मीडिया से दूरी बनाकर रखने वाली मायावती इस समय 2022 के विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुटी हैं तथा लखनऊ में लगातार बैठकें कर रही हैं. हालांकि, अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी की अपेक्षा सत्ता पक्ष पर कम आक्रामक नजर आ रही हैं. इसलिए मीडिया की नजरों से देखेंगे तो उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव अभी भी सपा बनाम भाजपा आएगा तथा बहुजन समाज पार्टी की चुनावी रफ़्तार काफ़ी धीमी नजर आएगी.
मतदान की तारीखों की घोषणा होते ही एक बार फिर से बसपा के कार्यकर्ताओं में भी राजनीतिक हलचलें तेज हो चुकी हैं. बसपा के सक्रिय कार्यकर्ता और उम्मीदवार जनता के बीच वादों का पिटारा लेकर जाना शुरू कर चुके हैं. हालांकि, उन्हें बताने के लिए सामाजिक परिवर्तन स्थल, शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय, बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट, शून्य फीस पर विद्यालयों में प्रवेश, जैसे बसपा द्वारा किये गए अनेक महत्वपूर्ण कार्य भी हैं.
उत्तर प्रदेश (यूपी) में चार बार मुख्यमंत्री के पद पर एक कुशल प्रशासक के रूप में तथा साथ ही सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भी उनकी एक अलग पहचान है. आज दलित-शोषित समाज की नजर बसपा की सियासी रणनीतियों व कार्यप्रणालियों पर लगी है और प्रदेश की सबसे ऊंची कुर्सी पर उन्हें बैठे देखना चाहता है.
जहां एक तरफ़, योगी के काशी कोरिडोर जैसे धार्मिक कार्यकर्मों पर मायावती चुप्पी साधती नजर आती हैं. वहीं दूसरी तरफ़, गंगा एक्सप्रेस वे के पुनः शिलान्यास पर मायावती ने सरकार पर जमकर निशाना साधा. महंगाई, पलायन, बेरोजगारी जैसे मुद्दों के आलावा कोरोना काल में हुई प्रशासनिक विफलता के साथ किसानों और दलितों पर हुए अत्याचार पर मायावती सरकार को घेरती नजर आती हैं.
इस चुनाव में प्रभावी तरीके से जोर अजमाइश के लिए तथा ब्राह्मण मतदाताओं को साधने के लिए मायावती ने अभी तक यूपी के सभी जिलों में ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ कर चुकी हैं. बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं से जुड़ने के लिए घोषित किये गए प्रत्याशियों को ही उस क्षेत्र का प्रभारी भी बनाया गया है.
चुनावी सर्वे और जमीनी हकीकत
हाल ही में हुए कुछ चुनावी सर्वे में बसपा को चुनावी मैदान में तीसरे स्थान पर दिखाया जा रहा है, जिसे इस पार्टी के कार्यकर्त्ता एक सिरे से नकारते हैं. इन कार्यकर्ताओं का मानना है कि बसपा के वोटर चाय की दुकानों पर बैठकर राजनीतिक चर्चा नहीं करते, क्योंकि अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए खेतों में काम करने से उन्हें फुर्सत नहीं मिलती है. सर्वे करने वाले चैनल कभी खेतों में जाकर सर्वे नहीं करते हैं, जहां बसपा का परंपरागत वोटर हैं.
हालांकि, उनके दावों की यदि हम परखना चाहें तो हमें विगत वर्षो के आंकड़ों पर नजर दौड़ाना पड़ेगा. इस संदर्भ में यह बताना होगा कि वर्ष 1991 (8.7%), 1996 (20.6%), 1998 (20.9%), 1999 (22.1%), 2004 (24.7%), 2009 (27.42%), 2014 (19.6%) से लेकर 2019 (19.36%) के लोकसभा चुनावों में बसपा के वोट शेयर में बहुत उतार-चढ़ाव नहीं आया.
वहीं वोट शेयर की औसत दर यूपी विधानसभा चुनाव में 20-30 प्रतिशत के बीच घूमती दिखाई देती है. बसपा का वोट शेयर वर्ष 1996 (20%), 2002 (23%), 2007 (30%), 2012 (26%) से लेकर 2017 (22%) तक कमोवेश एक जैसा ही रहा है. अन्य दलों की विपरीत इस पार्टी का वोट बैंक लगभग स्थायी है. जिसे नीचे दिए गए चार्ट के माध्यम से समझ सकते हैं:
विधान सभा चुनाव (वर्ष 2002 से 2017 तक) में विभिन्न दलों की भागीदारी
बसपा का वोट शेयर औसतन 25.41 है तथा 2007 में बसपा ने लगभग इससे पांच प्रतिशत अधिक वोट (30.43%) पाकर सत्ता की चाभी हासिल की थी. इस संदर्भ में बूथ स्तर पर कई कार्यकर्ताओं से बात करने के पर पता चला कि ‘बसपा का वोट बैंक मुख्य रूप से दलित समाज के मतदाता हैं, जो कि बहुत मुखर नही हैं.’ शायद यही कारण है कि चुनावी सर्वे बसपा के कार्यों को बहुत कम आंक रहे हैं और बसपा के बारे में भविष्यवाणी करते समय गलत हो जाते हैं.
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इतिहास के आईने में बसपा
हमें बसपा के स्थायी वोट शेयर पर बहुत आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इसकी जड़े कांशीराम की अनवरत साईकिल यात्रा और उनके अथक परिश्रम से जुड़ी है. एक समय ऐसा था, जब कांशीराम के सामाजिक आंदोलन को देखकर कार्यकर्ताओं के अंदर एक नए जोश और आत्मविश्वास का संचार हो जाता था. क्योंकि जनमानस अपने जमीर तथा आत्मसम्मान को पुनः पाने के लिए उनसे जुड़ते गए और कारवां बनता गया. उनकी मेहनत और लगन का ही प्रतिफल था, जिसके कारण सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन सत्ता की चौखट तक पहुंच सका. कांशीराम की दूरंदेशी सोच के कारण दलित समाज में एक सामाजिक-राजनीतिक चेतना उभरकर सामने आई है. उन्होंने सामाजिक क्रांति का एक ऐसा बीज बोया, जो आज बृहत् वट वृक्ष बन चुका है.
कांशीराम द्वारा 14 अप्रैल 1984 को बसपा का गठन एक सुनियोजित राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया गया था और उस उद्देश्य को मायावती आगे बढ़ाती हुए दिख रही हैं. बसपा की स्थापना से पूर्व कांशीराम ने वर्ष 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) की स्थापना की तथा असंगठित बहुजन समाज को एकता के सूत्र में पिरोना शुरू किया था.
काशीराम हमेशा पिछलग्गू दलित नेताओं पर भी प्रश्नवाचक चिह्न लगाते रहे, क्योंकि वे दलित-शोषित वर्ग के सहयोग से सत्ता की चौखट पर पहुंचने के बाद अपने कर्तव्य ‘पे बैक टू सोसाइटी’ को भी भूल जाते हैं. ऐसे नेताओं को कांशीराम ‘चमचा’ कहते थे. बसपा के सक्रिय सदस्य और शिक्षक रामनारायण कहते हैं कि ‘सबसे पहले अम्बेडकर का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जो तत्कालीन परिस्थितियों से समझौता किए बिना जिस बहुजन वैचारिकी का सूत्रपात किया, उसे आगे बढ़ाने में मान्यवर कांशीराम ताउम्र सार्थक प्रयास करते रहे.’
किसी भी सामाजिक क्रांति का असर कई पीढ़ियों तक रहता है और उन क्रांतियों के सूत्रपात करने वाले अग्रणी नेताओं को जनता अपने दिलों में वर्षों तक सजोंकर रखते है. मान्यवर कांशीराम भी ऐसे ही नेतृत्वकर्ता थे, जिनकी छाप आज भी दलित समाज के मष्तिष्क-पटल पर विराजमान है. उनके व्यक्तित्व एवं चमत्कारी नेतृत्व के गहरे असर के कारण आज तक कोई भी राजनीतिक दल बसपा के वोट शेयर को डिगा नही सका.
दलित-पिछड़ी जातियों में चेतना
यदि हम सामाजिक न्याय के मामले में यूपी की तुलना बिहार से करें तो हमें ज्ञात होता है कि लालू प्रसाद यादव 1990 के दशक में सत्ता और मनुवाद के सामने बिना घुटना टेके बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई को दो कदम आगे ले गए. जिसके कारण लालू प्रसाद यादव का नाम आज समाज के हर निचले तबके के लोगों में बड़ी शिद्दत के साथ लिया जाता है. वहीं दूसरी तरफ़, यूपी में कांशीराम और मायावती ने दलित-पिछड़े वर्ग में राजनीतिक चेतना की अलख को जगाया और पिछले तीन दशकों से मनुवादी सोच को घुटने के बल पर ला दिया.
कांशीराम के साथ समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने भी कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए हमेशा मुखर रहे तथा सामाजिक न्याय की धार को मजबूत करने में महती भूमिका निभाई. ‘इटावा के लोकसभा उपचुनाव (1991) में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव एक दूसरे के बेहद करीबी बन गए. इटावा की इस दोस्ती का असर 1992 के अक्टूबर महीने में दिखा जब ‘मुलायम सिंह ने कांशीराम के कहने पर समाजवादी पार्टी का गठन किया’ एक वर्ष बाद एसपी-बीएसपी गठबंधन के सूत्रधार बने’.
वर्तमान चुनावी परिदृश्य और चुनौतियां
206 सीटें जीतकर वर्ष 2007 में सत्ता की चाभी बसपा के हाथ लगी थी. हालांकि उसके पश्चात्, इस पार्टी के कार्यकर्ताओं का उत्साह घटता गया. आज बसपा के दर्जनभर विधायक और कार्यकर्त्ता समाजवादी पार्टी के बैनर तले जा चुके है. बसपा को वर्ष 2012 में 80 सीटें मिली लेकिन पांच वर्ष बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी सिर्फ 18 सीटों पर सिमट कर रह गई. क्योंकि स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे अनेक कद्दावर नेता का इस पार्टी से मोह भंग हो गया और उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया था.
कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि मायावती बीजेपी के प्रति नरम रवैया रखती हैं. जिसके कारण अब मुस्लिम वोटर भी इस पार्टी से दूरी बना लिए हैं. हालांकि, बसपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक मुसलमान उम्मीदवार मैदान में उतारे और उसके बाद समाजवादी पार्टी ने. वहीं भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था.
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आक्रामक राजनीति से दो कदम पीछे
मायावती के ऊपर आरोप लगता है कि वह हाथरस, लखीमपुर खीरी, आदि घटनाओं पर मायावती सिर्फ ट्वीट करती नजर आईं लेकिन वो कभी भी पीड़ित परिवारों से मिलने नहीं गईं. इन घटनाओं के दौरान कांग्रेस काफ़ी सक्रिय नजर आईं तथा एक कदम आगे बढ़कर उन्नाव की बलात्कार पीड़िता की मां को इस बार उम्मीदवार भी बनाया है.
एनसीआरबी (2018) की रिपोर्ट पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि सबसे ज्यादा अत्याचार यूपी के दलित परिवारों पर हुआ, जिसमे बलात्कार (526), बलात्कार का प्रयास (48), अपहरण (381) तथा हमला (711) जैसे घिनौने अपराध शामिल हैं. लेकिन दलित समाज की हितैसी कही जाने वाली पार्टी बसपा ने कभी प्रदेश में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नही कर पाई तथा यूपी की राजनीतिक पथरीली जमीन को अपने अनुकूल नहीं बना सकी.
मायावती के प्रति मोह भंग नहीं हुआ
एक दशक से सत्ता के बाहर रहने के पश्चात् इस बार मायावती काफ़ी आशान्वित दिख रही हैं, क्योंकि उनके कार्यकाल में किए गए कई कार्य आज भी दलित समाज का मायावती के प्रति माया-मोह भंग नही हुआ है. उदाहरण स्वरूप, जहां एक तरफ़ उनके कार्यकाल में सावित्रीबाई फुले बाल शिक्षा मदद योजना के माध्यम छात्राओं को आर्थिक मदद प्रदान की गई. गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे 31 लाख ऐसे परिवारों के लिए ‘महामाया गरीब आर्थिक मदद योजना’ की शुरुआत की, जो अन्य योजनाओं से वंचित रह रह गए थे. इसके साथ मायावती ने 30% रिजर्वेशन SC/ST/OBC के लिए प्राइवेट सेक्टर में देना शुरू किया था. वहीं दूसरी तरफ़, अम्बेडकर ग्रामीण समग्र विकास योजना भी एक मील का पत्थर साबित हुई थी. इस योजना के माध्यम से दलित बस्तियों में सड़कें, शौचालय, बिजली आदि की व्यवस्था की गई.
आज अखिलेश यादव पिछड़ा कार्ड का नैरेटिव स्थापित करने में कोई कसर नही छोड़ रहे हैं, जिसकी कीमत बसपा को चुकानी पड़ेगी. क्योंकि, मल्लाह, राजभर, नाई, कुम्हार, गड़ेरिया, मौर्या, बिन्द, जैसी अनेक पिछड़ी जातियां हमेशा बसपा को वोट करती थी और शायद इस बार सपा की तरफ़ रूख कर सकती हैं.
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में गैर-जाटव दलित और गैर-यादव जातियों के अधिकांश मतदाताओं ने भाजपा का दामन लिया था, लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. इसलिए दर्जनों दलित-पिछड़ी जातियों के विधायक और कार्यकर्त्ता अब भाजपा से निकलकर समाजवादी पार्टी से हाथ मिला चुके हैं. तटस्थ मतदाता भी अक्सर बहती गंगा में हाथ धोना पसंद करते है. इसलिए सपा का पलड़ा अभी भारी दिख रहा है.
उत्तर प्रदेश में दलित जातियों की आबादी लगभग 20.7 प्रतिशत है और बसपा का वोट शेयर भी लगभग इसी के आसपास रहता है. प्रायः यह देखा जाता है कि जहां मुस्लिम समाज की आबादी अधिक होती है, वहां का दलित वोटर प्रायः भाजपा को वोट देता है. लेकिन जहां राजपूत या ब्राह्मण की आबादी अधिक होती है, वहां का दलित मतदाता प्रायः मायावती के नाम पर वोट डालता है.
(लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं. इनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं तथा इन्हें भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद द्वारा प्रतिष्ठित ‘एम एन श्रीनिवास पुरस्कार-2021’ से भी नवाजा गया है.)
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