गॉड्स ओन कंट्री यानी ईश्वर का अपना देश केरल को कहा जाता है. यह केरल के पर्यटन विभाग की पंच लाइन है. केरल का प्राकृतिक सौंदर्य देखकर अहसास होता है कि यह अतिश्योक्ति नहीं है. फिलहाल भगवान की इस धरती पर जलजला आया हुआ है, बारिश और बाढ़ में कई लोग मारे गए हैं और बड़ी संख्या में लोग लापता हैं. प्राकृतिक आपदा में मवेशियों की गिनती तुरंत नही की जाती इसलिए जानवर कितने मारे गए, पता नहीं. जहां पानी एकाएक आया वहां तो मवेशी खूंटे से बंधे रह गए और भाग भी नहीं पाए.
मानवीय त्रासदी को आंकड़ों में समझना उसका सरलीकरण है इसलिए पूरे परिवार को अपनी आंखों के सामने बहते हुए देखने वाले शख्स को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग अब तक मर गए या कितने मसालों के खेत और काजू के बगीचे नष्ट हो गए. यह भी सत्ता की चिंता का विषय है कि कितने किलोमीटर की सड़क बह गई और टूट चुके सौ से ज्यादा पुल दोबारा कैसे बनेंगे. शून्य को ताकता वह शख्स इस बहस से भी अप्रभावित है कि टूरिज़म इंड्स्ट्री अब बरबाद हो चुकी है और 2018 की त्रासदी पर आई अंतरराष्ट्रीय मदद का सही उपयोग क्यों नहीं हो पाया. असल सवाल उस शख्स के समाने यह है कि अब वह क्या करे? वह यह नहीं समझ पा रहा कि यह सब हुआ क्यों? क्लाइमेंट चेंज जैसे ऑलटाइम हिट रीजन के अलावा इस सवाल के दो सीधे साधे जवाब है.
रूम फार दि रिवर और टाइ दि सी
गूगल पर केरल टूरिज़म लिखिए तो हाउस बोट की तस्वीर सामने आती है. पिछले कुछ सालों से पर्यटकों के लिए हाउस बोट के बढ़ते लालच को पूरा करने के लिए नकली सी पोंड बनाए गए.
केरल के सफल पर्यटन गाथा के इस गणित को थोड़ा समझिए, केरल का समुद्र और उसमें मिलने वाली कई नदियां पिछले कुछ सालों से बैक वाटर टूरिज़म का शिकार रही हैं. केरल को पर्यटन के लिहाज से सबसे उम्दा जगह बताने के लिए समुद्र में कई जगह बांध बनाए गए और पानी के बड़े हिस्से को रोका गया. जिससे पारिस्थितकी में तेजी से बदलाव हुआ है. इस रुके हुए पानी को पर्यटन जलमार्ग की तरह उपयोग में लाया जाता है. केरल के ज्यादातर हिस्सों में इस तरह जबरदस्ती रोके गए पानी के आसपास होटल स्थापित किए गए हैं, इन होटलों के पास अपना रुका हुआ समुद्र होता है जिसमें बड़ी संख्या में बोट हाउस तैरते हैं.
टाइ दि सी को सफल बनाने के लिए खनन माफिया ने अपना योगदान दिया और लगातार चलने वाले खनन के कारण केरल की पम्पा, अऩिमाला और अचनकोविल जैसी नदियों में पानी नाम मात्र का रह गया था. जब पानी कम रह गया तो नदी तट पर अतिक्रमण हुआ, फिर आई आफत की बारिश और वे नदियां लबालब हो गईं जिन्हे मरा मान कर उन पर कब्जा कर लिया गया था. नदी का बाढ़ क्षेत्र तो छोड़िए उसके प्रवाह क्षेत्र तक पर टूरिज्म का दबदबा था. रही सही कसर उन बांधों ने पूरी कर दी जिन्हें खोलने का सही समय किसी को पता ही नहीं था. बहरहाल पूरे केरल के तटवर्ती क्षेत्रों में फैले खनन के इन गड्डों ने ही बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है. अब एक नजर रूम फार दी रिवर पर भी डाल लीजिए.
साल 2018 में भी आई थी भारी बाढ़
2018 में केरल में जल प्रलय आया था, पांच सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे और सरकारी, व्यक्तिगत संपत्ति का भारी नुकसान हुआ था. उस समय दुनियाभर में रह रहे मलयाली लोगों और कई देशों ने राज्य के पुनर्निर्माण के लिए ढेर सारा धन भेजा था. उसी उत्साह में मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने नीदरलैंड की यात्रा की. वे वहां रूम फार दि रिवर को समझने गए थे. नीदरलैंड ने इस विचार के तहत अपने निचले ज00हिस्सों में आने वाली बाढ़ को काफी हद तक नियंत्रित किया है. इस योजना में निचले हिस्सों को चिन्हित कर बाढ़ के पानी के लिए रास्ता बनाया जाता है ताकि पानी सीधे नदी या समुद्र में जाए. इसके लिए तटबंधों का निर्माण के अलावा समुद्र और नदियों से सटे इलाके में डिपोंडरिंग करना, फ्लड चैनलों का निर्माण और नदी की प्राकृतिक दिशा को बनाए रखते हुए ग्रोएंश (समुद्र या नदी के तट से पानी के भीतर की ओर तटबंध जैसा निर्माण ताकि भूमि कटाव रोका जा सके.) निर्माण जैसी कोशिशें करनी होती है.
पिनाराई विजयन ने केरल में रूम फार दि रिवर लागू करने की घोषणा कर दी लेकिन यह योजना अब तक कागजों से बाहर ही नहीं आ पाई. हालांकि, चेन्नई आईआईटी को इसका डीपीआर बनाने और सलाह देने के लिए पांच करोड़ रूपए दिए गए. इस योजना में बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माण को देखते हुए भ्रष्टाचार का शिकार होने की पूरी आशंका है. यही कारण है कि आज तक सरकार नोडल एजेंसी को फाइनल नहीं कर सकी. दूसरा, इस योजना की सफलता के लिए ज़रूरी है कि जल संग्रहण क्षेत्रों को ज्यादा जमीन दी जाए, सरकार को इस पर निर्णय लेना है कि पर्यटन के लिहाज से बेशकीमती जमीन नदी को दी जा सकती है या नहीं.
एक बात तय मानिए कि बाढ़ के उतरने के बाद केरल उतना नहीं रहेगा जितना बाढ़ के पहले था. यानी भगवान के अपने देश की धरती की सैकड़ों हेक्टेयर जमीन अब नदी और समुद्र का हिस्सा होगी. जिंदगी तो किसी तरह पटरी पर लौट ही आएगी लेकिन सत्ता और समाज दोनों को विचार करना चाहिए कि क्यों भगवान के अपने देश की 44 नदियों में से एक का भी पानी पीने लायक नहीं है? और क्यों भगवान अपने घर को मिटाने पर तुले हैं?
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)