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Friday, 22 November, 2024
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बधाई दो में एक ‘लैवेंडर मैरिज’ दिखाई गई है, धारा- 377 के बाद भारत में LGBT+ की लड़ाई को ठेस पहुंचाती है

राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर स्टारर 'बधाई दो' में एक गे को एक लेस्बीअन से शादी करते हुए दिखाया गया है ताकि उनका परिवार उनकी पीठ थपथपा सके.

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भारत के एलजीबीटी+ समुदाय को लोकप्रिय बनाने के सिलसिले में बॉलीवुड जल्द ही एक नई मूवी बधाई दो लेकर आ रहा है जिसमें भूमि पेडनेकर और राजकुमार राव ने काम किया है.

हाल ही में रिलीज़ हुए ट्रेलर में भारत के एक छोटे से शहर में एक लेस्बियन महिला को एक समलैंगिक आदमी से शादी करते हुए दिखाया गया है. विपरीत जेंडर के समलैंगिकों के आपस में शादी करने को ‘लैवेंडर मैरिज’ कहा जाता है.

इस फिल्म में एक ‘सतरंगी सेटिंग’ का दावा किया गया है, राजकुमार राव ने एक समलैंगिक पुलिसकर्मी का रोल अदा किया है जो एक लेस्बियन पीटी टीचर भूमि पेडनेकर से शादी करना चाहता है ताकि वो अपने परिवारों से पीछा छुड़ा सकें. फिल्म 11 फरवरी को रिलीज़ हो रही है.

हालांकि ट्रेलर उम्मीद जगाता है और समीक्षाओं में उसे बहुत प्रशंसा मिल रही है लेकिन एक समस्या है- लैवेंडर शादियों को लोकप्रिय करने से भारत में एलजीबीटी+ समुदाय को एक झटका लग सकता है और इससे समलैंगिक विवाहों की लड़ाई में अड़चन पेश आ सकती है.

थोड़ी बहुत देर हो चुकी है

मुझे ख़ुशी है कि पिछले दो सालों में, हिंदी सिनेमा उद्योग ने समलैंगिकता से जुड़ी बातचीत को सामने लाकर रख दिया है. मेरे बहुत सारे गे दोस्त जो हाल ही में सामने आए हैं, अब अपने परिवारों के साथ बैठते हैं और उनके पास अब दिखाने के लिए कुछ भारतीय है, कि उनकी लैंगिकता बिल्कुल सही है. आख़िरकार, भारतीय मानसिकता और सोच में फिल्में एक बड़ा रोल अदा करती हैं.

चंडीगढ़ करे आशिक़ी (2021), शुभ मंगल ज़्यादा सावधान (2020), और एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा (2019) को बहुत लोगों ने देखा है और इन्हें मुख्यधारा के चैनलों और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर स्ट्रीम किया गया है. ये एक अच्छी चीज़ है. लेकिन, 377 के बाद के भारत में एक लैवेंडर शादी दिखाना थोड़ी पुरानी बात लगती है.

उस ज़माने में जब समलैंगिकता का मतलब मौत या उम्र क़ैद हुआ करता था- ख़ासकर 20वीं सदी के शुरू में- बहुत सी गे हस्तियों ने इस तरह की सुविधाजनक शादियां कीं ताकि उनकी सार्वजनिक छवि ‘सीधी’ रहे. सबसे मशहूर हैं रॉक हडसन– जिन्होंने एक हॉलीवुड स्टार और एकांत में एक समलैंगिक इंसान का जीवन जिया- वो उन शुरुआती बड़ी हस्तियों में से थे जिनकी 1985 में एड्स से मौत हुई. कहा जाता है कि हडसन ने अपनी सेक्रेटरी फिलिस गेट्स शादी कर ली ताकि समलैंगिक समुदाय के खिलाफ प्रतिघात को रोका जा सके जिसके लिए हॉलीवुड जाना जाता था.

अब तेज़ी से आईए 21वीं सदी के दूसरे दशक में चलते हैं- जिसमें सक्रियतावाद, एलजीबीटी+ समुदाय के लिए मुखर समर्थन, धारा 377 को रद्द किए जाने, जज किए जाने (कम से कम टियर-1 और टियर-2 शहरों में) का डर ख़त्म हो जाने के बाद- समलैंगिक के तौर पर सामने आना थोड़ा आसान हो गया है, हालांकि इसे अभी भी एक कलंक समझा जाता है.

दिल्ली हाईकोर्ट में समलैंगिक विवाहों की याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है और मामले की अगली सुनवाई इस साल 3 फरवरी के लिए तय है. अगर अंतिम फैसला एलजीबीटी+ समुदाय के पक्ष में आता है तो भारत सभी के लिए विवाह के समान अधिकारों के मामले में एक लाल बिंदु नहीं रहेगा.

फिर भी, जब एलजीबीटी+ का सक्रियतावाद हर किसी को छू रहा है तो समलैंगिक पुरुषों के लेस्बियन महिलाओं से शादी करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है- जब तक उनका परिवार उन्हें उनकी मर्ज़ी के खिलाफ इसके लिए मजबूर न कर दे. बल्कि, बहुत से समलैंगिक पुरुष जिन्हें मैं जानता हूं अब वास्तव में विवाहित लोगों के साथ यौन संबंधों या रिश्तों से इनकार कर रहे हैं. उनका कहना है कि वो ‘शादियां तोड़ने वाले’ नहीं बनना चाहते.

इसलिए, लैवेंडर शादी को मुख्यधारा में लाने में अब बहुत देर हो गई है. अगर ये फिल्म उससे पहले बनती जब 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मानने से इनकार कर दिया था (जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में अपराध क़रार दे दिया और फिर 2018 में फिर से उसे उचित ठहरा दिया), तो इसका कुछ ज्यादा मतलब बनता था.


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मुझे क्या डर है

मुझे सिर्फ एक डर है कि बधाई दो  अंजाने में लैवेंडर विवाहों की इस पुरानी संस्कृति को लोकप्रियता दे सकती है. गे और लेस्बियंस तथा अन्य यौन रुझान वाले बहुत सारे भारतीय हैं जो इस मूवी को देखेंगे और उन्हें इस बात का ख़याल आएगा कि समाज की भेदी निगाहों से बचने के लिए वो विपरीत जेंडर का कोई एलजीबीटी+ जीवनसाथी तलाश कर सकते हैं.

इन सब गौरव परेड्स, एलजीबीटी+ फिल्मों और जागरूकता के बावजूद, ख़ासकर विवाह के मामले में भारतीय समाज अभी भी बेहद पुरुष प्रधान है और अपने दक्षिण एशियाई समकक्षों से पराया नहीं है.

2017 में एक बीबीसी रिपोर्ट में दिखाया गया था कि दक्षिण एशिया के मुसलमान समलैंगिक पुरुष किस तरह, इंग्लैंड में ये सुविधाजनक शादियां कर रहे थे- जहां 2014 में समलैंगिक शादियों को वैध कर दिया गया था- सिर्फ इसलिए कि वो जिस समुदाय में पलकर बड़े हुए थे, उससे निष्कासित नहीं होना चाहते थे.

भारत में भी, ‘परिवार को चाहने वाले’ ऐसे गे लोग हैं, जो महिलाओं से शादियां कर रहे हैं, अपने लिए नहीं बल्कि सिर्फ अपने परिवारों को खुश रखने के लिए भले ही इससे उन्हें जीवन भर कष्ट मिलता रहे.

और सच कहा जाए तो अगर विवाद प्रेम और शारीरिक अंतरंगता की संस्था है और इसका मतलब सिर्फ बच्चे पालना नहीं है तो फिर इसके क्या मायने हैं कि जो लोग एक दूसरे को प्यार करने के लिए नहीं बने हैं, वो साथ रहें और किसी और के साथ सोएं?

एक गे पार्टी में एक लेस्बियन दोस्त के साथ मेरी बातचीत काफी चौंकाने वाली थी. उसने मुझे एक गे व्यक्ति के परिवार के बारे में बताया, जो उनके बेटे के साथ विषमलैंगिक विवाह के लिए उसे पैसा देने के लिए तैयार था. उसने मुझे ये भी बताया कि ऐसी शादियों में बाद में पुरुष प्रधानता शामिल हो जाती है और महिला को आख़िरकार पुरुष के परिवार की मार, ससुराल वालों की बदसलूकी और अपने पति की ज़हरीली मर्दानगी को झेलना पड़ता है.  ये अपेक्षा हमेशा रहती है कि एक बच्चा पैदा करने के बाद सब कुछ ‘ठीक’ हो जाएगा.

लैवेंडर विवाह तबाही का एक रास्ता है और बधाई दो में एक ही अच्छा अंत मैं देखना चाहता हूं और वो है तलाक़.

लेखक के विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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