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Monday, 25 November, 2024
होमदेशद साइलेंट कू: भारत में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर होने की कहानी

द साइलेंट कू: भारत में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर होने की कहानी

'द साइलेंट कू- हिस्ट्री ऑफ इंडियाज़ डीप स्टेट' में सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठानों का बीते कुछ दशकों में कैसा काम रहा और उसका आम जिंदगियों, राजनीति, समाज पर किस तरह का असर पड़ा है, लेखक-पत्रकार जोसी जोसेफ ने उसे दर्ज किया है.

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आज़ादी, समानता और बंधुत्व तीन ऐसे शब्द हैं जो भारतीय संविधान में न केवल दर्ज हैं बल्कि उसके सार तत्व हैं जिसके बिना स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना अधूरी है.

बीआर आंबेडकर ने भी आज़ादी, समानता और बंधुत्व को जीवन का सिद्धांत बताया है और तीनों को एक साथ रखकर देखने की बात कही है. लोकतंत्र में काम कर रही सभी संस्थाएं चाहे वो सुरक्षा प्रतिष्ठान हो या गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठान, दोनों का ही मूलभूत दायित्व है कि वो लोगों के बीच आज़ादी, समानता और बंधुत्व के विचार को मजबूत करे न कि उनको कमजोर.

सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठान, भारत की आज़ादी के बाद देश के लिए काफी अहम रहे हैं, जिसने न केवल लोगों की जिंदगी को प्रभावित किया बल्कि समूचे लोकतांत्रिक ढांचे पर भी असर डाला. ये असर, कई मायनों में सकारात्मक भी रहे हैं लेकिन इनके नकारात्मक असर पर बात करना और आम लोगों के बीच तक इसे पहुंचाना काफी संजीदगी भरा काम है और इस दिशा में काम करना बहुत जोखिम भरा रहा है.

लेखक और खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ ने अपने 20 साल के पत्रकारिता के सफर में ऐसे ही कई जोखिमों का सामना किया है और सरकारी एजेंसियों, पुलिस और राजनीति की मिलीभगत से कमजोर होते लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लगातार रिपोर्टिंग की है. अपनी हालिया किताब ‘द साइलेंट कू- हिस्ट्री ऑफ इंडियाज़ डीप स्टेट ‘ में सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठानों का बीते कुछ दशकों में कैसा काम रहा और उसका आम जिंदगियों, राजनीति, समाज पर किस तरह का असर पड़ा है, लेखक ने उसे दर्ज करने का काम किया है.

लेखक ने अपनी किताब में बीते दशकों में भारत में हुई कई अहम घटनाओं को विस्तार से दर्ज किया है और उसमें भारतीय जांच एजेंसियों ने किस तरह प्रतिक्रिया दी, उसकी भी छानबीन की है.

किताब में 2008 में हुए मुंबई ब्लास्ट, मालेगांव बम ब्लास्ट, कश्मीर में बढ़ रही मिलिटेंसी, श्रीलंकाई सिविल वॉर, पूर्वोत्तर भारत की दशा, नरेंद्र मोदी के समय का गुजरात, पंजाब मिलिटेंसी- के दौरान सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठानों का क्या रवैया रहा, उसे काफी उदाहरणों के साथ बताया गया है.

संवैधानिक संस्थाओं द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघन और भारत के लोकतंत्र पर आसन्न खतरों को लेकर बेबाकी से बात करती जोसी जोसेफ की किताब ‘द साइलेंट कू ‘ के बारे में दिप्रिंट आपको बता रहा है.

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लगातार कमजोर होता लोकतंत्र

बीते कई सालों से खासकर 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, कई अंतर्राष्ट्रीय सूचकांकों के अनुसार भारत में लोकतंत्र की स्थिति खराब होती चली जा रही है. हाल ही में फ्रीडम प्रेस ने अपनी रिपोर्ट में भारत को आंशिक रूप से स्वतंत्र बताया था. इसके इतर सिविल सोसाइटी और विपक्ष की तरफ से भी लगातार कहा जाता रहा है कि भारत की तमाम संस्थाएं निष्पक्ष होकर काम नहीं कर रहे हैं बल्कि मोदी सत्ता के इशारे पर कार्रवाई कर रहे हैं.

लेखक भी अपनी किताब में इसी मूल बात को दर्ज करते हैं कि भारत के सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठान स्वतंत्र होकर काम नहीं करते बल्कि वो अपने ‘बॉस’ को खुश करने में लगे रहते हैं. इसके लिए वो गुजरात का उदाहरण लेते हैं, जिसमें लेखक कहते हैं कि 2002 में गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद वहां की तमाम संस्थाओं ने जो कार्रवाई की, उनमें काफी खामियां थीं और उसके तार बड़े नेताओं से जुड़े हुए थे.

लेखक कहते हैं कि संवैधानिक संस्थाएं अगर राजनीति के प्रभाव में आकर काम करने लगे, तो इससे लोकतंत्र कमजोर होता है.

वो कहते हैं कि भारत इस बात पर गर्व महसूस करता है कि वो संसदीय लोकतंत्र है जिसे कभी मिलिट्री कू (सैन्य तख्तापलट) का सामना नहीं करना पड़ा है. जबकि उसके ही पड़ोसी देशों में ऐसा कई बार हो चुका है. लेकिन संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने को भी इसी दिशा में किए जा रहे प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है, इसके लिए किसी मिलिट्री कू की जरूरत नहीं है.


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भारत की ‘आतंक के खिलाफ जंग’ (वॉर ऑन टेरर)

आज़ादी के बाद से ही सुरक्षा के स्तर पर भारत कई खतरों से जूझता रहा है. चाहे पाकिस्तान से कई बार हो चुके युद्ध हो या आतंकवाद हो, पंजाब में बढ़ती मिलिटेंसी हो, पूर्वोत्तर भारत की समस्या हो, कश्मीर का मुद्दा हो या आंतरिक संकट. इन सभी समस्याओं को हल करने का काम सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठानों का ही होता है लेकिन लेखक जोसी जोसेफ अपनी किताब में कई सबूतों के साथ कहते हैं कि इन संवैधानिक संस्थाओं ने अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल कर न केवल मानवाधिकार का उल्लंघन किया है बल्कि गलत तरीके से लोगों को फंसाया भी है.

लेखक ने वाहिद नाम के एक ऐसे ही मुस्लिम अध्यापक की कहानी किताब में लिखी है, जिसे सुरक्षा प्रतिष्ठानों द्वारा कथित तौर पर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए कई सालों तक परेशान किया गया, जिस कारण उसे अपनी जिंदगी के कई महत्वपूर्ण साल जेल में गुजारने पड़े. कई सालों की न्यायिक तफ्तीश के बाद आखिरकार ये साबित हुआ कि वाहिद का आतंकी घटनाओं से कोई वास्ता नहीं था.

लेखक इस बात की ओर चिंता जाहिर करते हैं कि संवैधानिक संस्थाएं राजनीतिक सत्ता की शह पर काम करते रहे तो इससे देश का लोकतांत्रिक चरित्र कमजोर होता जाएगा और सामान्य व्यक्तियों का लोकतंत्र से मोहभंग होगा.

लेखक के अनुसार भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान कई दफे बिना किसी विश्वसनीय सूचना के भी कार्रवाई करते हैं जिसकी वजह से कई निर्दोष व्यक्ति व्यवस्था के चंगुल में फंस जाते हैं. यहां तक कि लेखक सुरक्षा प्रतिष्ठान पर ‘नैरेटिव सेट’ करने की भी बात कहते हैं, इसके लिए उन्होंने पर्याप्त उदाहरण का सहारा लिया है.

वो कहते हैं, ‘कश्मीर का समकालीन इतिहास, वहां के इंटेरोगेशन सेंटर्स के जरिए बयान किया जा सकता है. घाटी में दुख और सुख एक दूसरे के पूरक हैं. ‘

‘मिलिटेंसी एक बड़ी ही उलझाऊ चीज़ है- एक ऐसा गहरा दलदल जहां लिया हर सही फैसला आतंकी नेटवर्क को खत्म कर सकता है और हर गलत कदम मानवाधिकार उल्लंघन कर सकता है.’


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‘गैर-पेशेवर’ संस्थाएं लोकतंत्र के लिए खतरा

कश्मीर में मिलिटेंसी की शुरुआत कैसे हुई और कैसे संवैधानिक संस्थाओं के गलत फैसलों ने इसमें इजाफा किया, जोसी जोसेफ की किताब इस पर व्यापकता से बात करती है.

लेखक कहते हैं, ‘लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि सुरक्षा प्रतिष्ठान बिना किसी पूर्वाग्रह और जमीनी स्तर की गहन जानकारी के साथ काम करें. गैर-पेशेवर और गुप्त सुरक्षा प्रतिष्ठान, हमारे जैसे (भारत) लोकतंत्र के लिए खतरा हो सकते हैं. बेहद ही कठिन परिस्थितियों में लोकतंत्र और उसके संस्थानों की परीक्षा होती है, जैसे की कश्मीर इसका उदाहरण है. लेकिन हर बार दिल्ली इस परीक्षा में फेल रही है. जब भी लोकतांत्रिक राष्ट्र विफल होता है उसके अंधकार भरे तत्व मजबूत होते जाते हैं.’

लेखक बताते हैं कि गुजरात में हुए तमाम एनकाउंटर सिर्फ और सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की छवि मजबूत करने के लिए किए गए थे और तमाम गलत दावों के सहारे इस्लामोफोबिया को बढ़ाया गया.

इसी तरह 1980 के बाद पंजाब में बढ़ती मिलिटेंसी के दौर में सुरक्षा प्रतिष्ठान ने हजारों लोगों को गायब कराया. लेखक बताते हैं कि पंजाब में मिलिटेंसी पर तो काबू पा लिया गया लेकिन उस दौरान 8000 से ज्यादा लोगों के गायब होने को लेकर अब तक किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया गया है. एक अनुमान है कि पंजाब के 14 जिलों के करीब 1,600 गावों में किसी न किसी एक व्यक्ति को पुलिस ने उस दौर में गायब कराया था.


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नागरिक बोध को मजबूत करती किताब

सुरक्षा और गैर-सुरक्षा प्रतिष्ठान कैसे काम करते हैं और भारत में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं में उनका काम किस तरह का रहा है, उसे व्यापकता से समझने के लिए जोसी जोसेफ की ‘द साइलेंट कू ‘ एक अच्छी किताब है. ये न केवल एक घुप अंधकारमय व्यवस्था की सच्चाइयों को बताती है बल्कि उसमें फंसकर कैसे लोगों ने अपनी जिंदगी के साल बर्बाद किए हैं, उसे भी निर्भीकता के साथ व्यक्त करती है.

जब कानून बनाने वाली संवैधानिक संस्थाएं ही नागरिक अधिकारों का हनन करने लगे, तो फिर लोकतंत्र को कमजोर होने से कोई नहीं बचा सकता. लगातार मांग उठती रही है कि तमाम जांच एजेंसियों को सरकार के दबाव से मुक्त होकर काम करने की जरूरत है लेकिन ऐसा होता नहीं है, इसके कई उदाहरण बीते सालों में देखने को मिल सकते हैं.

ऐसी स्थिति में व्यवस्था की स्याह पक्ष को जानने के लिए और लोकतंत्र में विश्वास करने वाले हर व्यक्ति को ‘द साइलेंट कू ‘ पढ़ने की जरूरत है. ये किताब नागरिकता का बोध कराती है और नागरिक दायित्व निभाने के लिए एक बेहतर नज़रिया विकसित करती है.

(‘द साइलेंट कू’ किताब को वेस्टलेंड पब्लिकेशन्स के उपक्रम कंटेक्स्ट ने छापा है, जिसे लेखक और खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ ने लिखा है)


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