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Wednesday, 20 November, 2024
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आर्यन खान, मुनव्वर फारूकी हों या पिंजरा तोड़ के कार्यकर्ता- जमानत का मतलब तत्काल रिहाई क्यों नहीं होता

देरी से होने वाली रिहाई एक ऐसा मुद्दा है जिसने न्यायपालिका को भी चिंता में डाल दिया है. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा है कि जेल प्रशासन को जमानत के आदेश देने में की जाने वाली देरी एक 'बहुत गंभीर खामी' है.

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नई दिल्ली: इस सप्ताह की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने जेल प्रशासन तक जमानत के आदेशों की सूचना पहुंचाने में होने वाली देरी को एक ‘बहुत गंभीर खामी’ करार दिया क्योंकि यह प्रत्येक विचाराधीन कैदी की ‘मानवीय स्वतंत्रता’ से जुड़ा है.

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की इस टिप्पणी और आर्यन खान की देरी से हुई रिहाई ने एक बार फिर से पुराने पड़ चुके जेल नियमों की तरफ सबका ध्यान खींचा है, जो स्वतंत्रता के मुलभूत संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करते हुए विचाराधीन कैदियों को बिना किसी औचित्य के कैद में रहने को मजबूर कर सकते हैं.

पिछले 2 अक्टूबर को गिरफ्तार किये गए आर्यन खान 30 अक्टूबर को ही मुंबई की आर्थर जेल से बाहर निकल पाए. हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस एन.डब्ल्यू. सांब्रे ने 28 अक्टूबर को उनकी और दो अन्य लोगों की जमानत अर्जी स्वीकार कर ली थी, लेकिन रिहाई की शर्तों को निर्धारित करते हुए एक विस्तृत आदेश 29 अक्टूबर को जारी किया गया था.

उस दिन जब तक जमानत की सुरक्षा राशि सहित खान की जमानत की बाकी सभी औपचारिकताएं पूरी हुईं और रिहाई के लिए वारंट (आदेश) जारी किया गया, तब तक शाम के 5.30 बज चुके थे. इसके बाद आर्थर रोड जेल ने आर्यन को इस आधार पर रिहा नहीं किया कि उसके दस्तावेज शाम 5.30 बजे, जो इस तरह के कागजात प्राप्त करने के लिए निर्धारित समय है, के बाद वहां पहुंचे.

लेकिन आर्यन खान का मामला इसका अकेला उदहारण नहीं है.

किसी कैदी की जमानत पर रिहाई की प्रक्रिया के लिए आवश्यक सभी औपचारिकताओं को पूरा करने में होने वाली देरी के परिणामस्वरूप अक्सर कारावास की अवधि बढ़ जाती है.

दिल्ली में, पिंजरा तोड़ कार्यकर्ताओं नताशा नरवाल और देवांगना कलिता और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देने वाले उच्च न्यायालय के आदेश को लागू करने के लिए तिहाड़ जेल ने दो दिन का समय लिया. ये सभी पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों से संबंधित एक मामले में आरोपी के रूप में गिरफ्तार हुए थे.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 15 जून को सुबह ही अपने एक विस्तृत फैसले में इन तीनों को रिहा करने का आदेश दिया था, मगर निचली अदालत में औपचारिकताएं अधूरी रह गईं क्योंकि दिल्ली पुलिस ने उनकी जमानत और दिए गए पतों को सत्यापित करने के लिए और तीन दिन का समय मांगा था. इसके बाद अदालत में काम का बोझ बहुत ज्यादा होने के कारण मामले को अगले दिन फिर एक बार टाल दिया गया.

लेकिन 17 जून को, जब उच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया, तो निचली अदालत के पीठासीन न्यायाधीश ने जल्दबाजी दिखाते हुए उसी दिन शाम को इन तीनों की रिहाई को मंजूरी देते हुए इससे संबंधित वारंट को तिहाड़ जेल को इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रेषित करने का कदम उठाया.

कुछ ही महीने पहले, इंदौर जेल ने स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को रिहा करने से इनकार कर दिया था, बावजूद इस बात के कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें एक आपराधिक मामले में धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में जमानत दे दी थी.

हालांकि शीर्ष अदालत ने प्रयागराज अदालत द्वारा फारूकी के खिलाफ जारी किए गए प्रोडक्शन वारंट (उपस्थित किये जाने के आदेश) पर भी रोक लगा दी थी, फिर भी जेल अधीक्षक ने उसे यह कहते हुए रिहा नहीं किया कि वे इस आदेश पर प्रयागराज अदालत से औपचारिक रूप से संवाद की प्रतीक्षा कर रहे थे.

फारूकी की रिहाई तभी संभव हुई जब सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ रजिस्ट्रार ने उनकी रिहाई में हो रही प्रक्रियात्मक देरी के बारे में मीडिया में आ रही खबरों के बाद उनसे (जेल अदीक्षाक से) फोन पर बात की.

इसी तरह जुलाई में, आगरा जेल ने 13 कैदियों को इस कारण रिहा करने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए जमानती आदेश की हार्ड कॉपी नहीं मिली थी. इसके उपरांत शीर्ष अदालत ने स्वत: हस्तक्षेप करते हुए इन आरोपियों की रिहाई का मार्ग प्रशस्त किया.


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इससे संबंधित प्रक्रिया आखिर है क्या?

दरअसल जेलों का आंतरिक प्रशासन राज्य का विषय है. इस बारे में प्रत्येक राज्य का अपना मैनुअल (निर्देश पुस्तिका) होता है जो दस्तावेजों को प्राप्त करने और उन्हें प्रॉसेस करने की तय समय सीमा सहित जमानत देने वालों को रिहा करने के लिए जरूरी दिशा-निर्देश निर्धारित करता है.

उदाहरण के लिए, दिल्ली की तिहाड़ जेल शाम 7 बजे के बाद अदालत द्वारा जारी किए गए किसी भी रिलीज वारंट को स्वीकार नहीं करती है. तिहाड़ जेल के एक पूर्व कानून अधिकारी सुनील गुप्ता ने कहा, ‘अगर वैध दस्तावेज शाम 7 बजे से पहले प्राप्त होता है, तो कैदी को उसी दिन रिहा करना होगा या फिर उसकी रिहाई अगली सुबह ही होगी.’

मुंबई में, आर्थर रोड जेल शाम 5.30 बजे तक निर्दिष्ट ड्रॉप बॉक्स में रिहाई वारंट छोड़ जाने की मांग करता है.

गुप्ता के अनुसार, ‘प्रत्येक जेल का जेल अधिनियम सुरक्षा कारणों से एक निश्चित समय के बाद जेलों को बंद किये जाने का आदेश देता है और जेलों को केवल ‘विकट आपात स्थिति’ के मामले में ही खोला जाता है. हालांकि, यह रिलीज वारंट तैयार करने के लिए ‘यांत्रिक’ प्रक्रिया है जो जल्दी रिहाई में रुकावट डाल सकती है.’

इस बारे में समझाते हुए गुप्ता कहते हैं, ‘किसी भी आवेदक को जमानत दिए जाने के बाद अदालत इससे सम्बंधित आदेश की एक प्रति उस जेल को भेजती है जहां कैदी बंद है. यह या तो एक विशेष संदेशवाहक या कूरियर के माध्यम से किया जाता है. यदि यह आदेश हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया है तो औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए इस आदेश की एक प्रति ट्रायल कोर्ट को भी भेजी जाती है.’

यदि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में जमानत बांड और जमानत राशि निर्दिष्ट कर दी होती है, तो निचली अदालत को सिर्फ इस आदेश के अनुपालन में प्रस्तुत दस्तावेजों के असली होने को सत्यापित करने की आवश्यकता होती है. मगर, जब ऊपरी अदालतों द्वारा अपने आदेश में ये शर्तें निर्धारित नहीं की जाती हैं, तो निचली अदालत के न्यायाधीश इस कार्य को भी करते हैं.

लेकिन कैदी को तब तक नहीं छोड़ा जा सकता, जब तक कि निचली अदालत उसका रिहाई वारंट जेल के पास नहीं भेज देती. यह वारंट तब तैयार किया जाता है जब पुलिस ज़मानत का सत्यापन पूरा कर लेती है, जिसमें आधार कार्ड, सावधि जमा राशि या संपत्ति के कागजात जैसे दस्तावेजों की सत्यता की जांच करना भी शामिल होता है.

गुप्ता कहते हैं, ‘यहां ट्रायल कोर्ट के जज के पास बहुत सारा विवेकाधीन अधिकार होता है. पुलिस के लिए एक समय सीमा तय करने का कार्य भी अदालत पर निर्भर है और अगर जमानती के रूप में खड़ा व्यक्ति कोई प्रसिद्ध व्यक्ति है तो यह सत्यापन की प्रक्रिया से छूट भी दे सकता है.’

उन्होंने कहा कि रिलीज वारंट का तैयार होना इस पूरी रिहाई प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है.

यह दस्तावेज़ अभी भी हस्तलिखित होता है. एक छोटी सी भी गलती, जैसे वर्तनी (स्पेलिंग) में त्रुटि, कैदी की रिहाई न किये जाने का आधार बन सकती है, क्योंकि जेल अधीक्षक इसे स्पष्टीकरण के लिए वापस कर सकता है और इस तरह रिहाई में देरी कर सकता है.

जेल में जेल अधीक्षक कोर्ट से जमानत का आदेश मिलते ही तुरंत कार्रवाई शुरू कर देते हैं. अधिकारी इस बात की पुष्टि करने के लिए संबंधित कैदी को पेश करने के निर्देश जारी करता है कि यह वही व्यक्ति है जिसके बारे में जमानत आदेश में उल्लेख किया गया है. बंदी को कैद के दौरान जेल से प्राप्त वस्तुओं को वापस करने के लिए कहा जाता है और रिहाई वारंट प्राप्त होने के बाद उसे छोड़ने की अनुमति दे दी जाती है.

पूरी प्रक्रिया को डिजिटाइज करने की आवश्यकता

संचार माध्यमों द्वारा प्रकाशित ख़बरों में जुलाई महीने में आगरा जेल की घटना के बारे में जानने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमन्ना ने एक ऐसी प्रणाली विकसित करने का मुद्दा उठाया, जिसके तहत शीर्ष अदालत विभिन्न जेलों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से जमानत के आदेशों को संप्रेषित करेगी.

फास्टर (फास्ट एंड सिक्योर ट्रांसमिशन ऑफ इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड) नाम की इस व्यवस्था को स्थापित करने का प्रस्ताव रखते हुए उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा, ‘सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस युग में हम अभी भी कबूतरों द्वारा आदेशों को लाने-ले जाने के लिए आसमान की ओर ताक रहे हैं.’

आगरा मामले में 23 सितंबर को पारित किये गए आदेश में, शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिया कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की प्रमाणित ई-प्रतियां जेल अधिकारियों द्वारा स्वीकार की जानी चाहिए और साथ ही इसमें राज्यों और उनकी पुलिस को भी न्यायिक आदेशों की ई-प्रतियां को स्वीकार करने से संबंधित नियमों और विनियमों में संशोधन करने का निर्देश दिया गया है.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि यह सिस्टम अभी तक चालू नहीं हुआ है क्योंकि आदेश का अनुपालन अभी भी प्रतीक्षित है. इन सूत्रों में से एक ने बताया कि, ‘राज्यों को इस आदेश का जल्द पालन करने के लिए रिमाइंडर लेटर (स्मरण पत्र) भेजा गया है.’

कानूनी विशेषज्ञ भी मुख्य न्यायाधीश रमन्ना के इस विचार से सहमत हैं कि इस पूरी प्रक्रिया को डिजिटल रूप प्रदान करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए.

अधिवक्ता ज्ञानंत सिंह ने कहा कि उच्च न्यायालयों को प्रत्येक राज्य में जेल अधिकारियों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रेषित जमानत आदेश और रिहाई वारंट स्वीकार करने के निर्देश जारी करने चाहिए.

सिंह कहते हैं, ‘एक बार जब कोई आदेश डिजिटल रूप से हस्ताक्षरित हो जाता है और किसी भी अदालत की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड हो जाता है, तो फिर इसके हार्ड कॉपी की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. अगर अदालतें ऐसे आदेशों को स्वीकार कर सकती हैं, तो जेल अधिकारी क्यों नहीं? सभी उच्च न्यायालयों को फास्टर सिस्टम को अपनाना चाहिए और कागजी कार्रवाई में मानवीय हस्तक्षेप को कम करना चाहिए.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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