नई दिल्ली: पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने पिछले हफ्ते अपने एक फैसले में व्यवस्था दी कि 17 वर्षीय मुस्लिम लड़की की 33 वर्षीय हिंदू युवक के साथ शादी कानूनन वैध है. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक, दुल्हन ने प्यूबर्टी की उम्र पार कर ली है और इसलिए वह अपने परिवार की आपत्तियों के बावजूद अपनी पसंद के युवक से शादी करने के लिए ‘स्वतंत्र’ है.
याचिकाकर्ताओं नरगिस और उनके पति (अनाम) ने हाई कोर्ट से सुरक्षा की गुहार लगाते हुए कहा था कि युवती के परिजनों के विरोध के कारण उनका जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में है.
कपल के वकील ने कोर्ट में दलील दी कि शादी की अनुमति मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत दी गई थी जिसमें साफ कहा गया है कि प्यूबर्टी की उम्र (जिसे 15 वर्ष माना जाता है) और वयस्कता की उम्र समान है. 1937 के कानून की धारा 2 में प्रावधान है कि सभी विवाह शरीयत के तहत आएंगे, भले ही इसमें कोई भी ‘रीति-रिवाज और परंपरा’ अपनाई गई हो.
जस्टिस हरनरेश सिंह गिल की एकल-जज की बेंच ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील से सहमति जताई की कि नरगिस मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत ‘विवाह योग्य उम्र’ में पहुंच चुकी है. जज ने आगे कहा कि कपल को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों—जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है—से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने परिवार की इच्छा के खिलाफ जाकर विवाह किया है.
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ हमेशा भारत के ‘सेक्युलर’ बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (पीसीएमए 2006) के अनुरूप नहीं होते हैं.
पीसीएमए 2006 दूल्हे या दुल्हन में किसी एक की भी उम्र विवाह योग्य न होने होने पर इसे एक ‘बाल विवाह’ के रूप में परिभाषित करता है. इसके तहत 18 साल से कम उम्र की लड़की और 21 साल से कम उम्र के लड़के को ‘बच्चे’ के तौर पर संदर्भित किया जाता है. यह कानून किसी भी एक पक्ष की तरफ से कोर्ट में चुनौती दिए जाने पर इस ‘बाल विवाह’ को रद्द करने योग्य बनाता है. हालांकि, इस बात को लेकर स्पष्टता का अभाव रहा है कि क्या पीसीएमए 2006 पर्सनल लॉ से ऊपर स्थान रखता है.
विभिन्न हाई कोर्ट ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधाभासी आदेश पारित किए हैं और अब तक इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का कोई आधिकारिक फैसला नहीं आया है.
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट फैसला ऐसे समय पर आया है जब सरकार कानूनी तौर पर महिलाओं की विवाह योग्य आयु को 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने की सोच रही है.
यह भी पढ़ें: मद्रास HC ने क्यों कहा ‘हंसने का मौलिक कर्त्तव्य, हास्यमय होने का अधिकार’ संविधान में होने चाहिए
बाल विवाह निषेध अधिनियम और पर्सनल लॉ के बीच टकराव
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 2010, 2014 और 2018 में कई मौकों पर यह माना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत किसी मुस्लिम महिला को अपने परिवार की सहमति के बिना शादी करने की अनुमति है. बशर्ते, वो प्यूबर्टी की निर्धारित उम्र तक पहुंच चुकी हो और इस तरह के विवाह को रद्द करने के लिए कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है.
हालांकि, 2013 में कर्नाटक हाई कोर्ट की एकल-जज की बेंच ने फैसला सुनाया था कि बाल विवाह अधिनियम मुस्लिम पर्सनल लॉ के ऊपर है.
कोर्ट ने उस मामले में फैसला सुनाया था जिसमें एक 17 वर्षीय याचिकाकर्ता ने कहा था कि स्थानीय अधिकारियों ने पीसीएमए के प्रावधानों का हवाला देते हुए उसकी शादी रोक दी थी. कोर्ट ने याचिकाकर्ता के यह दलील खारिज कर दी थी कि मुस्लिम विवाह के मामले में पीसीएमए लागू नहीं होता.
लेकिन जब पीसीएमए और पर्सनल लॉ के बीच टकराव की बात आती है तो सुप्रीम कोर्ट ने कोई स्पष्ट या सुसंगत व्यवस्था नहीं दी है.
2018 के हादिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाई कोर्ट के एक पूर्व आदेश को रद्द कर दिया जिसने एक वयस्क युवती की शादी रद्द कर दी थी जिसने इस्लाम धर्म अपनाया था और एक मुस्लिम पुरुष से शादी की थी. इस मामले में एक वैध मुस्लिम विवाह की शर्तें सूचीबद्ध करते हुए जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपनी राय दी थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत दोनों पक्ष प्यूबर्टी की उम्र पार कर चुके हैं उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 21 का भी हवाला दिया था.
2017 में वैवाहिक बलात्कार से जुड़े एक मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने राय दी थी कि पीसीएमए एक ‘सेक्युलर एक्ट’ है जिसे ‘हिंदू विवाह अधिनियम और मुस्लिम विवाह और तलाक कानूनों दोनों के प्रावधानों पर लागू होना चाहिए.’
अब, एक प्रस्तावित नए कानून के जरिए धार्मिक संबद्धता पर विचार किए बिना महिलाओं की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष करके इसे सारे विरोधाभास को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.
पीसीएमए बिल 2021
बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक, 2021 मुस्लिम लड़कियों की शादी के मामले में शरीयत (एप्लीकेशन) एक्ट को पीछे करते हुए 15 वर्ष से अधिक आयु को विवाह योग्य मानने का प्रावधान खत्म करने का प्रयास करता नजर आता है.
विवादास्पद विधेयक में पीसीएमए 2006 की धारा-1 में संशोधन के साथ स्पष्ट किया गया है कि ‘विवाह के संदर्भ में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 हो या मौजूदा समय में लागू कोई अन्य कानून या प्रथा… कुछ भी विपरीत या असंगत होने की स्थिति में…’ इस कानून के प्रावधान ही प्रभावी माने जाएंगे.
संशोधन विधेयक को आगे की चर्चा और समीक्षा के लिए एक स्थाई समिति के पास भेज दिया गया है.
आलोचकों का कहना है कि अगर यह कानून लागू होता है तो उन माता-पिता के लिए एक बड़ा साधन बन सकता है जो अपने बेटों या बेटियों का अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने के खिलाफ हैं और यह युवा जोड़ों के खिलाफ ‘आपराधिक मामलों की बड़ी वजह’ भी बन सकता है.
‘कोर्ट अपनी आंखें मूंद नहीं सकती…’
जस्टिस गिल ने पिछले हफ्ते सुनाए अपने फैसले में नरगिस की उम्र विवाह योग्य होने की याचिकाकर्ताओं की दलील के समर्थन में दिनशॉ फरदुनजी मुल्ला के कानूनी ग्रंथ, प्रिंसिपल ऑफ मोहम्डन लॉ के अनुच्छेद 195 का हवाला दिया.
इस किताब को मुस्लिम पर्सनल लॉ पर एक आधिकारिक ग्रंथ माना जाता है और इसके अनुच्छेद 195 में कहा गया है कि कोई मुस्लिम लड़की या लड़का 15 वर्ष का होने पर प्यूबर्टी की उम्र में पहुंच जाता है और इसके बाद उसे विवाह अनुबंध के योग्य माना जाता है.
जस्टिस गिल ने कहा, ‘(नरगिस) की उम्र मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत विवाह योग्य है.’ साथ ही जोड़े की कोर्ट सुरक्षा को लेकर याचिकाकर्ताओं की आशंकाओं पर ‘अपनी आंखें मूंद’ नहीं सकती है. उन्होंने कहा, ‘याचिकाकर्ताओं को सिर्फ इसलिए संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा मौलिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने परिवार के सदस्यों की इच्छा के खिलाफ शादी की है.’
जज ने आगे कहा कि 2014 के एक मामले में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इसी तरह का फैसला सुनाया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ सभी मुसलिमों के विवाह पर लागू होता है और ‘विवाह योग्य उम्र’ पार कर लेने के बाद अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने पर किसी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता.
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
अक्षत जैन, एनएलयू, दिल्ली में प्रथम वर्ष के लॉ स्टूडेंट हैं और बतौर इंटर्न दिप्रिंट के साथ जुड़े हैं.
यह भी पढ़ें: HC की वर्चुअल सुनवाई के दौरान वकील ने की ‘अश्लील हरकत’, कोरोना काल का यह पहला स्यापा नहीं