scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमदेशगेहूं और चावल पर ज्यादा फोकस करने से भारत में बढ़ा जल संकट: अर्थशास्त्री मिहिर शाह

गेहूं और चावल पर ज्यादा फोकस करने से भारत में बढ़ा जल संकट: अर्थशास्त्री मिहिर शाह

मिहिर शाह का कहना है कि जल संकट को हल करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाले बिना फसलों का विविधीकरण करना बेहद ज़रूरी है.

Text Size:

नई दिल्ली: हरित क्रांति के शुरुआती सालों से ही सार्वजनिक ख़रीद में पूरा फोकस गेहूं और चावल पर ही केंद्रित रहा है और इसने भारत को अनाज का एक बड़ा बफर स्टॉक बनाने में सक्षम बनाया है.

हालांकि, जाने-माने जल नीति विशेषज्ञ मिहिर शाह, जिन्होंने राष्ट्रीय जल नीति (एनडब्ल्यूपी) 2000 का मसौदा तैयार करने वाली 11 सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति की अध्यक्षता की. उन्होने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि सिर्फ गेहूं और चावल पर अत्यधिक ध्यान दिए जाने से भारत में जल संकट बढ़ाने में अहम भूमिका रही है.

शाह की अध्यक्षता वाली समिति का गठन नवंबर 2019 में मंत्रालय की तरफ से मौजूदा राष्ट्रीय जल नीति को अपडेट करने के लिए किया गया था जिसे आखिरी बार 2012 में तैयार किया गया था. समिति ने पिछले साल दिसंबर में केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय को एनडब्ल्यूपी रिपोर्ट का मसौदा सौंप दिया था.

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद, जिसके सदस्यों में सभी मुख्यमंत्री शामिल हैं, उसकी तरफ से मंजूरी लिए जाने से पूर्व मंत्रालय इस समय मसौदा नीति का अध्ययन कर रहा है.

शाह ने कहा, ‘ज्यादा पानी की खपत वाली फसलें अपेक्षाकृत पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी उगाई जाती हैं क्योंकि यही ऐसी फसलें हैं जिनमें किसानों को एक स्थिर बाजार मिलने का भरोसा रहता है. इसकी सबसे बड़ी वजह है सरकारी खरीद व्यवस्था.’ उन्होंने साथ ही कहा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाले बिना स्थानीय कृषि-पारिस्थितिकी के अनुरूप फसलों का विविधीकरण देश में जल संकट सुलझाने की दिशा में राष्ट्रीय जल नीति का एकमात्र सबसे महत्वपूर्ण कदम है.


यह भी पढ़ें: निहंग ‘नेता’ के साथ कृषि मंत्री तोमर की तस्वीर- रंधावा ने किसान आंदोलन को बदनाम करने की साजिश बताया


शाह ने कहा कि ‘इसे हासिल करने के लिए हमें बहुत ही सावधानी और चरणबद्ध तरीके से फसल खरीद की व्यवस्था में विविधिता लाने के लिए इसमें पोषक-अनाज, दलहन और तिलहन को शामिल करने की जरूरत है.’ उन्होने कहा, ‘इन फसलों की खरीद से सार्वजनिक खरीद व्यवस्था में जब विविधता आएगी तो किसानों को नए ढांचे के अनुरूप ही अपनी फसलों के पैटर्न में विविधता लाने का प्रोत्साहन मिलेगा. इससे पानी की बड़े पैमाने पर बचत की जा सकेगी.’

भारत में कृषि क्षेत्र में देश के लगभग 80-90 प्रतिशत पानी की खपत होती है. इसमें से 80 फीसदी पानी की खपत सिर्फ तीन फसलों चावल, गेहूं और गन्ने में होती है.

यूपीए सरकार के समय योजना आयोग के सदस्य रहे शाह ने कहा कि पिछली राष्ट्रीय जल नीतियों (1987, 2002, 2012 में) में भी कई अच्छी बातें थी. उन्होंने कहा, ‘हमने तो सिर्फ यही करने कोशिश की कि उन विचारों को अधिक सुसंगत तरीके से एक ढांचे में लाया जा सके, यह पता चल सके कि इन विचारों को आगे कैसे बढ़ाना है, इस बारे में अधिक स्पष्टता मिल सके कि जल नीति को अन्य क्षेत्रों की नीतियों के साथ किस तरह लिंक करना है और कई नए विचारों का सुझाव दिया जो अधिक सटीक हैं और मौजूदा समय की बदली जरूरतों के अनुरूप है. साथ ही पानी के बारे में समझ को बढ़ाने वाले और नए विकल्पों को भी दर्शाने वाले हैं.’

स्वतंत्र समिति और ग्रेडेड फी सिस्टम की जरूरत

फसल विविधीकरण की सिफारिश करने के अलावा एनडब्ल्यूपी के मसौदे ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्वतंत्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरणों (आईडब्ल्यूआरआरए) के स्थापित किए जाने की भी सिफारिश की गई है.

आईडब्ल्यूआरआरए थोक जल शुल्क के बारे में एक सहमत मानदंड के मुताबिक विभिन्न उपयोगों में लागत निर्धारण और लागत विभाजन के आधार पर फैसला लेंगे. शाह ने कहा कि विभिन्न यूटिलिटी और लोकल सेल्फ गवर्नमेंट द्वारा व्यक्तिगत उपयोगकर्ता शुल्क या खुदरा शुल्क आईडब्ल्यूआरआरए द्वारा निर्धारित ऊपरी सीमा के भीतर ही वसूले जाएंगे.

शाह ने आगे कहा, ‘श्रेणीबद्ध फीस सिस्टम को अपनाने की जरूरत है. बुनियादी सेवा हर किसी को सस्ती कीमत पर प्रदान की जानी चाहिए इसमें एक स्तर तक तो ओ-एंड-एम लागत निकल आती है. आर्थिक सेवा (वाणिज्यिक कृषि, औद्योगिक और वाणिज्यिक उपयोग की तरह) पर एक मामूली शुल्क लिया जाना चाहिए जिसमें संचालन और रखरखाव (ओ-एंड-एम) लागत और पूंजीगत लागत का एक हिस्सा जल सेवा शुल्क का आधार होगा.’

हालांकि, शाह ने कमजोर सामाजिक वर्गों के लिए रियायती दरों की वकालत की है. उन्होंने कहा, ‘इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि गरीबों को बुनियादी जल सेवा की कोई कीमत न चुकानी पड़े.’


यह भी पढ़ें: ये बैंगन है या टमाटर? नहीं, ये है ‘ब्रिमेटो’, बिल्कुल पोमेटो की तरह, जिसकी क़लम वाराणसी के वैज्ञानिकों ने तैयार की है


उन्होंने आगे कहा कि अब तक समस्या यह रही है कि हम इस बात को प्रभावी ढंग से कम्युनिकेट नहीं कर पाए कि नदियों, तालाबों, झीलों और जलस्रोतों में प्राकृतिक रूप में पाया जाने वाला पानी घरेलू नल, सिंचाई चैनल या कारखाने में उपलब्ध पानी से बहुत अलग होता है.

उन्होंने कहा, ‘किसी को जब भी और जहां भी उपयोग करने लायक पानी चाहिए उसे उपलब्ध कराने के लिए भौतिक बुनियादी ढांचे और प्रबंधन प्रणालियों की जरूरत होती है. इसमें अच्छी-खासी लागत आती है. इसलिए सामाजिक तौर पर यह सहमति बनाने की जरूरत है कि इस लागत को कैसे पूरा किया जाएगा.’

शाह ने कहा कि सेवा शुल्क बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के अधिकार के तहत किफायती पानी सुनिश्चित करने के लिए एक सुविधा है जबकि वाणिज्यिक और लक्जरी यूज पर अधिक शुल्क के माध्यम से राजस्व जुटाकर वित्तीय स्थिरता हासिल की जा सकती है.

शाह ने कहा, ‘ओ-एंड-एम लागत पूरी तरह जल सेवा शुल्क के माध्यम से वसूली जानी चाहिए. पूंजी या फिक्स्ड कास्ट को  राज्यों द्वारा पूरा किया जाना चाहिए और आंशिक तौर पर इसे विभिन्न वाणिज्यिक उपयोगकर्ताओं (वाणिज्यिक खेती, उद्योग, वाणिज्यिक प्रतिष्ठान, आदि) से उच्च जल शुल्क वसूल करके भी पूरा किया जा सकता है.’

शाह ने बताया कि एनडब्ल्यूपी में यह भी सिफारिश की गई है कि उल्लंघन करने पर भुगतान इतना ज्यादा होना चाहिए कि एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी के तौर पर प्रदूषण फैलाने वालों पर इसका असर काफी व्यापक हो. उन्होंने कहा, ‘सुधारात्मक कार्रवाई वाले कदम उठाए जाने तक बार-बार उल्लंघन के मामलों में प्रदूषणकारी इकाइयों के लाइसेंस अस्थायी रूप से निलंबित कर दिए जाने चाहिए. एनडब्ल्यूपी समिति ने ऐसे कई उदाहरण पाए जिसमें ‘प्रदूषण फैलाने वाले थोड़ा-बहुत भुगतान’ कर देने के बाद इसे प्रदूषण फैलाने का लाइसेंस मिल जाना मानकर काम कर रहे थे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


यह भी पढ़ें: UP चुनाव 2022 के लिए सपा-सुभासपा आए साथ, राजभर बोले- अबकी बार भाजपा साफ


 

share & View comments