देश 73वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है. इस अवसर पर हमेशा की तरह विशेषकर राष्ट्र की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने वाली परेड दिल्ली में आयोजित की जाएगी. परेड में मार्च करने वाली टुकड़ियों, सेनाओं के बैंड और झांकियों आदि की संख्या में तो कोई बदलाव नहीं होगा, मगर तीनों सेनाओं के कुल 75 विमानों तथा हेलिकॉप्टरों की भागीदारी से हवाई युद्ध में देश की ताकत का विशेष प्रदर्शन होगा.
मौजूदा सामरिक स्थिति में, हवाई शक्ति की भूमिका के महत्व पर ज़ोर देना उल्लेखनीय है. हमारी पश्चिमी और उत्तरी सरहदों पर जिस तरह के युद्ध की आशंका जाहिर की जा रही है उसमें हवाई शक्ति पहले के मुक़ाबले ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकती है.
आर्थिक गिरावट, कमजोर बजट
वायुसेना और नौसेना, दोनों ज्यादा पूंजी की मांग करती हैं, और भारत को कोविड महामारी के कारण आई आर्थिक गिरावट के बीच इन दोनों सेनाओं को और मजबूत बनाना है. भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और उपभोक्ता बाजार है. लेकिन यहां उल्लेखनीय आर्थिक विषमताएं भी मौजूद हैं. केवल 2 फीसदी नागरिक ही आयकर देते हैं. हालांकि इतने वर्षों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है, मगर अभी भी करोड़ों भारतीय घोर गरीबी में जी रहे हैं. विषमता, बेरोजगारी, कुशिक्षा अभी भी चिंता की वजहें बनी हुई हैं, जिन्हें महामारी ने और गंभीर बना दिया है.
सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए वित्तीय बजट को राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के कारण बढ़ती मांगों के साथ संतुलित करना जरूरी है. ये चुनौतियां बढ़ते वैश्विक तथा क्षेत्रीय तनावों के कारण और गंभीर होती जा रही है.
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के हिसाब से देखें तो पिछले एक दशक में प्रतिरक्षा पर खर्च इसके 2.5 प्रतिशत से घटकर 2.1 प्रतिशत पर पहुंच गया है. रक्षा मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने 2018 में सिफ़ारिश की थी कि प्रतिरक्षा की पर्याप्त तैयारी के लिए इस पर खर्च जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर किया जाना चाहिए. विडंबना यह है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी 2021 के अपने बजट भाषण में रक्षा बजट का जिक्र तक नहीं किया.
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बेहद जरूरी बदलाव
चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस) मनोज मुकुंद नरवणे ने 15 जनवरी 2022 को सेना दिवस पर अपने भाषण में सैन्य ऑपरेशन के मामले में जिस बदलाव का जिक्र किया है उससे राहत मिल सकती है. लंबे समय से पाकिस्तान को केंद्र में रखकर सैन्य शक्ति पर ज़ोर दिया जाता रहा है, जबकि कई दशकों से यही संकेत मिल रहा है कि चीन हमारा मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. अब सैन्य ऑपरेशन के मामले में जो बदलाव किया जाएगा उसमें भारतीय सेना, खासकर थल सेना को उत्तरी मोर्चे पर केंद्रित करने के लिए उसके पुनर्गठन पर ज़ोर देना होगा, लेकिन इसके साथ ही पश्चिमी मोर्चे पर जवाबी कार्रवाई करने लायक क्षमता भी बनाकर रखना होगा. इस तरह के बदलाव से भारत दो मोर्चों पर चीन और पाकिस्तान का सामना करने की सैन्य तैयारी में कुछ हद तक सुधार कर पाएगा.
चीन से तो सरहद पर खतरा है, जबकि पाकिस्तान से आतंकवाद के रूप में खतरा है. दोनों तरह के खतरों का सामना करने के लिए सैन्य शक्ति को अलग तरह से तैयार करने की जरूरत है.
चीन से अपने भौगोलिक इलाके की रक्षा करने के लिए ज्यादा सैनिकों की जरूरत पड़ेगी और उन्हें जमीन और आसमान से मार करने वाले आग्नेय अस्त्रों के बूते ताकत देने की जरूरत पड़ेगी. पाकिस्तान के खिलाफ मुख्य जरूरत आग्नेय अस्त्रों पर आधारित जवाबी कार्रवाई की क्षमता बढ़ाने की होगी. मुख्य जरूरत लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपों, जमीन से मार करने वाली मिसाइलों, और एरियल प्लेटफॉर्मों की पड़ेगी. दोनों मोर्चों पर हवाई शक्ति की भूमिका ज्यादा बड़ी होगी क्योंकि उन्हें कहीं भी तेजी से तैनात किया जा सकता है और उनका व्यापक उपयोग किया जा सकता है.
लेकिन भारत की हवाई ताकत?
उम्मीद है कि गणतंत्र दिवस परेड में भारत की हवाई ताकत का प्रतिनिधित्व करने वाले राफेल, जागुआर, और विभिन्न मिग विमानों के अलावा ‘अवाक्स’ जैसे ‘फोर्स मल्टीप्लायरों’ का प्रदर्शन किया जाएगा. विदेशी मूल के ये विमान और हेलिकॉप्टर यही उजागर करते हैं कि भारतीयकरण की दशकों की कोशिशों के बावजूद इस दिशा में काफी प्रगति न होने के कारण हथियारों के लिए आयात पर निर्भरता बनी हुई है.
नौसेना के कुछ और थल सेना के कई हथियार प्लेटफॉर्मों का तो भारतीयकरण हो गया है मगर महत्वपूर्ण सहायक हथियारों को अभी भी आयात करना पड़ता है. ऐसा लगता है कि हथियारों के लिए आयात पर भारत की निर्भरता अभी बनी रहेगी, और यह अपनी सैन्य शक्ति को स्वरूप प्रदान करने की उसकी क्षमता को बाधित करेगी. यह दूसरे देशों के साथ उसकी रणनीतिक साझीदारी को भी प्रभावित करेगी.
भारत की क्षमता का पूरा उपयोग करने के लिए कुल आर्थिक तथा वैज्ञानिक प्रगति में परस्पर निर्भरता जरूरी है. लेकिन सैन्य शक्ति के मामले में ऐसी परस्पर निर्भरता अगर विमानों, टैंकों, मिसाइलों और तोपों जैसे बुनियादी अस्त्रों के लिए परनिर्भरता की ओर झुकी हुई हो तो वह रणनीतिक स्वायत्तता और अपनी सुरक्षा से संबंधित हितों की रक्षा में नुकसानदेह साबित हो सकती है.
हथियारों के लिए परनिर्भरता का अर्थ
टेक्नोलॉजी और प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण अंतरराष्ट्रीय ताकत का स्रोत होता है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हथियारों की सप्लाइ को प्रायः मोहरा बनाकर लाभ उठाया जाता है. भारत निकट भविष्य में अमेरिका, रूस, चीन और फ्रांस की तरह हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर बनने की सोच नहीं सकता. इसलिए हथियारों के मामले में एक हद तक परनिर्भरता को उसे अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपने राजनीतिक गणित का हिस्सा बनाना ही पड़ेगा.
एक रणनीतिक रुख अपनाने वाली सरकार को हथियारों के मामले में परनिर्भरता घटाने का प्रयास करना ही पड़ेगा. इसके लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की जरूरत होगी, जो अभी तक अमल में नहीं लाई गई है, हालांकि इसे बने हुए और इसकी घोषणा किए हुए तीन साल बीत चुके हैं. इसलिए, आश्चर्य नहीं कि भारत के पास सैन्य साधन के विकास और उन्हें हासिल करने की कोई समग्र एवं दीर्घकालिक योजना नहीं है.
यह तथ्य तब जोरदार रूप से उजागर होगा जब गणतंत्र दिवस परेड में विदेशी मूल के विमान और हेलिकॉप्टर बड़ी शान से आसमान छूने को उड़ेंगे. वे दर्शकों के दिलों को मोहेंगे तो जरूर, भले ही वे भारत की रणनीतिक मुश्किलों को छिपा लेंगे.
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(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरु डायरेक्टर स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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