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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमत'हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को'- कैसे जनकवि बन गए अदम गोंडवी

‘हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को’- कैसे जनकवि बन गए अदम गोंडवी

अदम गोंडवी अपनी गजलों की मार्फत साहित्य को मुफलिसों की अंजुमन, बेवा के माथे की शिकन, रहबरों के आचरण और रोशनी के बांकपन तक ले चलने का आह्वान करते देश भर में घूमते रहे.

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हिन्दी की जनपक्षधर कविता में शायद ही कोई जनकवि अदम गोंडवी का सानी रहा हो. समय के साथ उनकी कई गजलें, कई जनप्रतिबद्ध आंदोलनों की सहचर भी बनीं. अदम गोंडवी को इस संसार से गये अभी मुश्किल से एक ही दशक बीता है और हिन्दी काव्य-संसार ने उन्हें इस तरह भुला दिया है, जैसे उसकी उनसे कभी कोई जान-पहचान ही न रही हो. आलम ऐसा है कि स्मृतियों पर पड़ी विस्मरण की धूल अदव गोंडवी की जयंती व पुण्यतिथि पर भी नहीं झाड़ी जाती.

ऐसा लगता है कि अपनी विरासत व प्रतिभा का विस्मरण अब हिन्दी समाज की प्रवृत्ति में शामिल हो चुका है. अन्यथा अदम न सही बल्कि उनके द्वारा अपनी शायरी में उसके पक्ष में पूछे जाने वाले सवाल तो उसे याद ही रहते.

सवाल है कि क्या वे ऐसी ही सामाजिक कृतघ्नता के पात्र थे? इसका जवाब है- नहीं. वास्तव में यह कृतघ्नता उनकी उस चिंता को जायज करार देती है, जिससे वे अपनी अंतिम सांस तक जूझते रहे. यह चिंता थी देश में बेहतर समाज निर्माण के सारे संघर्षों को बीच में छोड़ दिये जाने की और इन संघर्षों का अलम लिये फिरने वाली कई जमातों के भी बाजारू संस्कृति का हिस्सा बनकर समझौते करने लग जाने की.

जब भी मौका मिलता, इन जमातों की ओर संकेत कर अदम संत कबीर-सी फक्कड़ शैली में कहते, ‘जनसंघर्ष पटरी से उतर गये हैं, इसलिए हमारा समाज बेहतर होने के बजाय और बीमार होता जा रहा है. लोग पहले से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं. यहां तक कि कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों में भी कई तरह की बीमारियां घर कर गई हैं. इस कारण उनका सृजन भी संघर्ष की आंच में तपकर और बेहतर होकर नहीं आ रहा.’


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तकलीफों में बीता अदम गोंडवी का जीवन

प्रसंगवश, अदम 1947 में आजादी मिलने के महज दो महीने बाद 22 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में आटापरसपुर गांव के गजराजसिंह पुरवा में जन्मे और 64 साल लंबे जीवन संघर्षों के बाद 2011 में 18 दिसंबर को लखनऊ के एक अस्पताल में दुनिया को अलविदा कह गये.

अलविदा कहने से पहले उन्होंने आर्थिक तंगी के साथ लंबी बीमारी का त्रास झेला लेकिन उस त्रास के बीच भी उनके पास कई खुशनुमा यादें थीं, जिन्हें वे खुशी-खुशी लोगों के साथ बांटते.

मां-बाप ने उनका नाम रामनाथ सिंह रखा था और वे खुशकिस्मत थे कि अपनी पहली रचना ‘चमारों की गली ’ छपकर आते ही वे हिन्दी के समकालीन काव्य संसार में चारों ओर छा गये. फिर तो अपनी गजलों की मार्फत साहित्य को मुफलिसों की अंजुमन, बेवा के माथे की शिकन, रहबरों के आचरण और रोशनी के बांकपन तक ले चलने का आह्वान करते देश भर में घूमते रहे.

लेकिन साठ साल के होते-होते उन्हें कई तरह की बीमारियों और अभावों ने घेर लिया. उनसे निजात के भरसक प्रयासों के बावजूद अशक्तता बढ़़ती ही गई तो रोष, क्षोभ और असंतोष के बीच अपने गांव गजराजसिंह पुरवा में ही वे दिन काटने लगे. फिर भी स्वाभिमान ऐसा कि उन्होंने अपने निधन से कुछ ही महीनों पहले इन पंक्तियों के लेखक से हुई बातचीत में निजी सुख-दुख पर बात करने से कतई मना कर दिया था.

उन्होंने बताया था, ‘मैं पैदा हुआ तो देश में नई-नई आई आजादी का उल्लास था लेकिन होश संभाला तो पाया कि इस उल्लास का कोई मतलब ही नहीं क्योंकि शोषण और अत्याचार तो खत्म होने को ही नहीं आ रहे. कम से कम जिस ग्रामीण परिवेश का मैं हिस्सा था और जीवन भर रहा, वहां तो आज भी बदहाली ही राज करती आ रही है.’

वे स्कूल गये तो इसी बदहाली के कारण ज्यादा औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये. फिर भी उन्होंने प्राइमरी शिक्षा के दौरान ही यशपाल, प्रेमचंद और रांगेय राघव जैसे रचनाकारों को पढ़ डाला था. बाद में वे ‘मेरा दागिस्तान ’ और ‘रामचरितमानस ’ से भी बहुत प्रभावित हुए.

अदम गोंडवी बताते थे कि जब भी वे इन रचनाकारों को पढ़ते, उनके दिल व दिमाग में कई सवाल कुलबुलाने लगते. बाद में उन्होंने इन्हीं सवालों को अपने पाठकों व श्रोताओं से पूछना शुरू कर दिया. मसलन, ‘सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिये देश ये आजाद है ?’

बताने की जरूरत नहीं कि उन्होंने जिस तरह तकलीफों भरा जीवन जिया, उसमें इस तरह के अनेक सवाल उनके आसपास और जेहन में आजीवन बिखरे रहे.


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अदम गोंडवी का प्रभाव

हम जानते हैं कि दुष्यंत से पहले गजल आशिक और माशूक के बीच ही सिमटी रहती थी. दुष्यंत उसकी बेड़ियां तोड़कर नई जमीन पर ले आए और उसको बदलाव का औजार बनाया तो अदम ने उन्हीं की परंपरा में ‘कुछ अलग’ करके अपनी अलग जगह बनाई. हां, किसी भी तरह की रूमानियत से प्रभावित हुए बिना.

उनकी मान्यता थी कि समाज और सृजन का एक दूसरे से अन्योन्याश्रित संबंध है, इसलिए दोनों का एक दूसरे पर असर होता है. अच्छा सृजन सामाजिक संघर्षों व आंदोलनों से ही निकलकर आ सकता है. हां, अच्छे सृजन के लिए उपयुक्त समाज बनाने की जिम्मेदारी भी सर्जना करने वाले की ही है. इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना अपनी प्रतिबद्धताओं से विचलित होना है.

अपने आखिरी दिनों में प्रतिबद्ध रचनाकारों के लिए स्थितियों के बेहद दारुण और अपमानजनक होती जाने के लिए वे पथ से विचलित रचनाकारों को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराते थे. उनका कहना था, ‘विचलित रचनाकार समझौते करके ‘सफल’ हुए जा रहे हैं और जिन रचनाकारों ने ऐसे समझौते से परहेज किया है, उनके सामने आज भी कटोरा लेकर घूमने की स्थिति है. अर्थशास्त्र का वह नियम यहां भी लागू हो रहा है कि खोटे सिक्के खरे सिक्कों को प्रचलन से बाहर कर देते हैं. सो, खोटों के सिक्के चल रहे हैं.’

लेकिन अपने बुरे हाल में भी आम जनता के प्रति उनका लहजा कतई शिकायती नहीं हुआ. वे कहते थे, ‘जनता को तो बेचारगी के हवाले कर उसके हाल पर छोड़ दिया गया है. वह बेहद अपमानजनक स्थितियों में जी रही है. जो लोग भी इस जनता के साथ रहेंगे, उनको तब तक अपमान झेलना पड़ेगा जब तक जनता की मुक्ति नहीं हो जाती. अभी तो जनता की आवाज ही राजसत्ता तक नहीं पहुंच रही और पहुंच भी रही है तो उसकी अनसुनी कर दी जा रही है.’


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‘चूल्हे पे क्या उसूल पकायेंगे शाम को ?’

प्रसंगवश, मध्य प्रदेश ने 1998 में उनको पहला दुष्यंत कुमार पुरस्कार दिया तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि उन्हें अच्छा लगा कि इस पुरस्कार की शुरुआत उनके जैसे जनकवि से हुई और वे उम्मीद करते हैं कि आगे चलकर शोषितों के पक्ष में खड़े रचनाकारों के सम्मान की स्वस्थ परंपरा कायम होगी.

अदम गोंडवी ने माना था कि पुरस्कार और कुछ नहीं तो एक तरह का संतोष तो प्रदान करते ही हैं लेकिन यह कहना भी जरूरी समझा था कि वे पुरस्कारों को ज्यादा अहमियत नहीं देते क्योंकि किसी रचनाकार का असली सम्मान तो उसकी रचनाओं को अपनी जनता द्वारा स्वीकार किया जाना है.

वे सौभाग्यशाली थे कि यह असली सम्मान उनके हिस्से में भी खूब आया. लेकिन कवि के तौर पर उनकी एक ही आकांक्षा थी और एक ही सपना भी. अपनी एक गजल में वे उसे इस प्रकार बता गये हैं: एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें, झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो.

वे ताजिंदगी दुखी रहे कि उन्हें यह रास्ता हमवार होता देखना नसीब नहीं हुआ. उलटे और अवरोधों से भर गया. जिन्हें इस सपने को साकार करना था उन्होंने रास्ता बदल लिया और इस कदर बदल लिया कि पुराना सपना उनकी याद में ही नहीं रह गया.

इस याद न रह जाने से पैदा हुई विडंबनाओं को अपनी एक रचना में उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है: हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को, चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकायेंगे शाम को ?

उनके इस सवाल का जवाब आज भी नदारद है.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)


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