जनरल बिपिन रावत की असामयिक मृत्यु के बाद चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) पद पर उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति में देरी भारतीय सेना की कार्यशैली से मेल नहीं खाती है. फौजी महकमे कमांड की कमी या कमांड की कड़ी में रिक्तता नापसंद करते हैं. उनके लिए यह बिलकुल बेकायदा बात होती है. सेना के ढांचे में कमांड की ऐसी कड़ी बनी होती है कि जब भी कोई सीनियर किसी कारण से अक्षम या निष्कासित हो जाता है तब उसकी जगह तुरंत कोई कमान थाम लेता है. जिस सुपरवाइजिंग अधिकारी के अधीन उससे नीचे के दर्जे के फौजी काम करते हैं. उस अधिकारी को जो ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है उसे पूरा करने के लिए वह जो भी फैसले और कार्रवाई करता है उनके लिए उसे ही जवाबदेह माना जाता है. आखिर, उसके अधिकार अंतिम माने जाते हैं, जो कि फौजी सोच के लिए सुकूनदायी होता है.
सीडीएस के पद की घोषणा के साथ नरेंद्र मोदी सरकार ने सेना के नये दौर में कदम रखा था. इस पद के सृजन की मांग वर्षों से की जा रही थी, कुछ लोग तो यह भी सोच रहे थे कि यह सेना की सभी समस्याओं के लिए रामबाण साबित होगा. जैसी कि उम्मीद थी, जनरल बिपिन रावत को सीडीएस बनाए जाने का काफी धूमधाम से स्वागत किया गया था. कई अपेक्षाएं थीं, और बहुत कुछ किया जाना बाकी है. यानी यह एक ऐसी संस्था है, जो अभी निर्माण की प्रक्रिया में है, भले ही जनरल रावत सैन्य मामलों के विभाग के सेक्रेटरी भी होने के कारण अक्सर अतिरिक्त एवं परस्पर विरोधी अधिकारों के कारण दबाव में थे.
फिर एक चुनौती
सरकारी संस्थाओं पर मोदी सरकार के हमलों से भारतीय सेना भी अछूती नहीं रही है, और यह 2021 में जितनी बड़ी चुनौती थी उतनी 2022 में भी रहने वाली है.
जनरल रावत ने अकेले दम पर संयुक्त ‘थिएटर कमांड’ गठित करने की सबसे बड़ी चुनौती उठा ली थी. एकीकरण, संयुक्तता, एक कमान जैसे वांछित सैन्य कदमों के बारे में काफी चर्चा की जा चुकी है. जिन पेशेवर सेनाओं ने एकीकरण का जरूरी स्तर हासिल कर लिया है उन्होंने ज्यादा कौशल का प्रदर्शन किया है. लेकिन तीनों सेनाओं के एकीकरण की प्रक्रिया सबसे कठिन है और इसमें अधिकतम अड़चनों का सामना करना पड़ता है.
तीनों सेनाओं में से हर एक सेना अपने दायरे में विशेष कौशल रखती है. भारत में हैसियत को लेकर जो आग्रह रहता है उसके कारण कुछ लोगों को लगता है कि एक अंग दूसरे से ज्यादा हैसियत रखता है. जनरल रावत को एकीकरण के अपने अथक प्रयासों में सबसे बड़ी इसी अड़चन का सामना करना पड़ रहा था. चूंकि सीडीएस नामक संस्था अभी निर्माण की प्रक्रिया में ही है, और उनके प्रयासों की ओर धीरे-धीरे ही ध्यान दिया जा रहा था, इसलिए उनके उत्तराधिकारी को वह काम फिर से शुरू करना पड़ेगा.
दूसरे सीडीएस की नियुक्ति में असामान्य देरी से कुछ आसान निष्कर्ष उभरते हैं. सबसे पहली बात तो यही कही जा सकती है कि तीनों सेनाओं का एकीकरण मोदी सरकार के लिए प्रमुख लक्ष्य नहीं है, अन्यथा वह सीडीएस के पद को इतने समय तक खाली नहीं रखती. इसलिए अगला और महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकलता है कि अगले सीडीएस का चयन सैन्य के अलावा दूसरे कारणों से प्रभावित हो रहा है. जाहिर है, संस्था की महत्ता को गौण कर दिया गया है.
यही बात 4 दिसंबर 2021 को नागालैंड के मोन जिले में सुरक्षा बलों द्वारा गलती से घेरकर मारे गए लोगों के दुखद मामले पर लागू होती है. जो घटना हुई और उसके बाद जो कुछ हुआ उसको लेकर काफी अटकलें लगाई जा रही हैं, और सरकारी जांच भी जारी है, लेकिन मोदी सरकार के दूसरे महकमे के कामों पर आपत्ति उठ रही है. कोई भी सरकार किसी ऑपरेशन से पहले, उस दौरान या उसके बाद यह नहीं बताती है कि उसका कौन-सा विशेष बल इसमें सफल या विफल रहा, जैसा कि इस मामले में किया गया. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 6 दिसंबर को संसद में बयान दिया, और उसकी प्रेस विज्ञप्ति में भी साफ कहा गया कि ‘मोन जिले के तीजित इलाके के तिरू गांव के आसपास में बागियों की गतिविधियों के बारे में भारतीय सेना को हासिल हुई जानकारियों के आधार पर सेना के 21 पारा-कमांडोज़ की टीम ने 4 दिसंबर 2021 की शाम घेराबंदी की.’
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राजनीति हावी
सेना की यह विशेष बल (यूनिट) जबकि उस इलाके में तैनात है और बगावत से लड़ने में समुदाय से ही लोगों को भर्ती कर रही है, तब इससे जाहिर है कि राजनीतिक लाभ को ऑपरेशन की गोपनीयता के ऊपर प्राथमिकता दी जा रही है. सोशल मीडिया के एक पोस्ट ने कहा : ‘इस घटना ने सेना की यूनिट को भी उतना ही नुकसान पहुंचाया है जितना उस समुदाय को, क्योंकि हम उन्हें अपने भाई के समान मानते हैं, उनमें इस इलाके के कई सैनिक शामिल हैं.’ कई अलंकरणों से सम्मानित यूनिट को जिस तरह उपेक्षित किया गया वह संस्थागत कामकाज के बारे में बहुत कुछ कहता है. मामला तब और भी गंभीर हो जाता है, जब 23 दिसंबर को गृह मंत्रालय की दूसरी बैठक के बाद उसी यूनिट को राजनीतिक लाभ की खातिर बलि का बकरा बना दिया जाता है.
प्रेस विज्ञप्ति प्रक्रियाओं और संस्थाओं की पूर्ण उपेक्षा का एक और सबूत ही पेश करती है. इस मामले में दूसरा मुद्दा एक फैसले के रूप में तब उभरता है जब इसमें यह घोषणा की जाती है कि ‘एक जांच अदालत सेना की उस यूनिट और सैनिकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करेगी…’ यह भी एक रहस्य ही है कि जो मामला पूरी तरह आर्मी एक्ट के दायरे का है, उसकी ज़िम्मेदारी गृह मंत्रालय को कैसे मिल गई. और तो और, गृह मंत्रालय जांच अदालत के निष्कर्ष की भी मनमाने ढंग से पूर्व-घोषणा कर डालता है- ‘अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करो.’
सरकारी संस्थाओं पर जारी हमलों से भारतीय सेना भी अछूती नहीं रही है. यह 2021 की तरह 2022 में भी सबसे बड़ी चुनौती रहेगी. सेना में कमांड की संदेह रहित जवाबदेही का पालन किया जाता है, और यह बेदाग साख दूसरों के मामले में भी लागू करने के लिए जांच अदालत को उस खुफिया रिपोर्ट पर भी नज़र डालना होगा, जो उस यूनिट को दी गई थी. जिन महकमों ने इसकी मंजूरी दी, इस त्रासदी में उनकी भूमिका के लिए उन्हें भी जवाबदेह बनाया जाए. सेना की संस्थाएं जवाबदेहियों का पूरी गंभीरता से पालन करती हैं, समय आ गया है कि दूसरे भी ऐसा करें. इससे मोदी सरकार को लाभ ही होगा.
(लेखक कांग्रेस नेता हैं और डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट के एडिटर-इन-चीफ हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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