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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतदो मंदिर आंदोलनों की टक्कर- उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के शून्य को भरने की स्टालिन की पहल

दो मंदिर आंदोलनों की टक्कर- उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के शून्य को भरने की स्टालिन की पहल

बीजेपी ने राष्ट्रीय राजनीति को सफलतापूर्वक हिंदू बनाम मुसलमान और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में सीमित कर दिया है. विपक्ष भी इस खेल में फंस गया है.

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जिस दौर में उत्तर भारत में सामाजिक न्याय और पिछड़े-दलित वर्गों की राजनीति की धारा बेहद कमजोर हो गई है और राजनीति पर हिंदुत्व की विचारधारा हावी है, तब तमिलनाडु ने न सिर्फ सामाजिक न्याय की राजनीति की अलख जगाए रखी है बल्कि अब इस विचारधारा को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाने का जिम्मा भी ले लिया है. डीएमके सरकार सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लगातार एक के बाद एक कदम बढ़ा रही है. इसमें सबसे ताजा है मेडिकल एडमिशन के लिए होने वाली नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटा में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण की लड़ाई का नेतृत्व करना और उसमें जीत हासिल करना.

सवाल उठता है कि ओबीसी कोटा लागू कराने की कामयाबी के बाद, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री राष्ट्रीय स्तर पर जो पहलकदमी ले रहे हैं, उसकी राष्ट्रीय स्तर पर खासकर, उत्तर भारत में कैसी प्रतिक्रिया होगी? ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जनसंख्या का गणित ऐसा है कि उत्तर भारत और उसमें भी यूपी और बिहार के पास कई बार राष्ट्रीय राजनीति की चाबी अपने आप आ जाती है. इसलिए किसी भी विचार की यहां गूंजने पर ही बात बनती है.

यूपी और बिहार दो ऐसे राज्य हैं, जहां एक समय सामाजिक न्याय की राजनीति का परचम लहराया था, जिसे राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफ्रलो ने साइलेंट रिवोल्यूशन या मूक क्रांति कहा था. 1977 के बाद से ही इन राज्यों में पिछड़ी जातियों के नेताओं का उभार हुआ, जो 1990 आते-आते शिखर पर पहुंच गया. इस दौर में न सिर्फ पिछड़ी जातियों के नेता ताकतवर हुए बल्कि पिछड़ी जातियों के लिए मंडल कमीशन आया और उनकी राजकाज में हिस्सेदारी भी बढ़ी.

लेकिन वह सब अब बीता हुआ कल है. क्रिस्टोफ जैफ्रलो कहने लगे हैं कि मूक क्रांति अब खत्म हो चुकी है और अब पीछे की ओर का सफर चल रहा है. 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के उभार और उसके बाद से न सिर्फ लोकसभा में ओबीसी सांसदों की संख्या घटी है बल्कि उनके मुद्दे भी पीछे हो गए हैं. जैफ्रलो कहते हैं कि ‘बीजेपी के नेतृत्व में इलीट यानी प्रभुवर्ग ने प्रतिक्रांति कर दी है.’ प्रतिक्रांति के इस दौर में सामाजिक न्याय की राजनीति और इस राजनीति के नेता पीछे चले गए हैं.

ऐसे समय में अगर कोई राज्य, कोई दल और कोई नेता सामाजिक न्याय की राजनीति कर रहा है और उसकी बात कर रहा है तो ये कोई साधारण बात नहीं है. खासकर, इसलिए क्योंकि इसी राजनीतिक विचार ने बीजेपी को हिंदी क्षेत्र में लंबे समय तक रोके रखा था.

ये बात गौर करने की है कि स्टालिन का सामाजिक न्याय उत्तर भारतीय नेताओं के सामाजिक न्याय से अलग है. उत्तर भारत के सामाजिक न्याय के नेता विकास और औद्योगीकरण के लिए नहीं, समाजवादी विचार के लिए जाने जाते, जबकि स्टालिन और डीएमके के सामाजिक न्याय में तेज गति से विकास एक अनिवार्य पहलू है. इसके अलावा डीएमके शिक्षा, स्वास्थ्य और स्त्री समानता पर पूरा जोर बनाए रखती है. उसे ये सब पेरियार, अन्नादुरै, जस्टिस पार्टी और द्रविड़ आंदोलन से विरासत में मिला है. इसके साथ ही द्रविड़ राजनीति के असर की वजह से स्टालिन जाति मुक्ति के सवालों को भी उठाते हैं और उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं.


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स्टालिन क्यों बना रहे हैं सामाजिक न्याय मोर्चा

अब महत्वपूर्ण ये है कि स्टालिन ने गणतंत्र दिवस के दिन ये घोषणा की है कि वे ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस बनाने की पहल कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इसमें तमाम राज्यों के पिछड़े वर्गों के नेता होंगे और ये एक साझा मंच की तरह काम करेगा. तमिलनाडु के नेता पहले भी राष्ट्रीय स्तर पर काफी सक्रिय रहे हैं जिनमें करुणानिधि और जयललिता प्रमुख हैं. स्टालिन पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर हस्तक्षेप करने की ओर बढ़ रहे हैं.

ऐसा लगता है कि स्टालिन इस बात को देख पा रहे हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय को लेकर गहरी खामोशी है और ये जगह लगभग खाली पड़ी है. बीजेपी ने राष्ट्रीय राजनीति को सफलतापूर्वक हिंदू बनाम मुसलमान और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में सीमित कर दिया है. विपक्ष भी इस खेल में फंस गया है. कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति का केंद्रीय तत्व बनाए रखते हुए उस समय का इंतजार कर रही है जब बीजेपी अपने कामों से इतनी अलोकप्रिय हो जाएगी कि लोग अपने आप कांग्रेस के पास आ जाएंगे. राष्ट्रीय स्तर पर दावेदारी करने के लिए तैयार ममता बनर्जी की राजनीति के केंद्र में भी धर्मनिरपेक्षता है और इसके साथ वे बांग्ला गौरव को मिलाकर चलती हैं.

इनमें से किसी के भी एजेंडे पर सामाजिक न्याय नहीं है. जबकि सामाजिक न्याय की राजनीति, जिसे पत्रकार जाति की राजनीति या पहचान की राजनीति भी कहते हैं, ने उत्तर भारत के दो बड़े राज्यों- यूपी और बिहार में एक समय बीजेपी के विस्तार को रोका था. उस दौर में मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, लालू प्रसाद यादव और मायावती का बोलबाला था और इनमें से तीन तो लंबे समय तक मुख्यमंत्री भी रहे. देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर कांशीराम का भी जलवा हुआ करता था. दिल्ली तक में इनकी खूब सुनी जाती थी. 1989 और फिर 1996 में बनी मिली जुली सरकारों में, जब वीपी सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा, आईके गुजराल प्रधानमंत्री थे, तब ये नेता काफी असरदार हुआ करते थे और मीडिया में चर्चाएं होती थीं कि ये प्रधानमंत्री बन सकते हैं. यहां तक कि यूपीए-1 में भी मुलायम सिंह, मायावती और लालू यादव का समर्थन काफी महत्वपूर्ण था.

वो दौर अब खत्म हो चुका है. लालू यादव को नीतीश कुमार ने लंबे समय से सत्ता से बाहर रखा है. वहीं अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी 2014, 2017 और 2019 के चुनाव हार चुकी है. बीएसपी का हार का सिलसिला और पुराना है. 2007 के बाद उससे कोई बड़ा चुनाव नहीं जीता है.

स्टालिन जब कह रहे हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर नेताओं का मोर्चा बनाएंगे तो उन्हें एहसास है कि उत्तर भारत में किस तरह का राजनीतिक शून्य है.


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नीट में ओबीसी कोटा दिलाने मे मिली कामयाबी का जोश

स्टालिन की अखिल भारतीय होने की इच्छा या योजना को मेडिकल एडमिशन में ओबीसी कोटा लागू होने से पंख लग गए हैं. नीट को गरीब और स्टेट बोर्ड के स्टूडेंट्स के लिए भेदभावमूलक मानते हुए डीएमके ने अपने चुनाव घोषणापत्र में तमिलनाडु में नीट खत्म करने का वादा किया था. कोर्ट के आदेश और केंद्रीय कानून से लागू हुआ नीट तो खत्म नहीं हो पाया लेकिन इस क्रम में डीएमके को नीट के ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी आरक्षण लागू कराने में कामयाबी मिल गई. इसके लिए संघर्ष का नेतृत्व तमिलनाडु सरकार और डीएमके ने किया. राज्य के स्तर पर डीएमके ने राजनीतिक आम राय बनाई और केंद्र पर दबाव डाला. इस बीच तमिलनाडु सरकार ने कानूनी लड़ाई जारी रखी जिसमें डीएमके का पक्ष राज्य सभा के सांसद और वकील पी. विल्सन ने रखा. हाई कोर्ट के आदेश के बाद, केंद्र सरकार ऑल इंडिया सीटों में 27% ओबीसी कोटा देने के लिए राजी हो गई जिस पर सुप्रीम कोर्ट भी अपनी मुहर लगा चुका है. इस जीत से डीएमके और स्टालिन का सामाजिक न्याय आंदोलन में रुतबा बढ़ा है.

सामाजिक न्याय दरअसल डीएमके को विरासत में मिला है क्योंकि इसके पीछे पेरियार, अन्नादुरै और द्रविड़ आंदोलन की परंपरा है. इसलिए 2021 के अक्टूबर महीने में जब एक घुमंतु जाति की महिला अश्विनी को मामल्लपुरम के पेरुमल मंदिर में प्रसाद देने से मना किया गया तो मुख्यमंत्री ने तत्काल हस्तक्षेप किया. इसके बाद राज्य के धार्मिक कार्य मंत्री शेखरबाबु खुद वहां गए और मंदिर के अंदर भोज का आयोजन हुआ, जिसमें उक्त महिला ने मंत्री और कमिश्नर के साथ बैठकर मंदिर का प्रसाद खाया. इस घटना से राज्य में बहुत जबर्दस्त संदेश गया.

 

डीएमके का अपना मंदिर आंदोलन

पूरा उत्तरी भारत इस समय बीजेपी के मंदिर आंदोलनों की चपेट में है. अयोध्या और काशी के बाद अब मथुरा की चर्चा बीजेपी कर रही है. ऐसा समय में डीएमके की अपनी मंदिर राजनीति चल रही है. पेरियार चाहते थे कि शूद्र, दलित और महिलाएं भी मंदिर मे पुजारी बनें ताकि मंदिरों पर जातीय वर्चस्व टूटे. करुणानिधि ने अपने दौर में इसे लागू करने की काफी कोशिश की लेकिन कोर्ट के रुख के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए. स्टालिन ने मंदिरों में हर वर्गों के पुजारी रखना शुरू कर दिया है. यहां तक कि सरकार की तरफ से ये घोषणा भी हुई है अगर महिलाएं पुजारी बनना चाहती हैं तो आगे आएं. तमिलनाडु सरकार के इस कदम का स्वागत हुआ है और स्वागत करने वालों में बीजेपी भी शामिल है.

इस बीच, डीएमके सरकार तमिलनाडु और तमिल केंद्रित कामों को लगातार आगे बढ़ा रही है. एक महत्वपूर्ण फैसले में सरकार ने तमाम प्रोफेशनल कोर्स में तमिलनाडु बोर्ड के स्टूडेंट्स के लिए 7.5% सीटें रिजर्वे कर दी हैं. कोविड के कारण जो बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं, उन्हें पढ़ाने के लिए वोलंटियर मोहल्लों में भेजा जा रहा है. यही नहीं तमिलनाडु सरकार ने दुकानों में काम करने वाले वर्कर्स के लिए बैठने के अधिकार का कानून भी पास किया है.

स्टालिन को तमिलनाडु के रूप में शासन करने के लिए एक ऐसा राज्य मिला है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला समानता में पहले से ही अग्रणी राज्यों में है. डीएमके का ये दावा मजबूत है कि सामाजिक न्याय की वजह से तमिलनाडु आज इस स्थिति में है.

तमिलनाडु की इस चमक को दिखाकर स्टालिन राष्ट्रीय स्तर पर क्या कुछ कर पाते हैं, इस पर नजर बनाए रखनी चाहिए.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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