नई दिल्ली का श्रीमती सुचेता कृपलानी अस्पताल, जहां गौतम बुद्ध नगर में डाक कर्मचारी के तौर पर काम करने वाले प्रभुदास की पत्नी रामरती ने एक बेटी को जन्म दिया. लेकिन कौन जानता था कि गरीब और दलित परिवार में जन्मी ये लड़की भारतीय समाज के सबसे कमजोर वर्ग- दलितों – की सबसे ताकतवर महिला बनेगी और भारत के सबसे बड़े सूबों में शुमार उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री होंगी. जिसे राजनीति विश्लेषक लोकतंत्र के चमत्कार के रूप में याद करेंगे.
जी हां, हम बात कर रहे अपने समर्थको में बहन जी के नाम से मशहूर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती की, जो 15 जनवरी को 66 साल की हो गईं हैं.
मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को एक दलित परिवार में हुआ था. उनके 6 भाई और 2 बहनें हैं. परिवार के पुत्रों को निजी स्कूलों में भेजा गया था, जबकि बेटियां को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया गया. पुरुष प्रधान समाज में हमेशा बेटों को ज्यादा तरजीह दी जाती है और इसका सामना मायावती को बचपन से करना पड़ा.
भारतीय समाज में जब आज भी बहुत कम महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं तो ऐसे समय में एक दलित महिला किसी पार्टी की प्रमुख व पहली दलित महिला मुख्यमंत्री होने का श्रेय प्राप्त करेगी, ऐसा शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा.
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कैसे राजनीति में आईं मायावती
मायावती का राजनीति में आना भी एक बड़ी दिलचस्प घटना है. वो बचपन से जिद्दी और आक्रामक रही थीं. जाति का दंश उन्हें बार-बार कचोटता था. इसलिए बहुत कम उम्र में अपने बगावती तेवरों के साथ 1977 में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में वो राजनीति के धुरंधर नेता राजनारायण से भिड़ गईं. ये वही राजनारायण थे, जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रायबरेली से चुनाव हराया था. यह घटना हर जगह चर्चा का विषय बनी.
इसी घटना ने मान्यवर कांशीराम और मायावती की मुलाकात की पटकथा लिखी. जैसे ही कांशीराम को इसके बारे में पता चला, बिना किसी पूर्व सूचना के वो मायावती के घर पहुंच गए. ये वो वक्त था, जब मायावती सिविल सर्विसेज परीक्षा की तैयारी कर रही थीं. मायावती के परिवार ने जब अचानक कांशीराम को अपने घर देखा, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.
कांशीराम की पारखी नज़र ने मायावती की नेतृत्व क्षमता और उनमें छिपे भविष्य के नेता को पहचान लिया था. उन्होंने मायावती से प्रभावित होकर कहा, ‘तुम्हारे इरादे, हौसले और कुछ खासियत मेरी नज़र में आई हैं. मैं एक दिन तुम्हें इतनी बड़ी लीडर बना दूंगा कि एक कलेक्टर नहीं बल्कि तमाम कलेक्टर तुम्हारे सामने फाइल लिए खड़े होंगे. तभी तुम लोगों के लिए ठीक से काम कर पाओगी.’
कांशीराम के इन शब्दों ने मायावती पर गहरा प्रभाव डाला. यहीं से उनका राजनीतिक सफर शुरू हो गया. लेकिन ये सफर इतना आसान नहीं था, हर कदम पर उन्हे पुरुषवादी समाज के जहरीली दंश झेलने पड़े. सामाजिक दबाव के चलते मायावती के पिता ने उन्हें घर या राजनीति में से किसी एक को चुनने को कहा और उन्होंने राजनीति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया.
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बहुजन समाज को जागरूक करने का मिशन
मायावती अपना घर छोड़कर दिल्ली के करोल बाग के बामसेफ के दफ्तर में आकर रहने लगीं और वहीं से मिशन का काम शुरू कर दिया. संकल्प के साथ मायावती ने कांशीराम से कहा, ‘अब मैं अपना जीवन मिशन में लगाना चाहती हूं. न मुझे शादी करनी है, न परिवार से बंधकर रहना है.’
इस संकल्प से प्रभावित होकर कांशीराम ने उनको आगे बढ़ाना और प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. लेकिन ये बात भी बहुत लोगों को रास नहीं आई. पुरुषवादी मानसिकता के बीमार लोगों को एक महिला का आगे बढ़ना कहां रास आने वाला था, जब बराबरी ना कर पाओ तो किसी भी महिला के चरित्र पर उंगली उठाकर उसे रोकने की कोशिश करना भारतीय समाज की पुरानी विकृत मानसिकता रही है. ये सब मायावती को भी झेलना पड़ा जब उनके कार्यालय में रहने पर प्रश्न उठने लगे. लेकिन मायावती ने ‘मनुवादी समाज’ की मानसिकता की परवाह ना करते हुए दिन रात बहुजन समाज को जागरूक करने का मिशन जारी रखा. उनका यही समर्पण भाव उन्हें दलितों की नज़र में विशेष बनाता था.
कुछ वर्षों तक मायावती दिल्ली के एक स्कूल में शिक्षण कार्य भी करती रहीं लेकिन धीरे-धीरे वो पूरी तरह बामसेफ के कार्य में लग गई. जल्द ही मायावती अपने आक्रामक तेवरों के चलते मशहूर होने लगीं. गांधी, ब्राह्मणवादी और कांग्रेसी उनके विशेष निशाने पर रहते थे.
गांधी के जातिवादी विचारों को वो लगातार लोगों के सामने रखकर लोगों को ‘हरिजन’ शब्द से मुक्त होने को बोलती. वो कहतीं, ‘यदि हम हरिजन की औलाद हैं तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे.’ अपने इन्ही तेवरों की वजह से वो बहुत जल्दी कांशीराम की कोर टीम का हिस्सा बनकर काम करने लगीं.
1984 में जब बसपा की स्थापना की गई तो उन्हें उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई. मायावती गांव-गांव घूमकर लोगों को बसपा ज्वाइन करवाने लगीं, कार्यालय में भी उनसे मिलने आने वालों का तांता लगा रहता था. धीरे-धीरे उनका कद बढ़ने लगा तो कार्यक्रमों में उनके लिए कुर्सी लगने लगी. उनका कुर्सी पर बैठना ही पुरुषवादी व्यवस्था पर एक ‘अघोषित हमला’ था.
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चुनावी सफर
मायावती की प्रसिद्धि को देखते हुए 1984 में उन्हें मुजफ्फरनगर जिले की कैराना लोकसभा सीट से चुनाव लड़वाया गया. 1985 में उन्होंने बिजनौर से उपचुनाव लड़ा और 1987 में हरिद्वार का उपचुनाव लड़ा. इनमें से किसी भी चुनाव में उन्हें जीत नहीं मिली.
1989 में बिजनौर से उन्होंने पहला चुनाव जीता और इस तरह तमाम कठिनाइयों को धता बताते हुए मायावती ने संसद में कदम रखा. वर्ष 1995 में वे राज्य सभा की सदस्य भी रहीं और उसी साल मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं.
इसके बाद 1997 में वो फिर से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. वर्ष 2001 में कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. इसके बाद उन्होंने 2007 में अपनी रणनीति बदलते हुए ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाए ‘ का नारा देकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई.
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मायावती का अंदाज-ए-राजनीति कुछ और
जहां कांशीराम को लोगों से घुलना मिलना पसंद था वहीं मायावती को शांत रहकर अपनी रणनीति के हिसाब से काम करना पसंद है, ये गुण उनको और ज्यादा ताकतवर बनाता है. मायावती कभी भी मीडिया फ्रेंडली नहीं रही इसलिए वो राजनीतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती हैं. उनका ये अंदाज़ आज भी बरकरार है. राजनीतिक अटकलबाजियों में ना तो वो खुद शामिल होती हैं ना ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को शामिल होने देती हैं. वो हमेशा जमीनी कार्य को प्राथमिकता देती हैं.
मायावती ने हमेशा एक कुशल और सख्त प्रशासक के रूप में सत्ता चलाई. वो कानून के राज को सख्ताई से लागू करवाती थी. उनके राज का एक किस्सा राजनीतिक गलियारों में बहुत चर्चा का विषय बना जब उत्तर प्रदेश के एक बड़े किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने एक जनसभा में, जिसमें अजीत सिह भी मौजूद थे- मायावती को जातिसूचक गालियां दी. मायावती ने तुरंत टिकैत की गिरफ्तारी का आदेश दिया. टिकैत तुरंत अपने गांव सिसौली (मुजफ्फरनगर) भाग गए. गांव की घेराबंदी कर पानी बिजली काट दी गई. अंत में टिकैत को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा और माफी मांगनी पड़ी.
मायावती लगातार सामने आई चुनौतियों का मुकाबला करके मजबूत बनकर निकली. यहां तक कि गेस्ट हाउस कांड के रूप में उनकी हत्या तक की साजिश रची गई लेकिन वो कभी घबराई नहीं और हमेशा दलितों के हितों के लिए आगे बढ़कर लड़ी.
मायावती ने अपनी सत्ता के समय यूपी के ‘बड़े-बड़े गुंडों’ को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया वहीं कई अंडरग्राउंड हो गए. सख्त प्रशासन के लिए विपक्षी भी उनका लोहा मानते हैं. चाहे किसी जाति या धर्म का व्यक्ति हो, प्रदेश की आम जनता ने बसपा शासन में हमेशा सुरक्षित महसूस किया. खासकर दलित, शोषितों, महिलाओं ने एक महिला मुख्यमंत्री के शासन को काफी पसंद किया.
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बेजुबानों को आवाज दी
मायावती ने बेजुबानों को आवाज दी, उनके लिए दलित समाज का हित हमेशा सर्वोपरि रहा. इसलिए रोहित वेमुला का मामला हो या सहारनपुर हिंसा का, उन्होंने समाज हित को आगे रखते हुए राज्य सभा तक से इस्तीफा दे दिया. बाबा साहेब आंबेडकर के सपने ‘शासक बनो ‘ को उन्होंने पूरा किया और दलितों को स्वाभिमान से चलना सिखाया. उन्हें कई बार भारत के सबसे प्रभावशाली हस्तियों में नामांकित किया गया.
पुरुष प्रधान समाज में मायावती की मजबूत और निर्भीक छवि उन्हें आज तमाम महिलाओं का आदर्श बनाती है. उनके किए गए कामों की वजह से आज भी दलित समाज के लोग मायावती के राज के सुनहरे दिनों को याद करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते है.
दलित समाज ने हमेशा मायावती को अपनी आवाज़ और अपने लिए संघर्षशील नायिका के रूप में देखा. ये मुकाम उन्हें उनके कड़े संघर्षों की वजह से ही मिल पाया है.
(लेखक बहुजन आंदोलन के जानकार हैं और ऑल इंडिया बहुजन कॉर्डिनेशन कमेटी के संयोजक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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