नई दिल्ली: स्कूल अधिकारियों, अभिभावकों और शिक्षा विशेषज्ञों ने दिप्रिंट से कहा है कि अब जबकि देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग दो साल से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे बच्चे फिर से स्कूल जाने लगे हैं तो उनके व्यवहार से पता चलता है कि वे अभी पूरी तरह उसके माहौल में ढल नहीं पा रहे हैं.
देश के अधिकांश हिस्सों में स्कूल पिछले दो महीनों में फिर खुल गए हैं और बच्चे फिर से यहां पढ़ने आने लगे हैं. हालांकि, महामारी के बाद इस ‘नए सामान्य स्थिति’ में स्कूलों का माहौल भी पूरी तरह बदल गया है. शिक्षकों और स्कूल अधिकारियों के मुताबिक, यद्यपि अधिकांश बच्चों के लिए ऑनलाइन माध्यम से शिक्षकों और साथी छात्रों से बातचीत करने के बजाये व्यक्तिगत रूप से स्कूल लौटना ‘एक राहत की बात है’ लेकिन उनके लिए नए माहौल में ढलना किसी चुनौती से कम नहीं है.
इस हफ्ते के शुरू में जारी यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में इसी वास्तविकता की ओर इशारा करते हुए कहा गया कि 14 प्रतिशत युवा भारतीय कोविड के समय में डिप्रेशन का शिकार हैं, लेकिन इसके बारे में बात करने को तैयार नहीं हैं. दिप्रिंट ने जहां भी स्कूल प्रशासन से बात की उन्होंने छात्रों में इसी तरह के व्यवहार के बारे में बताया. उनका कहना है कि छात्र अभी यह बदलाव स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं वे क्लास की एक्टिविटी में शामिल होने के बजाये अपने आप में ही खोये रहते हैं. स्कूल प्रशासन का कहना है कि वे ‘पहले जैसी’ स्थिति में नहीं आ पाए हैं.
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क्लास में लौटना चुनौतीपूर्ण
महाराष्ट्र, राजस्थान, यूपी और अन्य राज्यों में चलने वाले बिड़ला ओपन माइंड्स स्कूल के निदेशक निर्वाण बिड़ला ने कहा, ‘बच्चों के स्कूल वापस लौटने को लेकर खासकर माता-पिता काफी आशंकित बने हुए हैं, ऐसे में बच्चे भी कुछ डर के साथ ही आते हैं जो उन्हें सामान्य व्यवहार करने से रोकता है.’
बिड़ला ने बताया कि उनके स्कूलों में शिक्षकों और प्रधानाचार्यों ने पाया है कि बच्चों को एक-दूसरे के साथ बातचीत करने में काफी मुश्किल आ रही है और खासकर छोटे बच्चों के साथ यह समस्या ज्यादा होती है.
उन्होंने कहा, ‘महामारी के कारण आए तमाम बदलावों के बिना भी बच्चों को व्यावहारिक रूप से मुखर बनाना किसी चुनौती से कम नहीं होता है. ऐसे में इस बार ऐसा करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है. सोने और खाने के पैटर्न के साथ छात्रों के एक-दूसरे के साथ बातचीत करने का समय भी घट गया है, जिससे सामान्य तौर पर पढ़ाने और सिखाने का काम थोड़ा मुश्किल हो गया है.’
बिड़ला ने कहा कि इस समय सबसे बड़ी जरूरत है कि छात्रों को शांत रखा जाए और उन्हें रोजमर्रा की दिनचर्या में वापस लौटने में मदद की जाए.
शिक्षाविद् और मुंबई में प्री-स्कूल शिक्षा देने वाले ट्रीहाउस एजुकेशन एंड एक्सेसरीज लिमिटेड के संस्थापक और सीईओ राजेश भाटिया ने दिप्रिंट को बताया कि महामारी के बाद के बच्चे स्कूलों में जिस वातावरण का अनुभव कर रहे हैं, ‘वह काफी अलग है और हमें उन्हें एडजस्ट करने का समय देना चाहिए.’
भाटिया ने कहा, ‘बच्चे स्कूल में लौटने से खुश महसूस कर रहे हैं और उनके लिए किसी आजादी की तरह है. वे घर पर ही बने रहने के कारण निराश थे.’
उन्होंने आगे कहा कि बच्चों के स्कूल लौटने के साथ लोगों को यह समझना होगा कि उनके नजरिये से चीजें किस तरह बदल गई हैं.
भाटिया ने आगे कहा, ‘बच्चों पर दो तरह का दबाव होता है—माता-पिता की तरफ से यह कि उसे सुरक्षित रहना है, और फिर स्कूल में रहने का भी पूरा दबाव होता है. स्कूल में वह पाता है कि यह पहले के जैसा नहीं रह गया है…आपको सामान्य दूरी बनाए रखनी है, एक सुरक्षा अधिकारी है जो तापमान जांच रहा है, आपको खुद को सैनिटाइज करते रहना है. यहां तक कि जब बड़ों के लिए भी चीजें पहले जैसी सामान्य नहीं रह गई हैं तो हम बच्चों से ऐसा महसूस करने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?’
किशोर बच्चे घुलने-मिलने से कतरा रहे
दिल्ली के एक निजी स्कूल में काउंसलर योगिता जोशी ने कहा कि वह यूनिसेफ की रिपोर्ट के निष्कर्षों से सहमत हैं. जोशी ने कहा, ‘छात्रों, विशेष रूप से किशोरों को एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने के लिए प्रेरित करना वैसे भी एक मुश्किल काम था, और अब महामारी और तमाम तरह की पाबंदियों के साथ वे एक-दूसरे से और भी कतराते रहते हैं. यह उनके लिए अच्छा नहीं है…उनका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है.’
उन्होंने कहा, ‘एक साल से अधिक समय तक घर पर रहने के बाद हम बच्चों से आसानी से नए माहौल में ढलने की उम्मीद नहीं कर रहे थे लेकिन इससे ज्यादा चिंताजनक यह है कि वे एक-दूसरे के साथ घुलना-मिलना भी नहीं चाहते हैं.’
ममता त्रिपाठी, जिनकी किशोर बेटी नोएडा में स्कूल जा रही है, ने कहा कि वह पिछले एक साल से चुनौतियों का सामना कर रही हैं. ममता त्रिपाठी ने कहा, ‘मैं अपनी बेटी को किसी भी पारिवारिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए राजी नहीं कर पाती…वह ज्यादातर समय अपने फोन या लैपटॉप पर बिताती है. मुझे डर है कि इतने लंबे समय तक घर के अंदर रहने की वजह से वह एकदम सामाजिक नहीं रह गई है.’
उन्होंने कहा, ‘मुझे उम्मीद थी कि एक बार जब वह फिर से स्कूल जाना शुरू करेगी, तो चीजें बदल जाएंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मैं भी अन्य माता-पिता की तरह उसे स्थिति के अनुरूप खुद को ढालने के लिए समय दे रही हूं.’
कम आय वाले परिवारों के छात्रों की स्थिति बदतर
स्कूलों के बंद रहने से सबसे ज्यादा सरकारी स्कूलों के छात्र प्रभावित हुए क्योंकि उनमें से कई के पास ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने के लिए डिवाइस तक नहीं थीं. हालांकि, वे कक्षाओं में वापस लौटने पर भी संक्रमण से जूझ रहे हैं. उनकी चुनौतियां अलग हैं और कई मायने में अधिक गंभीर हैं.
बच्चों की शिक्षा पर काम कर रहे बेंगलुरु स्थित गैर-लाभकारी संगठन आह्वान फाउंडेशन के संस्थापक ब्रज किशोर प्रधान ने दिप्रिंट को बताया कि सरकारी स्कूल जाने वाले कई बच्चे आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना कर रहे हैं क्योंकि महामारी के कारण उनके माता-पिता में किसी एक या दोनों की नौकरी चली गई है.
प्रधान ने कहा, ‘स्कूल फिर से खुलने के बाद बच्चे स्कूल आकर बहुत खुश थे क्योंकि वंचित तबके के बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं थी. लेकिन कोविड छात्रों के लिए एक चुनौती बना हुआ है. जिनके माता-पिता की नौकरी चली गई, उन्हें अब यह चिंता सता रही है कि उनके माता-पिता उनके लिए भोजन या स्टेशनरी या ड्रेस की व्यवस्था कैसे करेंगे. यह सब ऐसा है जिसके बारे में छात्रों को पहले परेशान होने की जरूरत नहीं होती थी.’
उन्होंने कहा कि कोविड ने स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या काफी बढ़ा दी है. उन्होंने कहा, ‘हम जिन स्कूलों के साथ काम करते हैं, हमने देखा है कि स्कूलों के फिर से खुलने के बाद कई लड़कियों ने पढ़ाई छोड़ दी है. जो माता-पिता वित्तीय कठिनाइयों के कारण केवल एक बच्चे को पढ़ाने का खर्च उठा सकते हैं, वे लड़कियों के बजाये लड़कों को पढ़ाने को तरजीह दे रहे हैं.’
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