21 जनवरी को अमर जवान की याद में इंडिया गेट के साये में 50 साल से निरंतर प्रज्ज्वलित ‘अमर जवान ज्योति’ को वहां से करीब 350 मीटर दूर ‘नेशनल वार मेमोरियल’ की ज्योति में समाहित कर दिया गया, जिसे लेकर काफी विवाद भी उभरा. इसने भारतीय सेना के इतिहास के पेचों को भी उभार दिया और सैन्य कार्रवाई के दौरान शहीद हुए सभी सैनिकों को सम्मानित करने की जरूरत को रेखांकित कर दिया. भारतीय सेना का इतिहास 1757 से शुरू होता है, जब ब्रिटिश प्रेसीडेंसी के अधीन विभिन्न व्यापारिक नगरों की रक्षा के लिए तैनात गैरिसन गार्डों की कंपनियों को एक बटालियन में संगठित किया गया था.
सैनिक अपने समय की सरकार के लिए युद्ध लड़ते हैं. 1947 तक, भारतीय सैनिक ब्रिटिश झंडे ‘यूनियन जैक’ के तले उपनिवेशवादी सेना के सैनिकों के रूप में लड़ते और शहीद होते थे. आज़ादी के बाद वे हमारे तिरंगे के नीचे आ गए. हमारे सैनिक वे भी थे जिन्होंने उपनिवेशवादी अर्थों में ‘विद्रोह’ किया और 1857-58 के हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लड़ते हुए शहीद हुए या जिन्हें फांसी दे दी गई या तोपों से बांधकर उड़ा दिया गया. इसी तरह, हमारे ऐसे सैनिक भी थे जिन्होंने युद्धबंदी के रूप में ‘आज़ाद हिंद फौज’ में शामिल होकर 1942-45 में कोहिमा, इम्फाल, बर्मा में जापानी सेना के साथ लड़ते हुए शहीद हुए. ‘आज़ाद हिंद फौज’ की तरह इटली में ‘बटालिओं आज़ाद हिंदोस्तान’ का, जर्मनी में ‘फ्री इंडियन लेजाँ’ का गठन किया गया था. ‘विद्रोहियों’ और ‘बलवाइयों’ के प्रति सेनाओं के विद्वेष के बावजूद, हमारे विशिष्ट इतिहास के मद्देनजर दोनों तरह के सैनिकों को शहीदों का दर्जा पाने के हकदार हैं और उन्हें वह दर्जा दिया ही जाना चाहिए.
बहरहाल, विवादों ने सरकार और राष्ट्र को शहीद सैनिकों को सम्मान देने के भावनात्मक मुद्दे पर नये सिरे से विचार करने का एक अवसर प्रदान किया है.
अनावश्यक विवाद
अमर जवान ज्योति 1971 के युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में बना एक अस्थायी युद्ध स्मारक था, हालांकि इसका विशेष तौर पर उल्लेख नहीं किया गया था. उसका उद्घाटन 26 जनवरी 1972 को किया गया था. उसे एक महीने में बनाकर तैयार किया गया था, जिसके चलते इसके स्थान और डिजाइन का विकल्प सीमित था. सेना ने सबसे सरल डिजाइन चुना था— अज्ञात सैनिक के लिए संगमरमर का एक आसन और स्मारक, जिसके ऊपर एक राइफल को उलटा करके खड़ा कर दिया गया और उसे हेलमेट पहना दिया गया. सेना में श्रद्धांजलि देने का यह पारंपरिक तरीका रहा है. पीठिका पर चार कलश रखे गए जो अमरत्व के प्रतीक के रूप में निरंतर प्रज्ज्वलित ज्योति के लिए स्थापित किए गए थे. उनमें से एक कलश में अमर ज्योति निरंतर जलती रहती थी, जबकि विशेष आयोजनों पर चारों कलश में ज्योति जलाई जाती थी. अमर जवान ज्योति को इंडिया गेट के नीचे स्थापित किया गया.
मुझे याद है कि 1972 में भी अमर जवान ज्योति को लेकर विवाद उठा था. इसके सादे डिजाइन और आकार की आलोचना की गई थी कि यह शान के मुताबिक नहीं है. कई लोगों ने निंदा में यह भी कहा कि इसे एक उपनिवेशवादी स्मारक के साये में स्थापित किया गया. लेकिन उस समय हमारी विजेता सेना के अधिकतर जनरल और सूबेदार मेजर उपनिवेशवादी सेना से ही आए थे और सेना के औपनिवेशिक अतीत और गणतांत्रिक वर्तमान के बीच एक तरह का संतुलन स्थापित हो गया था इसलिए विवाद ने ज्यादा ज़ोर नहीं पकड़ा था. दूसरी आपत्ति यह थी कि उलटी हुई राइफल और उसके ऊपर हेलमेट को ईसाई प्रतीक माना गया. इस आपत्ति का यह तार्किक खंडन किया गया कि 100 से ज्यादा सालों से यह सेना की परंपरा का हिसा बन गया है और इसे अब ईसाई प्रतीक से जोड़कर नहीं देखा जाता.
अमर जवान ज्योति को 2019 तक वास्तव में नेशनल वार मेमोरियल माना जाता था, और शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के सरकारी और सैन्य आयोजन वहीं होते थे. स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति, और गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के साथ वहां फूलों की माला अर्पित करके श्रद्धांजलि देते थे. स्मारक जनता के लिए दिन-रात खुला रहता था और वहां होने वाले औपचारिक आयोजनों का प्रसारण होता था. इस तरह वह पूरे राष्ट्र के लिए एक भावनात्मक प्रतीक बन गया था.
नेशनल वार मेमोरियल की अमर ज्योति में अमर जवान ज्योति को समाहित करना मेरे विचार से एक तार्किक कदम ही है. अमर सैनिक के लिए 350 मीटर की दूरी पर दो अमर ज्योतियों का कोई अर्थ नहीं था. विवाद जल्दबाज़ी में किए गए राजनीतिक फैसले, और इसकी सफाई में ‘सरकारी सूत्रों’ के द्वारा चुनिन्दा पत्रकारों को इसकी अनगढ़ व्याख्या करने के कारण उभरा. ऐसे एक सूत्र ने कहा, ‘इंडिया गेट पर केवल उन्हीं सैनिकों के नाम खुदे हैं जो अंग्रेजों के लिए प्रथम विश्वयुद्ध में और एंग्लो-अफगान युद्ध में शहीद हुए. इसलिए यह हमारे औपनिवेशिक अतीत का ही प्रतीक है.’
इसके बाद कांग्रेस और भाजपा में कीचड़ उछालने का खेल शुरू हो गया. मीडिया के एक समूह और नव-राष्ट्रवादियों ने आग में घी डालने का काम किया. आज़ादी से पहले के सेना के इतिहास को देखते-देखते तार-तार कर दिया गया. उस दौर के सैनिक रातोरात अपने उपनिवेशवादी शासकों के लिए लड़ने वाले भाड़े के सैनिक साबित कर दिए गए, जिनमें जनरल और सीनियर जेसीओ भी हैं जिन्होंने 1,000 वर्षों के इतिहास में 1971 में सबसे महान विजय दिलाई थी.
विवेकपूर्ण तो यह होता कि अमर ज्योतियों के विलय के बारे में जनता और विपक्ष, खासकर कांग्रेस पार्टी को पहले से बताया जाता. आखिर, कांग्रेस अमर जवान ज्योति को इंदिरा गांधी से जोड़ती है, जो 1971 की विजय की राजनीतिक शिल्पकार थीं और उस स्मारक का विचार उनका ही दिया हुआ था. इसके अलावा, वरिष्ठ सेनाधिकारियों ने औपचारिक रूप से कहा था कि नेशनल वार मेमोरियल के उदघाटन के बाद भी अमर जवान ज्योति ज्यों की त्यों कायम रहेगी.
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आगे क्या किया जाए
हरेक संकट की तरह हरेक विवाद भी एक अवसर उपलब्ध कराता है. इतिहास से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता और न उसे हौवा बनाया जा सकता है क्योंकि आज हम जो कुछ हैं उसी की वजह से हैं. हमारा औपनिवेशिक अतीत हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर पहलू में प्रतिबिंबित होता है चाहे वह अंग्रेजी भाषा हो, पहनावा हो, समारोह हों, हमारे घर हों या राजनीतिक सत्ता के कार्यालय हों. वह भारतीय सेना का भी अंतरंग हिस्सा है. 1971 तक हमने उन्हीं अफसरों और सैनिकों के बूते युद्ध लड़े, जो आज़ादी के पहले की सेना में तैयार हुए थे. न हम उन सैनिकों को भुला सकते हैं, जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दोनों तरफ से शहीद हुए या आज़ाद हिन्द फौज अथवा इटली और जर्मनी के उनके प्रतिरूपों के हिस्से थे. हमारे शहीद सैनिकों को दुनिया के कई देशों में याद किया जाता है और उनके सम्मान में उपयुक्त स्मारक बनाए गए हैं. मेरा मानना है कि हमारे शहीद सैनिकों और उनके बलिदान में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए.
मेरा सुझाव तो यह है कि दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर नेशनल वार मेमोरियल तक के क्षेत्र को हमारे शहीद सैनिकों के सम्मान में समर्पित किया जाए और उस क्षेत्र को अमर जवान स्मारक उद्यान या कोई और उपयुक्त नाम दिया जाए. इंडिया गेट के हिस्से को औपनिवेशिक दौर के स्मारक के रूप में नये सिरे से विकसित किया जाए. हालांकि इंडिया गेट 1914 से 1921 के बीच शहीद हुए भारतीय सैनिकों को समर्पित है मगर इसके ऊपर केवल उन 13,313 सैनिकों के नाम खुदे हैं, जो पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और तीसरे एंग्लो-अफगान युद्ध में मारे गए थे. यह स्माराक आज बुरी हालत में है और तुरंत मरम्मत करने की जरूरत है. इसे दुरुस्त करने के बाद इस पर आज़ादी से पहले प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध समेत सभी युद्धों और अभियानों में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के नाम खोदे जाएं. इसे स्वतंत्रता-पूर्व का युद्ध स्मारक कहा जा सकता है.
आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हुए और युद्ध में शहीद हुए असैनिकों को भी बराबर का सम्मान दिया जाए. इस स्मारक को औपनिवेशिक शासन का विरोध करते हुए शहीद हुए सभी नागरिकों और क्रांतिकारियों के प्रति भी समर्पित किया जाए. इसे स्वतंत्रता स्मारक कहा जा सकता है.
नेशनल वार मेमोरियल को आज़ादी के बाद शहीद हुए हमारे सैनिकों के सम्मान के समारोहों के लिए मुख्य स्मारक का दर्जा दिया जाए. मेरे सुझावों में यह भी शामिल है कि अमर जवान ज्योति को राजनीतिक तथा सार्वजनिक आम सहमति के आधार पर नेशनल वार मेमोरियल परिसर में स्थापित किया जाए. प्रस्ताव के अनुसार, नेशनल वार मेमोरियल पूरे परिसर से जुड़ा हो और वह प्राचीन काल से हमारी सैन्य विरासत के सर्व-समावेशी संग्रहालय के रूप में उभरे.
भारतीय सेना हमेशा राजनीति से दूर ही रही है और हमारे सैनिक अपने समय की सरकार के आदेश पर युद्ध लड़ते हुए बलिदान देते रहे हैं और उपरोक्त अपवाद के साथ हमारे अनोखे अतीत में आज़ादी के लिए भी लड़े. शहीद सैनिकों के बीच भेदभाव हमारी सेना के बुनियादी मूल्यों के खिलाफ रहा है. नेता, मीडिया, और जनता को इस मसले के प्रति संवेदनशीलता बरतनी चाहिए. हम सेना को खोखली नींव वाले आसन पर खड़ा नहीं कर सकते.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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