुरू कर दिया, लेकिन पिछले दो दशकों में पंजाब की अर्थव्यवस्था की धीमी गति से वृद्धि और लगातार बनी हुई उच्च बेरोजगारी दर के कारण यह प्रवृत्ति और तेज हो गई.‘
दोआबा क्षेत्र में छोटे जोत की वजह से आर्थिक लाभ भी कम हैं, इसलिए यह अच्छी आमदनी प्रदान वाली नौकरियों की तलाश के लिए प्रोत्साहन का एक अच्छा कारण बन गया.
प्रो. रोंकी राम ने दिप्रिंट को बताया, ‘जोत के छोटे आकार के कारण लोग नौकरी पाने के लिए कड़ी मेहनत करने लगे. नतीजतन, अधिक-से-अधिक संख्या में लोगों ने बेहतर शिक्षा के प्रति निवेश किया. आपको इस क्षेत्र में बहुत सारे आर्य समाजी स्कूल और कॉलेज मिल जाएंगे. यह बेल्ट पंजाब का ‘एजुकेशन हब’ (शिक्षा का केंद्र) भी है.’
प्रो. राम के अनुसार एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि दोआबा ‘दलित पुनर्जागरण’ का जन्मस्थान है. उन्होंने बताया, ‘दोआबा उस आदि-धर्म आंदोलन का जन्मस्थान है, जो 1920 के दशक में शुरू हुआ था. तब दलित समुदाय ने अपने आप को एक अलग धर्म के रूप में पहचाने जाने की पैरोकारी की थी. साल 1931 तक, लगभग पांच लाख लोगों को आदि-धर्मियों के रूप में मान्यता दी गई थी और उन्हें भारत में अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया.’
उन्होंने आगे बताया, ‘ये लोग गुरु रवि दास के अनुयायी हैं और उन्होंने न केवल आध्यात्मिक कारणों से, बल्कि अपनी सामाजिक पूंजी के निर्माण के लिए भी रवि दास डेरों (धार्मिक केंद्र) का गठन किया. माझा और मालवा के दलित भी दोआब में दलितों से प्रोत्साहन पाते हैं.’
1969 के पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद से, 2012 को छोड़कर, हर चुनाव में राज्य सरकार का बदलाव हुआ है. कभी-कभी, दोआबा और मालवा के परिणाम अलग-अलग दिशाओं में चले गए हैं, लेकिन व्यापक तौर पर दिखने वाली प्रवृत्ति यही है कि पंजाब में चाहे कोई भी क्षेत्र क्यों न हो वह एक अवधि/ कार्यकाल से अधिक समय तक किसी से साथ नहीं रहता है.
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