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Thursday, 19 December, 2024
होमदेशसरकार ने क़ानून रद्द किए, अब कृषि संकट के समाधान किसानों को सुलझाने हैं: कृषिशास्त्री एसएस जोहल

सरकार ने क़ानून रद्द किए, अब कृषि संकट के समाधान किसानों को सुलझाने हैं: कृषिशास्त्री एसएस जोहल

जोहल का कहना है कि कृषि क्षेत्र में सुधार आपसी सहमति से किए जाने चाहिए. वो आगे कहते हैं कि कृषि क़ानून वापस लिए जाने के बाद भी मौजूदा व्यवस्था किसानों के पक्ष में नहीं है.

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नई दिल्ली: संसद के शीत सत्र में केंद्र सरकार द्वारा तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लिए जाने के बाद आंदोलनकारी किसानों को एक कमेटी गठित करके जारी कृषि संकट के लिए समाधान पेश करने चाहिए. यह कहना है भारत के एक सबसे जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री सरदारा सिंह जोहल का.

दिप्रिंट के साथ टेलीफोन पर किए गए एक इंटरव्यू में 93 वर्षीय जोहल ने कहा, ‘जब सरकार ने (पारित होने और विरोध के) एक साल के बाद महत्वपूर्ण यूपी असेम्बली चुनावों से पहले तीनों विवादास्पद कृषि क़ानूनों को रद्द करने का फैसला  कर लिया है तो अब इसका दायित्व किसानों पर है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘उन्हें साझा करना चाहिए कि वो कौन सी बात या बदलाव चाहते हैं. चाहे वो नीति में हो या कुछ और हो. वो अपनी कमेटी गठित कर सकते हैं जिसमें उनकी पसंद के विशेषज्ञ हों और एक ऐसा कानून तैयार कर सकते हैं जो उनके पक्ष में हो और फिर सरकार के साथ उस पर आगे चर्चा कर सकते हैं.’

जोहल ने कहा कि कृषि क्षेत्र में कोई भी सुधार, ‘भविष्य में आपसी सहमति के ज़रिए होना चाहिए’.

‘आंदोलनकारी किसानों को पहले अपना रुख़ स्पष्ट करना होगा फिर सरकार के साथ उसपर चर्चा करनी होगी. उसके बाद सरकार उसपर व्यापक परामर्श और स्वीकृति के लिए एक कमेटी बना सकती है या फिर किसान अपने प्रतिनिधियों के ज़रिए संसद में अपने विचार रख सकते हैं’.

भारतीय कृषि क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता पर रोशनी डालते हुए, जोहल ने कहा कि कृषि क़ानून वापस लिए जाने के बाद भी, मौजूदा व्यवस्था किसानों के पक्ष में नहीं है.

जोहल ने कहा, ‘किसानों की उपज का जो दाम उपभोक्ता अदा करते हैं किसानों को उसका 20 प्रतिशत भी नहीं पहुंचता. किसानों की आत्महत्या की एक बड़ी समस्या भी मौजूदा व्यवस्था का ही परिणाम है. चालू सीज़न में किसानों ने फूलगोभी 2 रुपए प्रति किलो बेची है लेकिन उपभोक्ताओं ने उसे कम से कम 10-15 रुपए प्रति किलो की दर से ख़रीदा है’.


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विचार-विमर्श की कोई जगह नहीं

पद्म भूषण से सम्मानित जोहल वर्तमान में पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय बठिंडा के पहले कुलपति हैं और उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से अर्थशास्त्र के प्रख्यात प्रोफेसर के रूप में मान्यता मिली हुई है. पंजाब यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र इससे पहले पंजाब यूनिवर्सिटी पटियाला और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के उप-कुलपति रह चुके हैं.

जोहल भारत सरकार के कृषि लागत और मूल्य आयोग के अध्यक्ष और चार प्रधानमंत्रियों की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं. अन्य पदों के अलावा वो भारतीय रिज़र्व बैंक के सेंट्रल गवर्निंग बोर्ड के निदेशक के रूप में भी काम कर चुके हैं. इसके अलावा वो इंडियन सोसाइटी ऑफ एग्रीकल्चरल इकनॉमिक्स, एग्रीकल्चरल इकनॉमिक्स रिसर्च एसोसिएशन और इंडियन ससोसाइटी फॉर एग्रीकल्चरल मार्केटिंग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.

वैश्विक स्तर पर जोहल ने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन, विश्व बैंक और पश्चिम एशिया के लिए आर्थिक आयोग के लिए सलाहकार के रूप में भी सेवाएं दी हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए, जोहल ने केवल बहुमत के सहारे नए कृषि क़ानूनों को, संसद में बलपूर्वक पास कराने के लिए केंद्र की आलोचना की और कहा कि अगर सरकार ने विचार-विमर्श की अनुमति दी होती तो यह क़ानून बिना किसी विरोध के पास हो सकते थे.

उन्होंने कहा, ‘अध्यादेश के ज़रिए नए कृषि क़ानून लाकर और उन्हें लागू करके सरकार ने एक ग़लत रास्ता इख़्तियार किया है. उसके बाद भी उनके पास छह महीने थे लेकिन उन्हें इस विषय को सार्वजनिक दायरे में लाकर उसपर चर्चा नहीं की’.

जोहल ने आगे कहा, ‘संसद के पटल पर रखने के बाद भी उन्होंने इसपर चर्चा नहीं होने दी और न ही उसे किसी प्रवर समिति को भेजा जिसकी विपक्ष मांग कर रहा था. बहुमत की ताक़त पर सवार होकर उन्होंने इसे संसद के दोनों सदनों से पारित करा लिया और राष्ट्रपति की मंज़ूरी भी ले ली. इस सब ने सरकार में लोगों का विश्वास कम कर दिया और वही असली समस्या है. वरना ये बिल संसद में स्वाभाविक रूप से भी पास हो सकते थे’.

उन्होंने कहा कि इसके परिणामस्वरूप, ‘किसानों ने भी अपना एक विचार बना लिया और सरकार उन्हें राज़ी नहीं कर सकी बल्कि किसी तार्किक विचार-विमर्श की जगह ही नहीं बची और ये भी है कि अगर संबंधित पक्ष (किसान) ये क़ानून नहीं चाहता तो सरकार को उन्हें रद्द कर देना चाहिए था’.

जोहल ने कहा, ‘एक और समस्या ये थी कि राज्यों के सशक्तीकरण और सहभागिता से जुड़े कुछ उपनियम हटा दिए गए थे. राज्यों की भूमिका को कम से कम सलाहकार की हैसियत से रखा जाना चाहिए था. ऐसी चीज़ों की ज़रूरत थी. अन्यथा वो क़ानून अच्छे थे’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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